स्वागतम ! सोशल नेटवर्किंग का प्रयोग राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए करें.

Free HTML Codes

अगरहो प्यार के मौसम तो हमभी प्यार लिखेगें,खनकतीरेशमी पाजेबकी झंकारलिखेंगे

मगर जब खून से खेले मजहबीताकतें तब हम,पिलाकर लेखनीको खून हम अंगारलिखेगें

Thursday, December 30, 2010

कैसे बचें कामवासना से:विपश्यना एक वैज्ञानिक रास्ता

कामवासना मानवमन की सबसे बड़ी दुर्बलता है । जिन तीन तृष्णाओं के कारण वह भवनेत्री में बंधा रहता है उसमें कामतृष्णा प्रथम है , प्रमुख है । माता पिता के काम संभोग से मानव की उत्पत्ति होती है । अतः अंतर्मन की गहराइयों तक कामभोग का प्रभाव छाया रहता है । इसके अतिरिक्त अनेक जन्मों के संचित स्वयं अपने काम संस्कार भी साथ चलते ही हैं । अतः मुक्ति के के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के लिए काम भोग के संस्कारों से छुटकारा पाना बहुत कठिन होता है । विपश्यना करनी न आए तो असंभव ही हो जाता है ।
काम वासनाओं से छुटकारा पा कर कोई व्यक्ति ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता है परंतु बार बार मन में वासना के तूफान उठते हैं और उसे व्याकुल बनाते हैं । कहीं ब्रह्मचर्य भंग न हो जाए इसलिए वह कठोरतापूर्वक वासनाओं का दमन करता है ओर परिणामतः अपने भीतर तनाव की ग्रंथियां बांधता है दमन द्वारा वासनाओं से मुक्ति मिलती नहीं । भीतर ही भीतर वासना उमड़ती कुलबुलाती रहती है और मन को मोहती रहती है। या दमन द्वारा ब्रह्मचर्य पालने वाला कोई विश्वामित्र जैसा साधक मेनका जैसी अप्सरा की रूप माधुरी पर फिसल जाता है तो आत्मग्लानि, आत्मक्षोभ और आत्मगर्हा से भर उठता है । ऐसा होने पर अपराध की ग्रथियां बांध बांध कर अपनी व्याकुलता को और बढ़ाता है ।
इसीलिए फ्रायड जैसे मनोविज्ञानवेत्ता ने कामवासना के दमन को मानसिक तनाव और व्याकुलता का प्रमुख कारण माना और काम भोग की खुली छूट को प्रोत्साहित किया । अनेक लोग इस मत के पक्षधर बने । आज के युग के कुछएक साधना सिखाने वाले लोग भी इस बहाव में बह कए । ऐसे लोगों ने रोग को तो ठीक तरह से समझा, पर रोग निवारण का जो इलाज ढूंढा, वह रोग के बढ़ाने का ही कारण बन बैठा । काम वासना का दमन एक अंत है , जो सचमुच रोग निवारण का सही उपाय नहीं है । परंतु उसे खुली छूट देना ऐसा दूसरा अंत है जो कि रोग निवारण की जगह रोग संवर्धन का ही काम करता है ।
जब कोई व्यक्ति बुद्ध बनता है तो तृष्णा के सभी बंधनों को भग्न करके विकार विमुक्ति के ऐश्वर्य का जीवन जीता है । इसीलिए वह भगवान कहलाने का अधिकारी होता है । ऐसा व्यक्ति काम तृष्णा, भव तृष्णा और विभव तृष्णा , इन तीनों से छुटकारा पा लेता है और जिस विपश्यना विद्या ( भगवान बुद्ध की ध्यान की विधि ) द्वारा यह मुक्त अवस्था प्राप्त की , उसे ही करुण चित्त से लोगों को बांटता है ।
विपश्यना साधना की विधि न विकारों के दमन के लिए है और न उन्हें खुली छूट देने के लिए । विपश्यना विधि इन दोनों अतियों के बीच का मध्यम मंगल मार्ग है जो जागे हुए विकार को साक्षी भाव से देखना सिखाती है जिससे कि अतंर्मन की गहराइयों में दबे हुए काम विकारों को भी जड़ से उखाड़ना का काम शुरू हो जाता है कुशल विपश्यी साधक समय पाकर इस विधि में पारंगत होता है और कामविकारों का सर्वथा उन्मूलन कर लेता है । और सहज भाव से ब्रह्मयर्च का पालन करने लगता है । इसके अभ्यास में समय लगता है । बहुत परिश्रम , पुरूषार्थ , पराक्रम करना पड़ता है । परंतु यह पराक्रम देहदंडन का नहीं , मानस दमन का नहीं , बल्कि मनोविकारों को तटस्थ भाव से देख सकने की क्षमता प्राप्त करने का है जोकि प्रारम्भ में बड़ा कठिन लगता है पर लगन और निष्ठा से अभ्यास करते हुए साधक देखत है कि शनैः शनैः उसके मन पर वासना की गिरफ्त कम होती जा रही है ।दमन नहीं करने के कारण कोई तनाव भी नहीं बढ़ रहा है और समय पा कर सारे कामविकारों से मुक्त हो कर ब्रह्मचर्य का जीवन जीना सहज हो गया है । यह सब कैसे होता है । इसे समझें ।
पुरुष के लिए नारी के और नारी के लिए पुरुष के रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्शसे बढ़ कर अन्य कोई लुभावना आलंबन नहीं होता । यह पांचों आलंबन आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा कीं इंद्रियों पर आघात करते हैं अथवा इनकी याद और कल्पना चिंतन के रूप में मन की इंद्रिय पर आघात करती है तो ही वासना के विकार जगने का काम आंरंभ होता है । पहली पांचों इंद्रियां शरीर पर स्थापित है ही । छठी मन की इंद्रिय भी शरीर की सीमा के भीतर ही होती है । अतः विपश्यना साधना का अभ्याय साढ़े तीन हाथ की काया के भीतर ही किया जाता है बाहर नहीं । कामतृष्णा जहां जागती है, वहीं उसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है, अन्यत्र नहीं । साढ़े तीन हाथ की काया में इंद्रिय सीमाक्षेत्र के भीतर इसकी उत्पत्ति होती है , यहींनिवास और संवर्धन होता है । अतः विश्यना द्वारा यहीं इसका उन्मूलन किया जा सकता है देखना यह है कि बाहर के आलंबन ने अपने भीतर क्या खट पट शुरू कर दी । आंख कान, नाक, जीभ और त्वचा पर रूप , शब्द गंध, रस और स्पर्ष का संपर्क होते ही यानी प्रथम आघात लगते ही अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर तत्संबंधित इंद्रिय दरवाजे पर और फिर सारे षरीर पर प्रकंपन होता हैं फस्स पच्चया वेदना स्पर्श होते हीं संवेदना होती है । जैसे कांसे के बर्तन को छू देने से उसमें झंकार की तरंगें उठती हैं इस प्रथम आघात के तुरंत बाद मानस का वह हिस्सा जिसे संज्ञा कहें याबुद्धि कहं वह अपने पूर्व अनुभव और याददाश्त के आधार पर इस आलंबन को पहचानता है ‘‘ यह पुरुष अथवा नारी का रूप , शब्द, गंध आदि है । और फिर उसका मूल्यांकन करता है ओह बहुत सुंदर है बहुत मधुर है ं ऐसा करने पर षरीर पर होने वाली यह तरंगे प्रिय प्रतीत होने लगती हैं और मानस उनके प्रति राग रंजित हो कर उनमें डूबने लगता है । वेदना पच्चया तण्हा संवेदना से ही ( काम ) तृष्णा होती है । यही से वासना का दौर शुरू हो जाता है । बार बार रूप, शब्द गंध आदि संबंधित इंद्रियों से टकराते हैं , बार बार प्रिय मूल्यांकन होता है बार बार प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कार बनते हैं । यों क्षण प्रतिक्षण एक के बाद एक वासना के संस्कार बनते बनते पत्थर की लकीर जैसे गहरे हो जाते हैं जब रूप, षब्द, गंध, रस आदि बाहर आलंबन प्रत्यक्षतः आंख, कान नाक आदि इंद्रिय द्वारों से संपर्क करना बंद कर देते हैं तो छठी इंद्रिय का दरवाजा खुल जाता है , अब मन की इंद्रिय पर पूर्व अनुभूत रूप, शब्द, गंध आदि के आंलबन कल्पना और चिंतन के रूप में टकराने लगते हैं, फिर वही क्रम चल पड़ता है । आघात से प्रकंपन का होना , फिर प्रिय मूल्यांकन, फिर संवेदना, फिर प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कारों की उत्पत्ति । क्षण प्रतिक्षण चिंतन का आंलबन चित्तधारा से टकराता रहता है औरक्षण प्रतिक्षण वासना का संस्कार पैदा होता रहता है । यह क्रम जितनी देर चलता है , वासना उतनी बलवान होती जाती है । मन पर उमड़ती हुई यह तीव्र वासना वाणी और शरीर पर प्रकट कोने के लिए मचल उठती है । सारा का सारा चित्त वासना के प्रवाह में आमूल चूल डूब जाता है । वासना में डूबें हुए व्यक्ति की सति याने स्मृति ( यहां स्मृति का अर्थ याददाश्त नहीं है । ) यानि जागरूकता बनी रहती है वासना व्यथित व्यक्ति स्मृतिमान रहता है याने सजग रहता है । परंतु सजग रहता है केवल रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श अथवा चिंतन के आलंबन के प्रति ही । इन छह में से किसी न किसी आलंबन पर उसका ध्यान लगा रहा है । यही आलंबन का ध्यान वासना को उद्दीप्त करता है । अतः स्मृति रहते हुए भी इसे सम्यक स्मृति याने सही स्मृति नहीं कहते । मिथ्या स्मृति कहते है, सति मुट्ठा कहते हैं इन छह आलंबनों में से कोई एक भी तत्संबंधित इद्रिय द्वार के संपर्क में आता है तो स्वानुभव का काम शुरू हो जाता है । संपर्क होते हं तरंग रूपी वेदना को होना, संज्ञा द्वारा मूल्यांकन करना, संवेदना का प्रिय लगना और प्रिय संवेदना का रसास्वादन करते हुए वासना के संस्कार की प्रतिक्रिया का आंरंभ होना, यह सब स्वानुभूति का क्षेत्र है । अतः सत्य का क्षेत्र है । इसके प्रति सजग रहे तो स्मृति सम्यक है। केवल मात्र आलंबन के प्रति सजग रहे आलंबन के स्पर्श का भी निरीक्षण न कर सके, उसके आगे की स्वानुभूतियां तो दूर रहीं, तो स्मृति मिथ्या ही हुई, क्योंकि गहरी अनुभूति वाल क्षेत्र भुलाया हुआ है ।
स्मृति याने जारूकता जब सम्पजज्ज से जुड़ती है तो सम्यक हो पाती है । साधक आताप सम्जनानो सतिमा हो जाता है । इसी को विपश्यना कहते हैं । इसी को सतिपठ्टान कहते हैं याने सति का सम्यक रूप से स्वानुभूतिजन्य सत्य में प्रतिष्ठापित हो जाना । विपश्यी साधक यही करता हैं वह सत्यदर्शी होता है आत्मदर्शी होता है। आत्मदर्शी के माने जिसका कभी स्वयं अनुभव किया ही नहीं ऐसी सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई दार्शनिक मान्यता वाली कल्पित आत्मा का दर्शन करना नहीं । यहां आत्मदर्शन का अर्थ है स्वदर्शन । अनुभूतियों के स्तर पर अपने बारें में जिस जिस क्षण जो जो सच्चाई प्रकट हो उसे ही साक्षीभाव से देखना सत्यदर्शन है , स्वदर्शन है । आत्मदर्शन है । मुक्ति का सहज उपाय है । किसी कल्पना का ध्यान मन को कुछ देर के लिए भरमाए भले ही रखे पर विकार विमुक्त नहीं कर सकता । कोरे बौद्धिक अथवा भक्ति भावावेशमूलक मान्यताओं के दायरें बाहर निकल कर साधक अनुभूति के स्तर पर यथार्थ की भूमि पर कदम रखता है । जो सत्य है उसे केवल मान कर नहीं रह जाता उसे जानता है जनाति और प्रज्ञापूर्वक जानता है पजानाति । साक्षीभाव से तटस्थ भाव से बिना राग के, बिना द्वेश के बिना मोह के यथाभूतः जैसा है वैसा, उसके सत्य स्वभाव में, यथार्थ को जानता है । मात्र जानता है । कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, न उसे दूर करने की न उसे रोके रखने की । केवल दर्शन, केवल ज्ञान यही है पजानाति ।
बाहर का आंलंबन चाहे जो हो , अपने भीतर कामवासना जागी तो बाहर के आलंबन को गौण मानकर अपने भीतर की अनुभूतिजन्य सच्चाई को जानने का अभ्यास साधक शुरू कर देता है । सन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं- जब भीतर कामतृष्णा है तो अत्थि मं अज्डद्यझत्तं कामच्छन्दोति पजानाति - मेरे भीतर कामवासना याने कामतृष्णा है यह प्रज्ञापूर्वक जानता है प्रज्ञापूर्वक इस माने में भी कि यह अनित्य स्वभाव वाली है अनंतकाल तक बनी रहने वाली नहीं । इस समझदारी के साथ तटस्थभाव बनाए रखता है । उसे दूर करने की जा भी कोशिश नहीं करता, अन्यथा दमन के एक अंत की ओर झुक जाएगा । और न हीं उसे वाणी और शरीर पर प्रकट कोने की छूट देता हैं अन्यथा आग में घी डालने वाले दूसरे अंत की ओर झुक जाएगा । उसके अनित्य सवभाव को समझते हुए केवल जानता है पजानाति । क्योंकि अब उसे बढ़ावा नहीं मिल रहा, इस सच्चाई को भी महज साक्षीभाव से प्रज्ञापूर्वक जान लेता हैं असंन्तं वाअज्झत्तं कामच्छन्दं - नहीं है भीतर कामछंद तो , नत्थि में अज्झत्तं कामच्छन्देति पजानाति - मेरे भीतर कामछंद नहीं हैं , इस सच्चाई को प्रज्ञा पूर्वक तटस्थभाव से जानता है । और क्योंकि विष्यना कर रहा है तो सतिमुट्ठा नहीं हुई , सतिपट्ठान का अभ्सायी है याने, अपने भीतर नामरूप याने चित्त और शरीर के प्रंपच को प्रज्ञापूर्व अनुभूति के स्तर पर जानने को काम कर रहा है । इसी को सति के साथ सम्पजञ्ञ को जोड़ना कहते हैं । शरीर चित्त का प्रपंच वेदनाओं के रूप में प्रकट होता है । साधक मानस पर जागी हुई संवेदनाओं को तटस्थभाव से देखत है । ये संवेदनांए अतंर्मन से जुड़ी रहती हैं अतः मन की उदीरणा शुरू हो जाती है । इन पूर्व संचित अनुत्पन्न कामवासनाओं का उत्पाद शुरू हो जाता है यथा च अनुप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स उप्पादो होति तत्च पजानाति । और उदीर्ण हुई इस चिरसंचित कामवासना को भी साक्षीभाव से संवेदनाओं के स्तर पर देखते रहता है तो उन पुराने संस्करों की परत पर परत उतरते हुए उनकी निर्जरा होती जाती है , उनका क्षय होते जाता है । यथाच उप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स पहानं होततिञ्च पजानाति - यों उदीरणा और निर्जरा होते होते प्रहाण क्षय होते होते एक समय ऐसा आता है, जब कि अंतर्मन की गहराई तक के कामतृश्णा के सारे संस्कार उखड जाते हैं उनका नाम लेख तक नहीं रहता । अब कोई कामवासना जागती हीं नहीं । न किसी वर्तमन के आलंबन के कारण और न कोई पुराने संग्रह में से । यथा च पहीनस्स काच्छन्दस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति । साधक परम मुक्त अवस्था तक पहुँच जाता है ।
जो परिश्रम करे , वही इस मुक्त अवस्थात क पहुँचे । किसी भी जाति का हो, वर्ण का हो, रंग रूप हा हो , देश विदेश का हो, बोली भाषा का हो जो करे वही मुक्त । जो न करे उसे लाभ कैसे मिले भला । कोई कोई इसीलिए नहीं करता कि यह तो हमारी पंरपरागत दार्शनिक मान्यता के अनुकूल नहीं है हम क्यों करें । कोई कोई इसलिए नहीं करता कि यह हमारी मान्यता कितनी महान है । इस गर्व गुमान में ही संतुष्टि कर लेता है । मान्यताओं में उलझे हुए लोग विपश्यना नहीं कर सकते , इससे लाभान्वित नहीं तो सकते । करें तो लाभान्वित होंगे ही । ।

Friday, December 24, 2010

पाकिस्तान में हिन्दू -सिक्खों की दुर्गति और हम.....


पाकिस्तान में हिंदुओं के धार्मिक नेता लखीचंद गर्जी का अपहरण कर लिया गया है। वे बलूचिस्तान प्रांत के कलात जिले में स्थित काली माता मंदिर से जुड़े हुए हैं। उनके अपहरण की घटना के खिलाफ हिंदू समुदाय के लोगों ने कई जगहों पर प्रदर्शन किए। इस बीच तालिबान द्वारा दो सिखों के अपहरण और उनका सिर धड़ से अलगर करने के बाद एक हिंदू युवक के अपहरण का मामला सामने आया है। अपहरण करने वालों ने फिरौती की रकम के तौर पर एक करोड़ रुपये की मांग की गई है।
धर्म गुरु के अपहरण के बाद सड़कों पर विरोध प्रदर्शन
85 वर्षीय लखीचंद एक शादी समारोह में शामिल होने के लिए कलात से खुजदार इलाके की ओर जा रहे थे। उनके साथ कुछ और लोग भी थे। अज्ञात सशस्त्र लोगों ने उन्हें रास्ते में रोका और लखीचंद व अन्य लोगों को अगवा कर लिया। हालांकि अपहर्ताओं ने फिरौती की रकम मिलने पर उनमें से एक को छोड़ भी दिया।

घटना के विरोध में कलात और अन्य स्थानों पर सैकड़ों हिंदुओं ने प्रदर्शन कर सड़कें जाम कर दीं जिसकी वजह से यातायात बाधित हुआ। प्रदर्शनकारी लखीचंद को तुरंत छुड़ाने की मांग कर रहे थे।

प्रदर्शनकारियों ने बलूचिस्तान के खुजदार, क्वेटा, कलात और नौशकी में अपहरण के विरोध में प्रदर्शन किए और सरकार से लखीचंद की सुरक्षित रिहाई तुरंत करवाई जाए और हिंदू समुदाय को सुरक्षा मुहैया कराई जाए। खुजदार में विरोध कर रहे हिंदुओं को संबोधित करते हुए नंद लाल, राजकुमार और चंदर कुमार ने कहा कि सरकार आम लोगों खासकर अल्पसंख्यकों की ज़िंदगी और उनकी संपत्तियों की सुरक्षा करने में नाकाम रही है। क्वेटा की हिंदू पंचायत ने आर्य समाज मंदिर से एक रैली निकाली। यह रैली जिन्ना रोड, मस्जिद रोड, शाहरा-ए-इकबाल और मन्नान चौक होते हुई गुजरी।


हिंदू युवक का अपहरण, एक करोड़ की फिरौती मांगी
तालिबान द्वारा दो सिखों के अपहरण और उनका सिर धड़ से अलगर करने के बाद एक हिंदू युवक के अपहरण का मामला सामने आया है। अपहरण करने वालों ने फिरौती की रकम के तौर पर एक करोड़ रुपये की मांग की गई है।

रॉबिन सिंह नाम के कंप्यूटर इंजीनियर का पाकिस्तान के पेशावर शहर में यूनिवर्सिटी रोड बाज़ार से अपहरण हुआ। एक स्थानीय नेता के मुताबिक रॉबिन किसी काम से नौशेरा जा रहा था जब उसे अगवा किया गया। पेशावर जिला असेंबली के सदस्य साहिब सिंह के मुताबिक अपहरण करने वालों ने रॉबिन के परिवार से एक करोड़ रुपये मांगे हैं। साहिब सिंह के मुताबिक रॉबिन के भाई राजन सिंह ने पश्चिमी कैंट थाने में इसी सिलसिले में मामला दर्ज कराया है। हालांकि, पश्चिम कैंट थाने की पुलिस ने ऐसी किसी एफआईआर की जानकारी से इनकार किया है। पुलिस अफसरों का कहना है कि हो सकता है कि रॉबिन सिंह का अपहरण उनके थाने की सीमा में न हुआ हो।


सिख भी निशाने पर
पाकिस्तान के कबिलाई इलाके में अगवा किए गए दो सिखों-महल सिंह और जसपाल सिंह की सिर कटी लाश मिलने से पाकिस्तन के अल्पसंख्यक समुदाय में सनसनी फैल गी है। इसके अलावा दो से चार सिख अब भी तालिबान के कब्जे में हैं। पाकिस्तान की अल्पसंख्यक सिख समुदाय ने सिखों के अपहरण और उनकी हत्या की तीखी आलोचना की है।


पहले से हो रहा है हिंदुओं पर अत्याचार
पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी करीब दो फीसदी है। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के साथ बहुसंख्यक अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं। कई हिंदू परिवारों को अपना पुश्तैनी घर छोड़ने और मंदिर को तोड़े जाने के फरमान जारी होते रहते हैं। पेशावर जैसे कई शहरों में ऐसे फरमान जारी हो चुके हैं। हिंदु लड़कियों का अपहरण करके उनके साथ जबर्दस्ती शादी करने और धर्म परिवर्तन की कई घटनाएं हो चुकी हैं। यही वजह है कि १९४८ में पाकिस्तान में जहां हिंदुओं की आबादी करीब १८ फीसदी थी, वही अब घटकर करीब दो फीसदी हो गई है।

पाकिस्तान में तालिबानी कट्टरपंथियों का कहर पिछले कुछ सालों से हिंदू परिवारों पर भी टूट रहा है। हिंदू परिवार ही लड़कियों का अपहरण और उनका जबरन धर्म परिवर्तन अब आम बात हो गई है। सरकारी तंत्र ने भी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए हैं।


होते रहे हैं अपहरण
पाकिस्तान के सिंध प्रांत के जैकोबाबाद में रहने वाले एक हिंदू परिवार की लड़की रवीना (16) का तालिबानी आतंकियों ने २००९ में अपहरण कर लिया था। 16 लाख रुपये की फिरौती लेने के बाद आतंकियों ने रवीना को मुक्त किया था। वहीं, कराची में लॉयर टाउन के चक्कीवाड़ा की रहने वाली एक नाबालिग लड़की का दो मुस्लिम युवकों-इकबाल और अरशद ने अपहरण कर लिया। इस पर परिजनों ने पुलिस में मामला दर्ज कराया। पुलिस ने छापा मारकर किशोरी को बरामद कर लिया, लेकिन उसे हवालात में डाल दिया गया। मेडिकल जांच में दुष्कर्म की पुष्टि होने के बावजूद कोर्ट ने एकतरफा फैसला सुनाते हुए मामला खारिज कर दिया। कोर्ट का कहना था कि किशोरी ने इस्लाम स्वीकार कर अरशद से निकाह कर लिया है।


हजारों हिंदू खटखटा रहे हैं भारत का दरवाजा
एक आकलन के मुताबिक पिछले छह वर्षो में पाकिस्तान के करीब पांच हजार परिवार भारत पहुंच चुके हैं। इनमें से अधिकतर सिंध प्रांत के चावल निर्यातक हैं, जो अपना लाखों का कारोबार छोड़कर भारत पहुंचे हैं, ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रह सकें।

2006 में पहली बार भारत-पाकिस्तान के बीच थार एक्सप्रेस की शुरुआत की गई थी। हफ्ते में एक बार चलनी वाली यह ट्रेन कराची से चलती है भारत में बाड़मेर के मुनाबाओ बॉर्डर से दाखिल होकर जोधपुर तक जाती है। पहले साल में 392 हिंदू इस ट्रेन के जरिए भारत आए। 2007 में यह आंकड़ा बढ़कर 880 हो गया। पिछले साल कुल 1240 पाकिस्तानी हिंदू भारत जबकि इस साल अगस्त तक एक हजार लोग भारत आए और वापस नहीं गए हैं। वह इस उम्मीद में यहां रह रहे हैं कि शायद उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाए, इसलिए वह लगातार अपने वीजा की मियाद बढ़ा रहे हैं।

(साभार दैनिक भास्कर )

Wednesday, December 22, 2010

विश्व में हिन्दू देश एक अथवा दो नहीं वरन १३ - इति सिद्धम


जब लोग कहते हैं कि विश्व में केवल एक ही हिन्दू देश है तो यह पूरी तरह गलत है यह बात केवल वे ही कह सकते हैं जो हिन्दू की परिभाषा को नहीं जानते । इसके लिए सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि हिन्दू की परिभाषा क्या है ।
हिन्दुत्व की जड़ें किसी एक पैगम्बर पर टिकी न होकर सत्य, अहिंसा सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य , करूणा पर टिकी हैं । हिन्दू विधि के अनुसार हिन्दू की परिभाषा नकारात्मक है परिभाषा है जो ईसाई मुसलमान व यहूदी नहीं है वे सब हिन्दू है। इसमें आर्यसमाजी, सनातनी, जैन सिख बौद्ध इत्यादि सभी लोग आ जाते हैं । एवं भारतीय मूल के सभी सम्प्रदाय पुर्नजन्म में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि व्यक्ति के कर्मों के आधार पर ही उसे अगला जन्म मिलता है । तुलसीदास जीने लिखा है परहित सरिस धरम नहीं भाई । पर पीड़ा सम नहीं अधमाई । अर्थात दूसरों को दुख देना सबसे बड़ा अधर्म है एवं दूसरों को सुख देना सबसे बड़ा धर्म है । यही हिन्दू की भी परिभाषा है । कोई व्यक्ति किसी भी भगवान को मानते हुए, एवं न मानते हुए हिन्दू बना रह सकता है । हिन्दू की परिभाषा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि भारत में हिन्दू की परिभाषा में सिख बौद्ध जैन आर्यसमाजी सनातनी इत्यादि आते हैं । हिन्दू की संताने यदि इनमें से कोई भी अन्य पंथ अपना भी लेती हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं समझी जाती एवं इनमें रोटी बेटी का व्यवहार सामान्य माना जाता है । एवं एक दूसरे के धार्मिक स्थलों को लेकर कोई झगड़ा अथवा द्वेष की भावना नहीं है । सभी पंथ एक दूसरे के पूजा स्थलों पर आदर के साथ जाते हैं । जैसे स्वर्ण मंदिर में सामान्य हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाते हैं तो जैन मंदिरों में भी हिन्दुओं को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । जब गुरू तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितो के बलात धर्म परिवर्तन के विरूद्ध अपना बलिदान दिया तो गुरू गोविन्द सिंह ने इसे तिलक व जनेउ के लिए उन्होंने बलिदान दिया इस प्रकार कहा । इसी प्रकार हिन्दुओं ने भगवान बुद्ध को अपना 9वां अवतार मानकर अपना भगवान मान लिया है । एवं भगवान बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को करने वाले अधिकतम लोग आज हिन्दू ही हैं एवं बुद्ध की शरण लेने के बाद भी अपने अपने घरों में आकर अपने हिन्दू रीतिरिवाजों को मानते हैं । इस प्रकार भारत में फैले हुए पंथों को किसी भी प्रकार से विभक्त नहीं किया जा सकता एवं सभी मिलकर अहिंसा करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य को ही पुष्ट करते हैं ।
इसी कारण कोई व्यक्ति चाहे वह राम को माने या कृष्ण को बुद्ध को या महावीर को अथवा गोविन्द सिंह को परंतु यदि अहिंसा, करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य, पुर्नजन्म, अस्तेय, सत्य को मानता है तो हिन्दू ही है । इसी कारण जब पूरे विश्व में 13 देश हिन्दू देशों की श्रेणी में आएगें । इनमें वे सब देश है जहाँ बौद्ध पंथ है । भगवान बुद्ध द्वारा अन्य किसी पंथ को नहीं चलाया गया उनके द्वारा कहे गए समस्त साहित्य में कहीं भी बौद्ध शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । उन्होंने सदैव इस धर्म कहा । भगवान बुद्ध ने किसी भी नए सम्प्रदाय को नहीं चलाया उन्होनें केवल मनुष्य के अंदर श्रेष्ठ गुणों को लाने उन्हें पुष्ट करने के लिए ध्यान की पुरातन विधि विपश्यना दी जो भारत की ध्यान विधियों में से एक है जो उनसे पहले सम्यक सम्बुद्ध भगवान दीपंकर ने भी हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दी थी । एवं भगवान दीपंकर से भी पूर्व न जाने कितने सम्यंक सम्बुद्धों द्वारा यही ध्यान की विधि विपश्यना सारे संसार को समय समय पर दी गयी ( एसा स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा कहा गया है । भगवान बुद्ध ने कोई नया पंथ नहीं चलाया वरन् उन्होंने मानवीय गुणों को अपने अंदर बढ़ाने के लिए अनार्य से आर्य बनने के लिए ध्यान की विधि विपश्यना दी जिससे करते हुए कोई भी अपने पुराने पंथ को मानते हुए रह सकता है । परंतु विधि के लुप्त होने के बाद विपश्यना करने वाले लोगों के वंशजो ने अपना नया पंथ बना लिया । परतुं यह बात विशेष है कि इस ध्यान की विधि के कारण ही भारतीय संस्कृति का फैलाव विश्व के 21 से भी अधिक देशों में हो गया एवं ११ देशों में बौद्धों की जनसंख्या अधिकता में हैं ।
हिन्दुत्व व बौद्ध मत में समानताएं -
१- दोनों ही कर्म में पूरी तरह विश्वास रखते हैं । दोनों ही मानते हैं कि अपने ही कर्मों के आधार पर मनुष्य को अगला जन्म मिलता है ।
2- दोनों पुर्नजन्म में विश्वास रखते हैं ।
3- दोनों में ही सभी जीवधारियों के प्रति करूणा व अहिंसा के लिए कहा गया है ।
4- दोनों में विभिन्न प्रकार के स्वर्ग व नरक को बताया गया है ।
5- दोनों ही भारतीय हैं भगवान बुद्ध ने भी एक हिन्दू सूर्यवंशी राजा के यहां पर जन्म लिया था इनके वंशज शाक्य कहलाते थे । स्वयं भगवान बुद्ध ने तिपिटक में कहा है कि उनका ही पूर्व जन्म राम के रूप में हुआ था । 6- दोनों में ही सन्यास को महत्व दिया गया है । सन्यास लेकर साधना करन को वरीयता प्रदान की गयी है ।
7- बुद्ध धर्म में तृष्णा को सभी दुखों का मूल माना है । चार आर्य सत्य माने गए हैं ।
- संसार में दुख है
- दुख का कारण है
- कारण है तृष्णा
- तृष्णा से मुक्ति का उपाय है आर्य अष्टांगिक मार्ग । अर्थात वह मार्ग जो अनार्य को आर्य बना दे ।
इससे हिन्दुओं को भी कोई वैचारिक मतभेद नहीं है ।
8- दोनों में ही मोक्ष ( निर्वाण )को अंतिम लक्ष्य माना गया है एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरूषार्थ करने को श्रेष्ठ माना गया है ।

दोनों ही पंथों का सूक्ष्मता के साथ तुलना करने के पश्चात यह निष्कर्ष बड़ी ही आसानी से निकलता है कि दोनों के मूल में अहिंसा, करूणा, ब्रह्मचर्य एवं सत्य है । दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता । और हिन्दओं का केवल एक देश नहीं बल्कि 13 देश हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं विश्व की कुल जनसंख्या में भारतीय मूल के धर्मों की संख्या 20 प्रतिशत है जो मुस्लिम से केवल एक प्रतिशत कम हैं । एवं हिन्दुओं की कुल जनसंख्या बौद्धों को जोड़कर 130 करोड़ है। है जो मुसलमानों से कुछ ही कम है । व हिन्दुओं के 13 देश थाईलैण्ड, कम्बोडिया म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, तिब्बत, लाओस वियतनाम, जापान, मकाउ, ताईवान नेपाल व भारत हैं । इसी कारण जब लोग कहते हैं कि विश्व में केवल एक ही हिन्दू देश है तो यह पूरी तरह गलत है यह बात केवल वे ही कह सकते हैं जो हिन्दू की परिभाषा को नहीं जानते हैं ।

Sunday, December 19, 2010

१९६२ दोहराने को आमादा चीन:सरकार सो रही है


आज के ताजा हालातों से जान पड़ता है की चीन दुबारा से १९६२ को दोहराने की पूरी साजिश कर रहा है और हमारे हुक्मरान दुखद अतीत की भाति निद्रित हैं. चीन के प्रधानमंत्री वन च्या पाओ के भारत दौरे के चंद दिनों बाद ही चीन ने भारत के साथ सीमा विवाद को एक नया मोड़ दे दिया है। ची
न की सरकारी समाचार एजेंसी 'शिन्हुआ' ने बताया है कि भारत-चीन सीमा महज 2000 किलोमीटर लंबी है, जबकि भारतीय दस्तावेज के मुताबिक यह करीब 3500 किलोमीटर है। यानी चीन ने करीब 1500 किलोमीटर दूरी को भारत के साथ सीमा मानने से इनकार कर दिया है।

जाहिर है, चीन अब उस 1500 किलोमीटर लंबी लाइन को सीमा नहीं मानता जिसके एक ओर जम्मू एवं कश्मीर है और दूसरी ओर तिब्बत और सिंचियांग प्रांत है। चीनी प्रधानमंत्री के भारत दौरे के पहले उनके सहायक विदेश मंत्री हू ने सीमा के बारे में जो ब्यौरा दिया था, शिन्हुआ ने उसी के आधार पर भारत-चीन सीमा को दर्शाया है
एक ओर जहां भारत और चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत का दौर चला रहे हैं। वहीं चीन की सरकारी संवाद समिति शिन्हुआ और कम्युनिस्ट पार्टी के मुख पत्र पीपुल्स डेली के अंग्रेजी संस्करण 'ग्लोबल टाइम्स' के अनुसार, भारत-चीन सीमा की लंबाई महज 2 हजार किमी है। चीनी मीडिया ने भारत-चीन सीमा की लंबाई के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के 17 दिसंबर को संपन्न हुई भारत की तीन दिवसीय यात्रा के पहले यह रिपोर्ट शिन्हुआ और ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित हुई थी। शिन्हुआ ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा गया है कि भारत-चीन सीमा सिर्फ 2,000 किमी लंबी है। बीजिंग स्थित भारतीय राजदूत एस जयशंकर ने चीनी मीडिया के इस दावे का खंडन किया है। ग्लोबल टाइम्स को दिए साक्षात्कार में जयशंकर ने कहा है कि दोनों देशों के बीच 3,488 किमी लंबी सीमा है। मंगलवार को प्रकाशित इस साक्षात्कार में ग्लोबल टाइम्स ने जानबूझ कर यह नोट लगाया है कि चीन के दावे के अनुसार, दोनों देशों के बीच सीमा की लंबाई करीब 2 हजार किमी है।


1962 युद्ध के पीछे थी नेहरू का उदासीनता !

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1 जुलाई 1954 को ही (भारत-चीन) सीमा पर
बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे। यह बात ए ज
ी नूरानी की नई किताब में कही गई है।

पुस्तक के मुताबिक नेहरू ने न केवल बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे बल्कि
1960 में भारत दौरे पर आए और विवाद को समाप्त करने को तैयार चाउ एन लाइ
को टका सा जवाब दे दिया था। इन दोनों कारकों ने 1962 के भारत-चीन युद्ध
की नींव डाल दी।


लीगल मामलों के एक्सपर्ट ए.जी. नूरानी सरहद से जुड़े मसलों के अपने
अध्ययन के लिए भी जाने जाते हैं। नूरानी ने इस पुस्तक में 17 पैरा
मेमोरेंडम को उद्धृत किया है जिसमें नेहरू ने कहा है,'हमारी अब तक की
नीति और चीन से हुआ समझौता दोनों के आधार पर यह सीमा सुनिश्चित मानी जानी
चाहिए ऐसी जो किसी के साथ भी बातचीत के लिए खुली नहीं है। बहस के कुछ
बेहद छोटे मसले हो सकते हैं लेकिन वे भी हमारी ओर से नहीं उठाए जाने
चाहिए।'

इंडिया-चाइना बाउंडरी प्रॉब्लम 1846-1947: हिस्ट्री एंड डिप्लोमैसी' नाम
की इस पुस्तक में बताया गया है कि भारत ने अपनी तरफ से ऑफिशल मैप में
बदलाव कर दिया। 1948 और 1950 के नक्शों में पश्चिमी (कश्मीर) और मध्य
सेक्टर (उत्तर प्रदेश) के जो हिस्से अपरिभाषित सरहद के रूप में दिखाए गए
थे, वे इस बार गायब थे। 1954 के नक्शे में इनकी जगह साफ लाइन दिखाई गई
थी।'

लेखक ने कहा है कि 1 जुलाई 1954 का यह निर्देश 24 मार्च 1953 के उस फैसले
पर आधारित था जिसके मुताबिक सीमा के सवाल पर नई लाइन तय की जानी थी।
किताब में कहा गया है,'यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण था। पुराने नक्शे जला दिए
गए। एक पूर्व विदेश सचिव ने इस लेखक को बताया था कि कैसे एक जूनियर ऑफिसर
होने के नाते खुद उन्हें भी उस मूर्खतापूर्ण कवायद का हिस्सा बनना पड़ा
था।'
माना जा रहा है कि वह पूर्व विदेश सचिव राम साठे थे चीन में भारत के
राजदूत भी रह चुके थे। साठे की स्मृति को समर्पित इस पुस्तक का विमोचन 16
दिसंबर को चीनी प्रधाननमंत्री वेन जियाबाओ की बारत यात्रा के दौरान
उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया था।

किताब के मुताबिक नेहरू चाहते थे कि नए नक्शे विदेशों में भारतीय
दूतावासों के भेजे जाएं, इन्हें सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने ला दिया
जाए और स्कूल-कॉलेजों में भी इस्तेमाल किए जाने लगें। किताब में 22 मार्च
1959 को चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ के लिखे पत्र में नेहरू की हर बात
को ' ऐतिहासिक रूप से गलत ' बताते हुए नूरानी कहते हैं कि 1950 तक भारतीय
नक्शों ने सीमा को अपरिभाषित बताया जाता था।


खोजो टीपू सुल्तान कहाँ सोये हैं
असफाक और उस्मान कहाँ सोये हैं
बम वाले वीर जवान कहाँ सोये हैं
वे भगत सिंह बलवान कहाँ सोये हैं
जा कहो,करे वे कृपा,न रूठे वे
बम उठा बाज़ के सदृश टूटे वे
हम मान गए जब क्रान्तिकाल होता ही
सारी लपटों का रंग लाल होता है
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता है
शुरत्व नहीं कोमल,कराल होता है
वास्तविक मर्म जीवन का जान गए हैं
हम भलीभाति खुद को पहचान गए हैं
हम समझ गए हैं खूब क्रूर के चालों को
बम की महिमा को और बन्दूक की नालों को
साधना स्वयं शोणित कर वार रही है
शातलुज को साबरमती पुकार रही है.

Saturday, December 18, 2010

काकोरी के वीरों को नमन



देश के नौजवानों को अपनी कविता और साहसिक कारनामों से आजादी का दीवाना बनाने वाले काकोरी कांड के नायक राम प्रसाद बिस्मिल और आजादी की लड़ाई में हिंदू-मुसलमानों के बीच एकता का प्रतीक बने अशफाक उल्ला खां ने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते हंसते फांसी का फंदा चूम लिया था।
सन् 1927 में वह दिसंबर का महीना था जब 19 तारीख को इन जांबाज देशभक्तों की शहादत ने देश के बच्चों, युवाओं और बुजुर्गो में आजादी हासिल करने का एक नया जज्बा पैदा कर दिया था। ये वीर सेनानी काकोरी की घटना से चर्चा में आए थे।
बात 1925 की है जब नौ अगस्त के दिन बिस्मिल के अलावा चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह समेत 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच शाम लगभग साढ़े सात बजे ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूटकर अंग्रेजों को खुली चुनौती दी थी। यह घटना काकोरी डकैती के नाम से जानी गई जिसमें दुर्घटनावश चली गोली से एक यात्री की मौत हो गई।
इतिहासवेत्ता पी. हरीश के मुताबिक अंग्रेजी हुकूमत ने काकोरी के नायकों को पकड़ने के लिए व्यापक अभियान छेड़ा और अपनों की गद्दारी के चलते सभी लोग पकड़े गए। सिर्फ चंद्रशेखर आजाद ही जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
क्रांतिकारियों ने काकोरी कांड को नाम बदलकर अंजाम दिया था। बिस्मिल ने अपने लिए चार अलग-अलग नाम रखे थे जबकि अशफाक उल्ला ने अपना नाम कुमार जी रखा था। इस घटना में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया और राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।
इन सभी को फांसी देने के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर की गई, लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी दे दी गई। बिस्मिल को 19 दिसंबर को गोरखपुर जेल में और अशफाक को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी दी गई। काकोरी घटना को अंजाम देने वाले सभी क्रांतिकारी उच्च शिक्षित और विद्वान थे। बिस्मिल के पास गजब का भाषा ज्ञान था। वह अंग्रेजी, हिंदी, बंगाली और उर्दू में दक्ष थे। उनके द्वारा रचित अमर पंक्तियां सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.. आजादी के हर लड़ाके की जुबान पर हुआ करती थीं जो आज भी नौजवानों को देश पर मर मिटने और दुश्मन को मार गिराने की प्रेरणा देती नजर आती हैं।

Tuesday, December 14, 2010

कल भारत सोने की चिड़िया होता था






कल भारत सोने की चिड़िया होता था
सारी दुनिया की पलकों पे सोता था
अब दुनिया में दो कौड़ी का नोट है
ये गौरव की परंपरा पर चोट है
हम डंकल के निर्देशों पर नाचे हैं
ये दिल्ली के मुह पर कड़े तमाचे हैं
हम ने अपनी खुद दारी को बेचा है
दिल्ली वाली दम दारी को बेचा है
ओढो और बिचावों आब कंगाली को
केवल सपनो में देखो खुशहाली को
आब दुनिया के आगे ऐसा दर्ज़ा है
पेटों के बच्चों के सर भी कर्जा है
अर्थ व्यवस्था टंगी हुई कंकालों में
सोना गिरवी है लन्दन के तालों में
निर्भरता है अमरीका की झोली में
देश खड़ा है भीख मंगो की टोली में
नकसल वादी चलन हुवा है तो क्या है
सीमावों का हनन हुवा है तो क्या है
कन्या सागर से पर्वत तक शोर है
पुरवा के दामन दामन में खूनी भोर है
हर चौराहे पर हिंसा का मेला है
गोहाटी में अपहर्नो की बेला है
बटवारे के नारे है दीवारों पर
बन्दोकों की नालें है अखबारों पर
इससे भी जायदा होगा आगे आगे
हम ने आंखे मीची है जागे जागे
डर कर घुटने टेके है दरबारों ने
जेलों से कातिल छोडे सरकारों ने
कायरता बैठी सत्ता की सेजो पे
हत्यारे हैं समझौतों की मेजो पे
मै तो चारण हो आंसू को गाता हूँ
अत्याचारो का दर्पण दिखलाता हूँ
मेरी कविता सुन कर कोई मत रोना
देश बचाने आएगा जादू टोना
अभी अभी तो केवल आंख मिचौनी है
इक दिन पूरी संसद बंधक होनी है


हर-हर महादेव
(एक देशभक्त की रचना)

हजार साल पुरानी नरसिंह की प्रतिमा मिली


मधुबनी।जिले के फुलपरास अनुमंडल की महिन्दवार पंचायत केबैका गांव में शनिवार की शाम हजार साल पुरानी ग्रेनाइट निर्मित भगवान नरसिंह की दुर्लभ प्रतिमा मिली। यह प्रतिमा एनएच 57 के निर्माण के क्रम में जेसीबी मशीन से मिट्टी खुदाई के क्रम में मिली। स्थानीय लोगों ने प्रतिमा को दुर्गा स्थान में रखकर पूजा-अर्चना शुरू कर दी है।

मिली प्रतिमा में नरसिंह भगवान हिरणकश्यप का वध करते नजर आ रहे हैं। प्रतिमा की ऊंचाई ढाई फुट व चौडाई डेढ फुट है। प्रतिमा के साथ-साथ दो बडे व तीन छोटे कलश भी मिले हैं।

जानकारी हो कि जहां से प्रतिमा प्राप्त हुई है वहां पूर्व में पोखरा था। इसी जगह से वर्ष 1957 में एक महात्मा के कहने पर तत्कालीनविधायक पंडित काशीनाथ मिश्र व अन्य ग्रामीणों के सहयोग से की गई खुदाई में शिव पार्वती की युगल प्रतिमा, एक शिवलिंग, भैरवनाथव प्राचीन काले पत्थर की कई शिलाएं प्राप्त हुई थीं, जो दुर्गा स्थान में स्थापित हैं। ग्रामीण रामनारायण सिंह, शत्रुघ्न सेन, दिगंबर झा, मधुकांतझा आदि ने बताया कि पूर्वज कहते थे कि इस क्षेत्र में कभी प्राचीन मंदिर था। मंदिर में अनेक देवी देवताएं स्थापित थे।

कार्बन जांच में होगा सही उम्र का निर्धारण

मधुबनी।महिला कालेज मधुबनी में कार्यरत इतिहास व प्राचीन संस्कृतिविभाग के अध्यक्ष डॉ. उदयनारायण तिवारी ने बताया कि यह प्रतिमा लगभग एक हजार साल पुरानी है। वास्तविक काल निर्धारण इसके कार्बन जांच के बाद ही होगा। उन्होंने कहा कि नरसिंह भगवान की प्रतिमा जिले में प्रथम बार प्रतिवेदित हुई है। मधुबनी जिले में अब तक मिट्टी खुदाई के क्रम में दुर्लभ प्रतिमाएं प्राप्त हो चुकी हैं।

बेनीपट्टी के सलेमपुर गांव में प्राप्त बराह की प्रतिमा भी एक वर्ष पूर्व तालाब खुदाई के क्रम में मिली थी।

Friday, December 10, 2010

सभी काम श्रेष्ठ हैं


स्वामी विवेकानंद ने कर्तव्य और कर्मयोग को सर्वोपरि बताया है। कोई भी काम छोटा-बडा नहीं होता, यह उनके इस व्याख्यान से पता चलता है..
यदि कोई मनुष्य संसार से विरक्त होकर ईश्वरोपासना में लग जाए, तो उसे यह नहीं समझना चाहिए कि जो लोग संसार में रहकर संसार के हित के लिए कार्य करते हैं, वे ईश्वर की उपासना नहीं करते। संसार के हित में काम करना भी एक उपासना ही है। अपने-अपने स्थान पर सभी बडे हैं।
इस संबंध में मुझे एक कहानी का स्मरण आ रहा है। एक राजा था। वह संन्यासियों से सदैव पूछा करता था-संसार का त्याग कर जो संन्यास ग्रहण करता है, वह श्रेष्ठ है, या संसार में रहकर जो गृहस्थ के कर्तव्य निभाता है?
नगर में एक तरुण संन्यासी आए। राजा ने उनसे भी यही प्रश्न किया। संन्यासी ने कहा, हे राजन् अपने-अपने स्थान पर दोनों ही श्रेष्ठ हैं, कोई भी कम नहीं है। राजा ने उसका प्रमाण मांगा। संन्यासी ने उत्तर दिया, हां, मैं इसे सिद्ध कर दूंगा, परंतु आपको कुछ दिन मेरे साथ मेरी तरह जीवन व्यतीत करना होगा। राजा ने संन्यासी की बात मान ली।
वे एक बडे राज्य में आ पहुंचे। राजधानी में उत्सव मनाया जा रहा था। घोषणा करने वाले ने चिल्लाकर कहा, इस देश की राजकुमारी का स्वयंवर होने वाला है। जिस राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा था, वह संसार में अद्वितीय सुंदरी थी और उसका भावी पति ही उसके पिता के बाद उसके राज्य का उत्तराधिकारी होने वाला था। इस राजकुमारी का विचार एक अत्यंत सुंदर पुरुष से विवाह करने का था, परंतु उसे योग्य व्यक्ति मिलता ही न था।
राजकुमारी रत्‍‌नजटित सिंहासन पर बैठकर आई। उसके वाहक उसे एक राजकुमार के सामने से दूसरे के सामने ले गए। इतने ही में वहां एक दूसरा तरुण संन्यासी आ पहुंचा। वह इतना सुंदर था कि मानो सूर्यदेव ही आकाश छोडकर उतर आए हों। राजकुमारी का सिंहासन उसके समीप आया और ज्यों ही उसने संन्यासी को देखा, त्यों ही वह रुक गई और उसके गले में वरमालाडाल दी।
तरुण संन्यासी ने एकदम माला को रोक लिया और कहा, मैं संन्यासी हूं मुझे विवाह से क्या प्रयोजन? राजा ने उससे कहा, देखो, मेरी कन्या के साथ तुम्हें मेरा आधा राज्य अभी मिल जाएगा और संपूर्ण राज्य मेरी मृत्यु के बाद। लेकिन संन्यासी वह सभा छोडकर चला गया। राजकुमारी इस युवा पर इतनी मोहित हो गई कि युवा संन्यासी के पीछे-पीछे चल पडी।
दूसरे राज्य के राजा को लेकर आए संन्यासी भी पीछे-पीछे चल दिए। जंगल में जाकर संन्यासी नजरों से ओझल हो गया। हताश होकर राजकुमारी वृक्ष के नीचे बैठ गई। इतने में राजा और संन्यासी उसके पास आ गए। रात हो गई थी। उस पेड की एक डाली पर एक छोटी चिडिया, उसकी स्त्री तथा उसके तीन बच्चे रहते थे। उस चिडिया ने पेड के नीचे इन तीन लोगों को देखा और अपनी स्त्री से कहा, देखो हमारे यहां ये लोग अतिथि हैं, जाडे का मौसम है। आग जलानी चाहिए। वह एक जलती हुई लकडी का टुकडा अपनी चोंच में दबा कर लाया और उसे अतिथियों के सामने गिरा दिया। उन्होंने उसमें लकडी लगा-लगाकर आग तैयार कर ली, परंतु चिडिया को संतोष नहीं हुआ। उसने अपनी स्त्री से फिर कहा, ये लोग भूखे हैं। हमारा धर्म है कि अतिथि को भोजन कराएं। यह कहकर वह आग में कूद पडा और भुन गया। उस चिडिया की स्त्री ने मन में कहा, ये तो तीन लोग हैं, उनके भोजन के लिए केवल एक ही चिडिया पर्याप्त नहीं। पत्‍‌नी के रूप में मेरा कर्तव्य है कि अपने पति के परिश्रमों को मैं व्यर्थ न जाने दूं। वह भी आग में गिर गई और भुन गई। इसके बाद उन तीन छोटे बच्चों ने भी यही किया।
तब संन्यासी ने राजा से कहा, देखो राजन, तुम्हें अब ज्ञात हो गया है कि अपने-अपने स्थान में सब बडे हैं। यदि तुम संसार में रहना चाहते हो, तो इन चिडियों के समान रहो, दूसरों के लिए अपना जीवन दे देने को सदैव तत्पर रहो। और यदि तुम संसार छोडना चाहते हो, तो उस युवा संन्यासी के समान हो, जिसके लिए वह परम सुंदरी स्त्री और एक राज्य भी तृणवत था। अपने-अपने स्थान में सब श्रेष्ठ हैं, परंतु एक का कर्तव्य दूसरे का कर्तव्य नहीं हो सकता।

Wednesday, December 8, 2010

काशी में फिर रक्तरंजित हुई आस्था



पहले


बाद में


आज आस्था पर फिर एक और हमला हुआ.जगह वही वाराणसी जो(काशी).२००६ में एक ऐसे हमले में अततयिओ ने पवित्र संकटमोचन मंदिर को रक्तरंजित कर दिया था.वही दिन-मंगलवार,हिन्दुओं के लिए विशेष धार्मिक महत्व का दिन,श्री हनुमान जी का दिन.आखिर ये चाहते के हैं,ये बात किसी से छिपी नहीं है,और हम आसानी से समझ सकते हैं की आतंक के सौदागरों फिर से गंगा महा आरती के दौरान दशाश्वमेध घाट दहल उठा..और सीढिया घायलों के खून से सन गयीं. की साजिश ६ दिसंबर को ही इस घटना को अंजाम देने की थी और शायद सुरक्षा की वजह से वे ऐसा नहीं कर पाए.मै खाटी बनारसी हूँ और बनारस मेरी जन्मभूमि भी है.मुझे अच्छी तरह पता है की दशाश्वमेध घाट पर होने वाली गंगा महा आरती बनारस की एक एक पहचान है.हजारों की संख्या में श्रद्धालु हर रोज एकत्रित होते हैं जिनमे देशी भी होते हैं और विदेशी भी होते हैं. जब घंटा घड़ियाल की ध्वनि के के बीच में आरती और भजन शुरू होता है तो पूरा माहौल भक्ति में डूब जाता है.और इसी माहौल में अगर घंटा घड़ियाल की ध्वनि के साथ बम की शोरे सुनाई दे.अगरबत्ती की खुशबू की जगह बारूद और जले मानव अंगों की गंध सुनाई दे तो आप आसानी से समझ सकते हैं की वहां पर रहने वाले लोगों पर क्या गुजरती होगी.क्या यह एक छुपा प्रश्न है की किसने ऐसी हरकत की होगी?क्या यह हिन्दुओं से प्यार करने वालों की हरकत है?क्या ये लोग चाहते हैं की देश में सभी संप्रदाय के लोग एक साथ रहे?शायद कभी नहीं.फिर ये लोग हैं कौन?ये किसी दुसरे देश आये हुए लोग नहीं हैं.ये हमारे बीच के वही राक्षस हैं जिनको सिखाया जाता है की उनके धर्म के आलावा दुसरे धर्म के लोग मार दिए जाने योग्य हैं.इतनी बड़ी साजिश एक दिन में भी नहिओ की जा सकती.इसके लिए इन्होने बाकायदा योजनाबअद्ध तरीके से काम किया होगा.इनको आश्रय देने वाले हिन्दू कभी नहीं हो सकते क्युकी कोई भी हिन्दू ऐसी घिनौनी हरकत नहीं कर सकता.न तो कोई हिन्दू मंदिर में खून खराबा कर सकता है न तो किसी दूसरे संप्रदाय के धार्मिक स्थल पर क्यूँ की उन्हें तो सिखाया जाता है कई सभी लोग सामान है और ईश्वर की संताने हैं.क्या जिन लोगों ने इसको किया है,वे इस देश में रहने के लायक हैं?कभी नहीं.आज इनकी संख्या बहुत कम है लेकिन जिस दिन भी ये केवल २०% हो गए,हिंदुस्तान,हिंदुस्तान न रहकर अरब हो जायेगा.


बनारस में भी विस्फोटों का शोर सुनाई देता है
इंडियन मुजाहिदीन के नारों का शोर सुनाई देता है
भरे समीर मौसम आदमखोर दिखाई देता है
लाल किले का भाषण भी कमजोर दिखाई देता है
बनारस के चौराहों से आती आवाजे संत्रासो की
पूरा शहर नज़र आता है मंडी ताजा लाशो की
सिंघासान को चला रहे है नैतिकता के नारों से
मदिरा की बदबू आती है संसद की दीवारों से

देश के नेतावो से है जनता का ये सवाल
बोलो उग्रवाद वाले पृष्ठ कब बांचे है
सिंह हो कर भी सिंह सिंह नहीं दीखते है
और स्वान खुले आम भर रहे कुलाचे है
हो अहमदाबाद या फिर दक्षिण का बंगलुरु
उग्रवादी नंगा नाच चारो और नाचे है
बनारस के धमाके चीख चीख के ये कहते है
ये धमाके तो दिल्ली के गाल पे तमाचे है

(हर-हर महादेव
(एक देशभक्त की रचना))


इस आतंकवाद का भी रंग बताएं गृहमंत्री

हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए भगवा आतंकवाद शब्द को जन्म देने वाले हमारे माननीय गृह मंत्री पी.चिदमबरम जी बताएं की बनारस में हुए आतंक का काया रंग है.वो जानते हैं की यह रंग हरा है,लेकिन वो कह नहीं सकते...आतंकवादी उनके लिए वोट बैंक हैं.राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बदनाम करने के लिए तरह-तरह की झूठी बातें करने वाले गृह मंत्री जी ये तो बताएं की इस संगठन को प्रतिबंधित होने के बावजूद अपना काम करने में दिक्कत क्यूँ नहीं होती?कभी बनारस में तो कभी दिल्ली में..हर जगह ये अपना काम इतनी आसानी से कैसे कर देते हैं?मत बोलना साहब नहीं तो बात १७ करोन वोट की है.बस दस जनपथ में इनके साथ बैठ कर बिरयानी की पार्टी करना.

हिन्दुओं को फिर से जागने की जरुरत है.

अगर आज तक देश में १९९२ की तरह हिन्दू एकता कायम रहती तो शायद बार-बार ऐसे दिन देखने की नौबत नहीं आती.अभी समय है...हमें जागना होगा नहीं तो कभी पुस्तकों में पढ़ा जायेगा की कभी हिन्दू नाम का एक धर्म हुआ करता था.

चिंतको चिंतन की तलवार गढ़ों रे
रिशिओं उद्दीपन मंत्र पढो रे
योगिओं जागो जीवन की और बढ़ो रे
बंदूकों पर फिर अपने अलोक मढ़ो रे
है जहाँ कही भी तेज उसे पाना है
रन में समस्त भारत को ले जाना है
पर्वत पति को फिर आमूल डोलना होगा
शंकर को विध्वंशक नयन खोलना होगा.

Monday, December 6, 2010

बाबरी विध्वंश के १८ साल:विश्रांति विनाश की तरफ ले जा रही है.


आज बाबरी विध्वंश के अठ्ठारह साल पुरे हुए.यह एक ऐसा दिन है जो भारत के इतिहास में शायद ही भुला जा सके क्यूंकि यह उन चंद वीरगाथाओं में से एक है..जो हमारे भारत भूमि को स्वर्णिम अतीत की याद दिलाते हैं.यह घटना उन चंद घटनाओं में से एक है जिसमे पूरा हिन्दुसमाज और अन्य धर्मो के राष्ट्रवादी मतावलम्बी एक हुए.बाबर जैसे बर्बर आक्रमणकरी द्वारा मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंदिर को तोड़कर बनाये गए ढाचें को जमींदोज कर,अयोध्या में पुनः भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर को बनाने का प्रसश्त किया.यह हमारे लिए गर्व की बात है और समस्त हिन्दुस्तानी जिनके लिए अपना राष्ट्र प्रथम है इसको शौर्य दिवस के रूप में मना रहे हैं.लेकिन आज १८ साल बीत जाने के बाद भी,कुछ तथाकथित राष्ट्र विद्रोही(खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले)बाबर के अनुयायिओं के कारण भव्य मंदिर निर्माण में देरी हो रही है.कुछ दिन पहले लखनऊ उच्च न्यायलय द्वारा भव मंदिर निर्माण का आदेश देने के बावजूद कुछ राष्ट्र विरोधी तत्त्व अपना वोट बैंक बचने के लिए रस्ते में रोड़ा बन रहे हैं.यहाँ मै एक बात बताना चाहूँगा की भगवान श्री राम केवल हिन्दुओं के ही नहीं हैं.वो तो समस्त मानव समाज के लिए हैं.उन्होंने कभी भी नहीं कहा की हे हिन्दुओं ऐसा करो.उन्होंने जो कहा जो किया वह समस्त मानव समाज के लिए है.इसी का नतीजा है की भारतीय संबिधान जो की एक धर्म निरपेक्ष संबिधान है के पेज नंबर ३ पर भगवान श्रीराम की तस्वीर लगी है और कहा गया है की आप मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और हम आपके ही आदर्शों पर चलेंगे.यहाँ पर कुछ शब्द मै अपने देश के लोगों से पूछना चाहूँगा की क्या केवल हिन्दू श्रीराम जी के वंशज है और बाकि लोग क्या बाबर की औलाद हैं.सभी लोग जानते हैं की हिंदुस्तान में रहने वाले ९९.९९% लोग यहीं के रहने वाले हैं जो कुछ पिडियो पहले अपनी पूजा पध्धति बदल लिए.क्या पूजा पद्धति बदल लेने से हमारे पूर्वज बदल जायेंगे.राम हिन्दुओं के भी पूर्वज है और मुसलमानों के भी.तो हमारे मुस्लिम भाईओं को भी सामने आना चाहिए और श्रीराम मंदिर निर्माण में सहयोग कर अपना फ़र्ज़ अदा करना चाहिए.
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग कहते हैं-समय बदल चूका है और १९९२ की स्थिति नहीं है.अब हिन्दू समाज वैसा नहीं रहा जो ऐसी प्रतिक्रया दे जो १९९२ में दिया था.उनको लगता है की १९९२ में जो हुआ था वह गलत हुआ था लेकिन मै सभी देशवासिओं से कुछ सवाल पूछना चाहूँगा-

क्या अगर १९९२ की तरह हमारा हिन्दू समाज संगठित रहता तो कोई माँ का लाल आकर अक्षर धाम,काशी और आन्या अनेक धार्मिक जगहों पर अपने गंदे हाथों से खून की होली खेल पाता.

क्या हमारे संसद भवन और जम्मू कश्मीर विधानसभा जैसे लोकतंत्र के मंदिरों में रक्तरंजीत नज़ारे दीखते?

क्या कोई ....मुबई दिल्ली ओर बेंगलोरे की सड़कों को रक्तरंजीत लाशों से पाटता.

नहीं--कभी नहीं

जो विश्राम करता है,विनाश की तरह जाता है.विश्रांति हमारे लिए नहीं है.जब तक भारत माता अपनी अतीत की मर्यादा को पुनः से प्राप्त नहीं कर लेती,जब तक भारत पुनः जगतगुरु की उपाधि की प्राप्त नहीं कर लेता...हमें विश्राम करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए.
भारत हमारा है.हमने यहाँ जन्म लिया और लाखों साल से हमारे पूर्वज यहाँ रह रहे हैं.इसकी पीड़ा हम समझ सकते हैं,इटली से आयी सोनिया गाँधी या हिब्रेड राहुल गाँधी नहीं.
अतः भारत की भलाई के लिए हमें पुनः जागने की जरुरत है.जागो हिन्दुओं और वे मुस्लमान भी जिनको धर्म से ज्यादा देश प्रिय है...और इस नेक काम में लग जाओ.क्योंकि राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है हिन्दू या मुसलमान होना नहीं.जागो...और वन्देमातरम का विरोध करने वाले देश द्रोहिओं को देश से बहार भेजो और काशी,मथुरा और अयोध्या की प्रतिष्टा पुनः स्थापित करो.
वन्देमातरम

Thursday, December 2, 2010

अपना प्यार मै न्योछावर करूँ



तुझे देखकर जो जीने की जो ललक थी
जल गयी मेरे अरमानो के संग में
समय ने हमें क्या से क्या कर दिया
जिन्दगी रंग गयी विरह के रंग में
हर तरफ हर दिशा में तुम्हारी हसी
छाई थी बादलों की घटा की तरह
सोचता रह गया प्यार बरसे कभी
पर बरसा वही आशुओं की तरह
तुझे भूलकर जीना मुमकिन नहीं
साथ रहना भी मुझको गवारा नहीं
दिल करे भूल जाऊं तुझे दिलरुबा
पर अपने बस में दिल हमारा नहीं
वो बातें,वो यादें,वो अपने इरादे
वो तनहा सी रातें,वे जीवन के वादे
सभी झूठ थे,झूठ थे-झूठ थे
कैसे बोलूं सभी के सभी झूठ थे
पर यही सत्य है-पर यही सत्य है
तो तुझे भूलने की मै कोशिश करूँ
प्यार जननी जन्मभूमि से मिला जो मुझे
उसपर अपना प्यार मै न्योछावर करूँ.
-राहुल पंडित



Wednesday, November 24, 2010

बिहार में बहार और लालू हुए बेकार


बिहार बिधानासभा के परिणाम कुछ भी अप्रत्याशित नहीं जान पड़ते हैं.पुरे बिहार में ऐसा माहौल बन चूका था जो सीधे सीधे बता रहा था की बिहार की जनता आब पहले जैसी नहीं रही जो की लालू यादव के चुटकुले पर वोट देगी.जनता विकाश चाहती थी जो जनता दल(यु) और भाजपा गठबंधन सरकार उन्हें दे रही थी और जनता विक्स के इस रफ़्तार को रोकना नहीं चाहती थी.जिसका परिणाम आज हमारे सामने है और एन.डी.ए २४३ सदस्यों के बिधानासभा में २०६ सीटें जीतकर दुबारा से सरकार बनाने जा रही है.हमें ये मानने से परहेज नहीं करना चाहिए की यह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है.कुछ सालों पहले जो जनता जाति-धर्म और चुटकुलों पर वोट देती थी उन्होंने महसूस किया किया और विकास को ही सर्वोपरि माना.इस जीत के कई मायने हैं...कईयों का भ्रम टुटा जो अपने आप को जादूगर समझते थे और बातों के बल पर सत्ता लूट ले जाते थे-यह महान जीत एक दिन के मेहनत का परिणाम नहीं है.इसके लिए पांच साल पहले जब nda सरकार आई थी तभी इसकी नीव पड़ चुकी थी. सरकार ने अपने किये हुए बड़ों को पूरा करने की पूरी कोशिश की और जनता ने देखा भी.शायद अब वो दिन दूर नहीं जब लोग जितना गर्व मराठी-गुजराती-मराठी कालने में करते hain उतना ही गर्व अपने आप को बिहारी कहलाने में करेंगे.अब कोई शीला दीक्षित कॉमन वेअल्थ से पहले बिहार की की ट्रेनों का जनरल क्लास मुफ्त नहीं करेंगी की बिहारी देल्ही छोड़ के बिहार जाएँ जिससे उनकी बेइज्जती न हो और नहीं कोई शीला दीक्षित कहेंगी की सारी अब्यावस्था बिहारिओं के कारण है.शायद अब वो दिन दूर नहीं जब राज ठाकरे "आमची मुंबई" के नाम पर केवल बिहारिओं को परेशान नहीं करेंगे एन.डी ए. को विजयश्री देकर जनता ने कुछ सीख हमारे तथाकथित महान नेताओं की दी है--

जनता ने काग्रेसी धर्मनिरपेक्षता(शर्मनिरपेक्षता) को नकार दिया

नितीश कुमार और कांग्रेस,लालू पासवान के धर्मनिरपेक्षता में अंतर जनता समझ चुकी है.जनता जानती है की धर्मनिरपेक्षता का मतलब एक धर्म विशेष के साथ लगाव नहीं होता बल्कि सभी धर्मों के साथ संभव होता है.कांग्रेस,लालू पासवान की मुस्लिम तुस्टीकरण की नीति को जनता ने ठुकरा कर बता दिया है की इस ब्रांड की धर्मनिरपेक्षता हमें पसंद नहीं है.जिसका परिणाम हमारे सामने है.जनता चाहती है की हिन्दू मुस्लिम और अन्य कौम एक साथ रहें लेकिन वह यह नहीं चाहती की हमारे प्रधानमंत्री की तरह तुष्टिकरण की धर्मनिरपेक्षता कबूल करना पड़े.

नहीं पका लालू का आलू

बिहार की जनता समझ चुकी थी की आलू से समोसे तो बनाये जा सकते हैं लेकिन आलू को सत्ता नहीं दिया जा सकता.चुट्कुलें सुनने के लिए जनता इतना बड़ा त्याग नहीं करना चाहती थी कि लालू को फिर से अपना भाग्य बिधाता बना दे.भोजपुरी फिल्मों में ही जनता अब मनोरंजन करना चाहती है न कि लालू कि सभाओं में वो भी जब २० रस कि टिकट कि जगह पूरा प्रदेश सौपकर.

पासवान को नाकारा मुसलमानों ने


बिहार के मुसलमान भी जान चुके थे कि भले ही पासवान जी रमजान के महीने में एक दिन के लिए टोपी पहन कर इफ्तार में शरीक हों...लेकिन इसका फायदा तभी होगा जब प्रदेश का विकाश हो.मुसलमानों ने भी वोट बटोरने के लिए दिखावटी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने वालों को करारा जवाब दिया जिसका परिणाम नितीश कि फतह के रूप में सबके सामने है.

जनता ने समझी सोनिया-राहुल कि असलियत

बिहार की जनता को समझाने कि जरुरत नहीं पड़ी कि १० जनपथ में बैठ कर सत्ता चलने वालों से बिहार नहीं चलने वाला.जनता समझ चुकी थी कि युवराज और रानी तो उस मौसम की तरह हैं जो कुछ समय के लिए आयेंगे और फिर चले जायेंगे जबकि नितीश तो खुद में एक पूरा बिहार हैं और अपने आप को कोई कैसे छोड़ सकता है.अगर एक दिन के लिए राहुल हमारी झोपड़ी में लिट्टी गुड खा कर चले भी जाय तो क्या हमें तो रोज ही खाना है..एक दिन में कोई क्या दर्द समझेगा.नितीश तो जमीन के बन्दे थे...और जनता ने उनको जीत का शेहरा पहनाया.
और आखिरी में मेरितारफ से बिहार कि जनता को सलाम.
वन्देमातरम

Thursday, November 18, 2010

मै पीडावों का गायक हूँ

कल तुम मेरा नाम पढोगे
इथिहासो के शिला लेख पर
जिनके पैरो में छाले है
मै उन की आँखों का जल हूँ

मै पीडावों का गायक हूँ
शब्दों का व्यपार नहीं हूँ
जहाँ सभी चीजे बिकती हैं
मै वैसा बाज़ार नहीं हूँ

मुझ पर प्रश्न चिनः मत थोपो
कुंठित व्याकरणि पैमानों
मुझको राम कथा सा पढ़िए
बहुत सहज हूँ बहुत सरल हूँ

मेरा मोल लगाने बैठे
है कुछ लोग तिजोरी खोले
धरतीपर इतना धन कब है
जो मेरी खुद्दारी तौले

राजभवन के कालीनो पर
मेरे ठोकर चिन्न मिलेगे
मै आंसू का ताज महल हूँ
झोपड़ियों का राजमहल हूँ

जब से मुझको नील कंठनी
कलम विधाता ने सौपी है
तन में काशी वृन्दावन है
मन में गंगा की कल कल हूँ

दरबारों की मेहरबानियाँ
जड़ भी चतुर सुजान ओ गए
जुगनू विरुदावालियाँ गाकर
साहित्यिक दिनमान हो गए

मै डर कर अभिनन्दन गाऊं
इससे अच्छा मर जाऊं
मै सागर का का क़र्ज़
चुकाने वाला आवारा बादल हूँ
(हर-हर महादेव
(एक देशभक्त की रचना)

Wednesday, November 17, 2010

क्या लिखूं?



क्या लिखूं?
कलम चलती नहीं उसके बारे में लिखने को
क्या कहूँ उसे?
चाँद का टुकड़ा !
गुलाब की पंखुड़ी!
शीत की चांदनी!
मई की गर्मी!
वह तो ऐसी ही थी
कोई भी उपमा उसके लिए तुक्ष जान पड़ती है
सोचता हूँ उसके बारे में
दिल करता है उसके बारे में कुछ लिखने को
कलम से बांध दूं उसे
लेकिन कैसे संभव है यह?
सागर पर टहलना
हवा को पकड़ना
बहुत कठिन
कठिन ही नहीं असंभव भी
किन्तु दिल नहीं मानता
मज़बूरी को नहीं पहचानता
कुछ कहना चाहता है
तो चाँद कहूँ?
नहीं नहीं
यह बेइज्जती होगी
सावन के घटा की तरह उसके बालों की
सूरज की तरह चमकते ललाट की
गुलाब की तरह उसके होठों की
यह बेइज्जती होगी
उसकी सांगीतिक आवाज़ की
झील की तरह उसकी आँखों की
मोरनी की तरह उसकी चाल की
तो क्या कहूँ?
उसके समान वाही है
यही बात सही है
तो छोडो
क्या लिखूं?


-राहुल पंडित

Sunday, November 14, 2010

फिर तुम्हारी याद आयी





मेघ ने जब शंख ध्वनि की
चाहुदिशी बिखरा अँधेरा
जगत सारा सुख विह्वल हो
देखता शीतल सबेरा
हंस ने जब हंसिनी से
प्यार से आँखे मिलायी
फिर तुम्हारी याद आयी

******************
******************

थिरकते जलकणों ने जब
प्रणय कर ली बादलों से
झूमते तरुओं ने भी जब
गीत गाये जंगलों से
प्रिय मिलन की आश में जब
मोरनी ने पर हिलायी
फिर तुम्हारी याद आयी

*******************
*******************

रात के घनघोर में जब
जगत सारा सो गया था
भूल सरे झंझटों को
स्वप्रियम में खो गया था
बदलते करवटों में जब
आँख ने नींदे चुरायी
फिर तुम्हारी याद आयी

***********************
***********************

ग्रीष्म की वह त्रीक्ष्ण दुपहर
आग नभ से टपकता है
जल बिना बेचैन जलचर
हर तरफ ही बिचरता है
प्यास से व्याकुल हुए जब
पपीहे ने बोल लगायी
फिर तुम्हारी याद आयी
हर तरफ ही बिचरता है

***********************
***********************

माघ-फागुन का महीना
हर तरफ विंदास जीना
रजत मंजरिओं से लड़ गाये
आम्र तरु की हर टहनियां
काम से व्याकुल हुए जब
कोयल ने कूकें लगायी
फिर तुम्हारी याद आयी


-राहुल पंडित






Thursday, November 11, 2010

हम तो तलवार उठा बैठे






देख करुण दशा भारत माँ की
हम तो संसार भुला बैठे
खुद शांति का उपदेश दिया
खुद ही तलवार उठा बैठे
गाँधी का सच्चा पूजक था
सबको बस प्रेम सिखाता था
"अहिंसा परमोधर्मः"की
बाते सबको बतलाता था
भारत माता का रुदन सुना
तो जीवन क्रम ही मोड़ दिया
गाँधी की साख बचने को
गाँधी को ही मै छोड़ दिया
जो राम राज्य का सपना था
वो अब कैसे पूरा होगा
जब रावन खुले विचरते हैं
तो कहाँ धरम-करम होगा
सोच अतीत की बातों को
फिर निद्रा से हम उठ बैठे
सपना फूलों के मग का था
पर अंगारों पर चल बैठे
जब पंहुचा घाटी में चल कर
आखों से आशू छलक उठा
जब केशर में बारूद मिला
बंदूकों पर तब आलोक मढ़ा
फिर नमन किया सत्तावन के
उन अगणित वीर जवानो को
फिर नमन किया आजाद-भगत
बिस्मिल जैसे बलवानो को
फिर गाँधी की तस्वीर को
बक्से के अन्दर बंद किया
जिससे वह सदा सुरक्षित हो
फिर ऐसा एक अनुबंध किया
जय -जय कह भारत माता की
इस कुरुक्षेत्र में आया हूँ
कुछ अपनों के संग भी लड़ना है
सो गीता भी मै लाया हूँ...


-राहुल पंडित

Saturday, November 6, 2010

इस्लाम की तालीम सोच बदल देती है



सारे जहाँ से अच्छा,हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसके,ये गुलसितां हमारा
महज़ब नहीं सिखाता,आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन हैं,हिन्दोस्तां हमारा..
.

एक ऐसी कविता...जो शायद हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा जनता है.हमारे तथाकथित सेकुलर लोग इस कविता को हमारे सामने एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं.इसका एक वज़ह भी है.यह कविता एक हमारे मुसलमान बंधू मोहम्मद इकबाल ने लिखी थी १९०७ में.और आज भी यह कविता पढने के बाद हमारे अन्दर राष्ट्र प्रेम की भावना उमड़ने लगती है.वास्तव में इसकी बोल ही ऐसी है.

महज़ब नहीं सिखाता,आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन हैं,हिन्दोस्तां हमारा..

कहने वाले मोहम्मद इकबाल ने जब यह कविता लिखी थी तब तक उन्हें इस्लाम की पूरी तालीम नहीं मिली थी.जब उन्हें इस्लाम की की पूरी तालीम मिली तो १९०८ में उन्होंने इस कविता के आगे कुछ और लाइने जोड़ी जो की उन्होंने लेबनान इस्लामिक सोसाइटी के अपने वक्तव्य में सुनाया-

चीन औ अरब है हमारा,हिंदुस्तान है हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन हैं,ये सारा जहाँ हमारा
तौहीन की ईमारत है सीनों में हमारे
आसां नहीं मिटाना,नामो निसा हमारा..


आज जो कविता हमें पढाई जाती है...वो आधी अधूरी है...पूरी कविता तो तथाकथित सेकुलर गिरोह के मुह के ऊपर तमाचा है.इसमें हम इकबाल साहब का दोष क्यूँ दें...उनका दीन उन्हें यही सिखाता है- "दुनिया के तमाम मुसलमान भाई हैं. " जब दुनिया के तमाम मुसलमान ही भाई हैं तो हम और कौम के तरफ से क्या लिखें?शायद उन्हें हमारी तरह "वसुधैव कुटुम्बकम" की शिक्षा मिलती तो एक साल के अन्दर उनके अन्दर इतना बदलाव नहीं आता.

Thursday, November 4, 2010

शुभ दीपावली




त्वंज्योतिस्त्वं रविस्चंद्रो विदुदाग्निस्च तारका:|
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपवाल्ये नमो नमः||
सर्वेषां दिपवल्योत्सवस्य शुभाशयाः||


आपणास व पूर्ण परिवारास दीपावलीच्या हार्दिक शुभेच्छा. .......


इस आशा के साथ की दीपों का यह पर्व दीपावली समस्त देशवासियों जीवन में खुशिओं का अम्बार लाये...और ईश्वर सबकी मनोकामना पूरी करें....
आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें....


आपका
राहुल पंडित

Monday, November 1, 2010

मेरी भारत माँ कि पीडाएं है मेरे गीतों में


शब्द अगर हैं ब्रह्म तो कवि उसका आराधक है
कविता अगर तपस्या है तो कवि ही उसका साधक है
कलम छोड़ कर कभी कवि को भाया ना कोई दूजा है
मेरी कविता मेरी देवी यही लेखनी पूजा है
ये लिखती है ठुमक ठुमक कर चलते हुवे कन्हिया पे
शबरी के जूठे बेरो पर और केवट की नैया पर
ये लिखती है गौरव गाथा झाँसी वाली रानी की
पन्ना का बलिदान लिखा और हिम्मत वाली रानी की
ये फटकार बिहारी के हाथो जयसिंह को लगवाती
अंधे पृथिवी राज के हाथो गौरी का वध करवाती
बस कविता के नाम पे हम ने काम ये कैसा कर डाला
नाम लिया कविता का उसमे जाने क्या क्या भर डाला
तुलसी लिखते मेरे राम पर हम सुखराम पे लिख बैठे
सूर दास को श्याम मिले हम कांशी राम पे लिख बैठे
कभी लिखा माँ अनसुइया सावित्री जैसी सतियों पर
अब लिखते है जय ललिता ममता और मायावतियों पर
ऐसा नहीं कि मुझे लुभाता जुल्फों का साया ना था
उसकी झील सी आँखों में खो जाने का मन करता था
मुझको भी कोयल कि कू कु बहुत ही प्यारी लगती थी
रूं झुन रूं झुन रूं झुन सी बरसते अच्छी लगती थी
मेरा भी प्रेयस पर गीत सुनाने का मन करता था
उसको गोद में सर रख कर सो जाने का मन करता था
तब मैंने भी बिंदिया काजल और कंगन के गीत लिखे
यौवन के मद में मदमाते आलिंगन के गीत लिखे
जिस दिन से क्षत विक्षत भारत माता का वेश दिखा
जिसे अखंड कहा हम ने जब खंड खंड वो देश दिखा
मै ना लिख पाया कजरारे तेज दुधारे लिख बैठा
छूट गयी श्रींगार कि भाषा मै अंगारे लिख बैठा
अब उन अंगारों कि भाषाएँ है मेरे गीतों में
मेरी भारत माँ कि पीडाएं है मेरे गीतों में
अमृत पुत्रो के अंदर लगता है कोई जान नहीं
रना और शिवा को अपने बल गौरव का ज्ञान नहीं
आज राम की तुलना बाबर से सेकुलर करते हैं
माँ दुर्गा की धरती पे महिसासुर खुले विचरते हैं



(( एक भारत माता के सच्चे बेटे की रचना ))

Saturday, October 30, 2010

नमन है




आन बान शान और स्वाभिमान की मशाल जलिया वाला बाग के शिकारों को नमन है
शांति अंहिंसा के हथियारों को नमन और क्रांति के गगन के सितारों को नमन है
तो बलदानी स्वरों की पुकारो को नमन और लाला जी के पीठ के प्रहारों को नमन है
तुम मुझे खून दो और मै तुमे आज़ादी दूंगा दिल्ली चलो वाली ललकारों को नमन है
जश्ने आज़ादी आवो मिल के मनाये सभी चाहे होली खेलिए दिवाली भी मनाईये
मंदिरों कि आरती या मस्जिदों कि हो अजान चाहे एईद पैर सब को गले लगाईये
बेटे बटियों कि या फिर दौलत कि चाह यारो ख्वाब इन आँखों में हजारो आप सजायिये
कुर्बानियों से जिनकी ये बस्तियां आबाद शहीदों कि याद नहीं दिल से भुलाइये
आन बान शान और स्वाभिमान कि मशाल क्रांति चेतना कि अंगड़ाई को नमन है
काल के कराल भाल जिस पे तिलक किया उस पुण्य लहू कि ललाई को नमन है
तो झाँसी राज्य वंश कि कमाई को नमन और अमर स्वरों कि शहनाई को नमन है
और चिड़िया कि बाज़ से लड़ाई को नमन रानी लक्ष्मी बाई शौर्य तरुणाई को नमन है
पञ्च प्यारे और बंदा बैरागी की शहादत गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणी को नमन है
कंधार की रण भूमि में जो देश हित लड़े नौजवान बेटो की जवानी को नमन है
सर हिंद की दिवार में जो जिन्दा चुने गए उन वीर पुत्रो की निशानी को नमन है
एक को लडावो सवा लाख से था उद्घोष गोविन्द की पावन कहानी को नमन है
गुरु तेग बहादुर को शत शत नमन !!!!
(हर-हर महादेव
(एक देशभक्त की रचना)

Friday, October 29, 2010

कुछ भूले विसरे पन्ने से:हिंदुत्व के वे योद्धा जिन्हें हम भूल गए.-३

जैसा की मैंने आपको अपने पिछले पोस्टों में हिंदुत्व के पांच महान योद्धावों/वीरांगनाओं की जानकारी दी.उसी सीरीज का यह तीसरा पोस्ट उन ब्लोगर मित्रों को समर्पित जो अपने राष्ट्र की पुरातन परम्पराओं को जीवीत रखने के लिए कलम और इन्टरनेट के माध्यम से हमारी सुप्त चेतना को जगाने का काम कर रहे हैं...


त्याग की देवी रुद्रमाम्बा


मित्रो, वह युगाब्द 4425 ( सन्‌ 1323 ) की जन्माष्टमी का दिन था। कर्णाटक राज्य की राजधानी द्वारसमुद्र में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। कर्णाटक नरेश बल्लाल देव यह उत्सव दूसरी ही तरह मना रहे थे। उस समय उत्तरी भारत आक्रमणकारी सुल्तानों से पदाक्रान्त हो रहा था। कुछ वर्षों पहले अलाउद्दीन खिलजी का एक सरदार मलिक काफ़ूर दक्षिण में भयंकर तबाही कर गया था। गयासुद्दीन तुगलक के सिपहसालार जूना खाँ ने उस समय भी वारंगल को घेर रखा था। देश में आए उस भीषण संकट के समय भी बल्लाल देव को चक्रवर्ती बनने की धुन सवार थी। पाँच राज्यों को वह अब तक जीत चुका था मदुरा और वारंगल उसके अगले निशाने थे। सात राजमुकुटों को अपने पैरों में झुकाकर चक्रवर्ती कहलाने की महत्त्वकांक्षा उसके मन में थी। जन्माष्टमी से पहले उसके सेनापति संगमराय मदुरा के पाण्ड्य संघ के प्रमुख सोमैया नायक को बंदी बना लाए थे। उस दिन कर्णाटक के भरे राजदरबार में छठें राजा पर विजय का उत्सव मनाया जा रहा था।

मलिक काफ़ूर से डट कर लोहा लेने वाले तथा आखिर तक विदेशियों से संघर्ष का संकल्प किए वीरवर सोमैया नायक को महिलाओं के वस्त्रा पहनाकर तथा रस्सियों से बाँधकर दरबार में लाया गया था। केवल उनके हाथ खुले थे। नायक को सामने देखकर बल्ला देव के मंत्री ने कहा -
सोमैया नायक अब तुम कर्णाटक के अनुगत हो, अतः पहले हमारे कुलदेवता को और फ़िर होयसलराज को प्रणाम करो, ताकि तुम्हें बधंन मुक्त किया जा सके। वीरश्रेष्ठ सोमैया नायक कुछ उत्तर देते उसके पहले ही उन्हें बन्दी बनाने वाले संगमराय ने होयसलराज बल्लाव देव से निवेदन किया - महाराज यह क्यों ? आपने मुझे वचन दिया था कि नायक सोमैया से वीरों जैसा व्यवहार करेंगे, पर आप तो इनका अपमान कर रहे हैं।
हम वचन पर दृढ़ हैं, संगमराय । लेकिन पराजित को अपनी मर्यादा का भी तो ध्यान होना चाहिए। हमें प्रणाम करना कोई अपमान की बात तो नहीं। बल्लाल देव ने कहा। तभी सभा-भवन में एक जोरदार अट्टहास गूंजा। यह तीखी हँसी सोमैया नायक की थी। आँखें बंद किए खड़े नायक ने जैसे होयसलराज को चुनौती देते हुए कहा, कौन विजयी और कौन पराजित है, बल्लाव देव, पराजित तो यह ध्रती हो रही है। तुरुष्कों के एक के बाद एक आक्रमण हमारी इस मातृभूमि पर हो रहे हैं और अभी तक हम व्यक्तिगत स्वार्थों में ही डूबे हुए हैं, घोर आश्चर्य है।फ़िर संगमराय को संबोधित करते हुए सोमैया नायक ने कहा - फ्वीरवर संगम, इस पूरी सभा में दर्शनीय व्यक्ति एक तू ही है। जा, मेरी चिन्ता मत कर, मेरे भले-बुरे का दायित्व महाकाल पर है, तुझ पर नहीं।संगमराय ने यह सुना तो होयसलराज से कहा - महाराज सोमैया नायक के अपमान का दुष्परिणाम कर्णाटक को भुगतना होगा इसके बाद वे सभा भवन से चल दिए। बल्लाल देव को सोमैया नायक तथा संगमराय की बातों से क्रोध् आ रहा था। रोष में आकर उन्होंने संगमराय को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के पावन अवसर पर कुछ अनहोनी होने लगी थी। जैसे ही कुछ सैनिक संगमराय को बन्दी बनाने के लिए आगे बढ़े, सभा-भवन में मजबूत कदकाठी वाला एक तेजस्वी नौजवान प्रकट हुआ। नागिन की तरह लपलपाती एक विकराल तलवार भी उसके हाथ में थी। पूरी राजसभा संगमराय के पुत्र उस तेजस्वी नवयुवक हरिहर को देखकर स्तब्ध् रह गई। सभा में सिंह-गर्जना करते हुए उसने कहा - सावधन होयसलराज। कुछ करने से पहले उसके परिणामों पर भी विचार कर लीजिए। तुरुष्कों ने हमारे देश के उत्तरी भाग को पद-दलित कर दिया है। दक्षिण पर भी उनके आक्रमण फ़िर से प्रारंभ हो गए हैं। हम यूं ही आपस में लड़ते रहे तो पूरा देश पराधीन हो जाएगा। हमारी संस्कृति को यदि जीवित रखना है तो हमें वीरों का सम्मान करना सीखना होगा।
हरिहर का चुनौतीपूर्ण स्वर सुनकर बल्लाल देव और क्रोधित हो गए। क्रोध् में होंठ चबाते हुए उन्होंने कहा, कौन हो तुम ? कैसे इस सभा-भवन में आ गए ? क्या तुम्हें राज-सभा के व्यवहार का तनिक भी ज्ञान नहीं है ? मैं संगमराय का पुत्र हरिहर हूँ, महाराज। जाति से कुरुब (गड़रिया) हूँ इसलिए राजसभाओं के नियमों को क्या जानूँ। पर आप यादव वंश के सूर्य हैं, बल्लाव देव, इसलिए विनती कर रहा हूँ कि सोमैया नायक को वीरोचित सम्मान के साथ मुक्त कर दें और अपनी तलवार के जौहर तुरुष्कों के विरुद्ध दिखाएं, नौजवान ने उत्तर दिया। तनिक-सा रुक कर हरिहर ने फ़िर कहा - आपको वारंगल ही चाहिए था चक्रवर्ती बनने के लिए, कृष्णा जी नायक आपके लिए वारंगल ले आए हैं। यह कहकर हरिहर ने अपने पीछे खड़े कृष्णा जी को संकेत किया। कृष्णा जी के एक हाथ में तलवार और दूसरे में एक गठरी थी। सभाभवन में आगे आकर उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर किए तो उनकी तलवार से मानों बिजली-सी कौंधने लगी।
होयसलराज मैं आपके लिए वारंगल ले आया हूँ। जानते हैं इस गठरी में क्या है ? देखिए और जरा सावधनी से देखिए, यह कहते हुए उन्होंने तलवार से कपड़ा हटाया तो कृष्णाजी के हाथ में एक कटा हुआ मस्तक दिखाई दिया। सारी राजसभा एकदम से अचंभित और भयग्रस्त हो गई। ऐसी शांति छा गई कि एक सूई भी गिरे तो उसकी आवाज सुनाई दे। कृष्णा जी ने फ़िर कहना शुरु किया - होयसलराज ! यह मस्तक वारंगल के महाराज प्रतापरुद्र का है। तुरुष्कों ने वारंगल को मिट्टी में मिला दिया है। जानते हैं कि यह मस्तक किसने काटा है ? वारंगल की राजमाता रुद्रमाम्बा ने। उनके बूढ़े हाथ अपने पुत्र का मस्तक काटने में जरा भी नहीं काँपे। वारंगल के ध्वस्त होने के पहले राजमाता ने मुझे बुलाया। राजभवन में महाराज प्रतापरुद्र बैठे थे। पास में राजमाता हाथ में तलवार लिए खड़ी थीं। बल्लाव देव! जानते हैं राजमाता ने क्या कहा ?
राजसभा में उस समय उत्तर देने की स्थिति में तो कोई था ही नहीं। सभी पत्थर की मूर्ति बने कृष्णाजी नायक की अद्भुत गाथा को सुन रहे थे। कृष्णा जी ने कहना जारी रखा। राजमाता रुद्रमाम्ब ने मुझसे कहा - श्रीकृष्ण जी, तुरुष्कों से लड़ते हुए हमारे सभी सैनिक मारे गए, कभी भी वारंगल का पतन हो सकता है, जानता है मैंने तुझे क्यों बचा रखा है, इसलिए कि तू अब वारंगल से निकल सके। जा बेटा तूपफान की गति से जाकर होयसलराज को मेरा संदेश दे देना यह कहकर राजमाता ने महाराज प्रतापरुद्र की ओर देखा। महाराज ने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया। तब राजमाता ने तलवार के एक वार से महाराज का मस्तक काट लिया और मुझे देते हुए कहा - यादव कुल बसंत बल्लाल को यह मस्तक देना और कहना कि भारत माता के ऋण को उतारने का समय आ गया है, माताएं जिसके लिए पुत्रा को जन्म देती हैं वह उद्देश्य पूरा करने का समय भी अब आ गया है। उनसे कहना कि प्रतापरुद्र का मस्तक प्राप्त कर चक्रवर्ती बनने की इच्छा तो उनकी पूरी हो गई पर विदेशी तुरुष्कों के विरुद्ध एकजुट होने में अब देर न करें। अतः होयसलराज ... कृष्णाजी ने अपना संदेश आगे बढ़ाते हुए कहा, .....यह राजमाता का संदेश मैं आपके लिए लाया हूँ। अब भी आप इस संदेश को नहीं समझेंगे तो दुनिया की कोई शक्ति आपको कुछ नहीं समझा सकती।
होयसलराज वीर बल्लाल ने यह संदेश समझ लिया। उस समय के श्रेष्ठ तपस्वी कालमुख विद्यारण्य महाराज के प्रयत्नों से तुरुष्कों की आंधी को रोकने का एक महान्‌ अभियान दक्षिण में चल रहा था। संगमराय, उनका पुत्रा हरिहर, सोमैया नायक, महाराज प्रतापरुद्र, कृष्णाजी नायक जैसे सेनानी पूरे दक्षिणपथ को संगठित करने में लगे हुए थे। राजमाता रुद्रमाम्बा का विलक्षण संदेश मिलने के बाद बल्लाल देव भी इस अभियान में सम्मिलित हो गए। इसी के परिणामस्वरूप विजयधर्म और विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। राय हरिहर इसके पहले महामण्डलेश्वर बने।

Thursday, October 28, 2010

कुछ भूले विसरे पन्ने से:हिंदुत्व के वे योद्धा जिन्हें हम भूल गए.-२

जैसा की मैंने आपको अपने पिछले पोस्ट में हिंदुत्व के तीन महान योद्धावों/वीरांगनाओं की जानकारी दी.उसी सीरीज का यह दूसरा पोस्ट उन असंख्य कारसेवकों को समर्पित जो अपने राष्ट्र की पुरातन परम्पराओं को जीवीत रखने के लिए अपना सब कुछ स्वाहा कर दिए और करने को तैयार हैं...



पालीताणा की हुतात्मा -डॉ. रामसनेही लाल शर्मा


गुजरात का छठवां सुल्तान महमूद बेगड़ा बड़ा क्रूर, निर्दय, धर्म द्रोही और दुर्दान्त शासक था। वह भयंकर हिन्दू विरोधी था। इसने अपने राज्य का बड़ा विस्तार किया। यह ऐसा भोजन भट्ट था कि इसके खाने की मात्रा को लेकर पूरे देश में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हो गई थीं। प्रसिद्ध उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा के अनुसार वह १५० केले, एक सेर मक्खन और एक सेर शहद तो जलपान में ही लेता था और पूरे दिन में लगभग एक मन अन्न खाता था। इसी महमूद बेगड़ा ने पावागढ़ और जूनागढ़ के किले जीत लिए। इन दोनों स्थानों और अपनी सेना के मार्ग में पड़ने वाले हिन्दू मंदिरों को उसने तोड़ डाला। निर्ममतापूर्वक हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया और फिर उसकी सेना पालीताणा की ओर बढ़ने लगी। पालीताणा में जैनों का प्रसिद्ध तीर्थराज शत्रुंजय स्थित है। बेगड़ा उसी विशाल मंदिर को तोड़ने आ रहा था। पालीताणा के लोगों तक यह समाचार पहुँचा तो वे काँप गए। जैनों की एक बड़ी सभा हुई। शत्रुंजय को बचाने के उपाय सोचने लगे परन्तु उस दुर्दान्त आततायी के हाथों मंदिर को बचाने का कोई उपाय समझ में नहीं आया। जैन समाज किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। किसी बुद्धिमान जैन सज्जन ने कहा कि अब तक इस संकटकाल में शत्रुंजय की रक्षा केवल पालीताणा के ब्रह्मभट्ट ही कर सकते हैं। पालीताणा के ब्रह्मभट्ट बड़े धर्मप्राण, विद्वान्‌, संघर्षशील और हठी के रूप में प्रसिद्ध थे। जैन समाज के सभी संभ्रान्त जनों ने ब्रह्मभट्टों की शरण ली और उनसे अपने तीर्थराज को बचाने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि इस आततायी सुल्तान की सेना के सम्मुख हम जैन असहाय हैं। आप जैसे विद्वान्‌ और धर्मरक्षक हमारे तीर्थ की रक्षा कीजिए। ब्रह्मभट्टों ने उन्हें शत्रुजय की रक्षा का वचन दिया और सबसे वृद्ध ब्रह्मभट्ट ने उन्हें धर्म पर अपना बलिदान करने को प्रेरित किया। अहिंसक विरोध के द्वारा तीर्थराज की रक्षा का निश्चय हुआ क्योंकि रक्तलोलुप, धर्मद्रोही, क्रूर सेना का सशस्त्रु विरोध कोई अर्थ नहीं रखता था।
दूसरे दिन निश्चित समय पर पालीताणा के एक हजार ब्रह्मभट्ट शत्रुंजय की तलहटी में एकत्रु हुए। प्रत्येक बलिदानी ब्रह्मभट्ट श्वेत अंगरखा पहले चंदन चर्चित भाल और गले में रुद्राक्ष की माला धारण किए था। सबकी कटि में कटारें थीं। सुल्तान बेगड़ा को इन दृढ़ निश्चयी ब्रह्मभट्टों के तलहटी में एकत्रु होने का समाचार मिल गया। अब बिना मंदिर तोडे आगे बढ़ना उसे अपना अपमान लगा। वह सेना सहित तलहटी में पहुँचा। सबसे आगे घोड़े पर सवार बेगड़ा मंदिर की सीढ़ियों के नीचे तक चला आया। सर्वाधिक वृद्ध ब्रह्मभट्ट ने आगे बढ़कर उसकी प्रशंसा की और उससे ब्रह्मभट्टों के सम्मान की रक्षा का आग्रह किया परन्तु धर्मद्रोही बेगड़ा इसे सुनकर और अधिक क्रोधित हो गया। उसने सैनिकों को उस वृद्ध को घसीट कर रास्ते से हटाने का आदेश दे दिया। सिपाही आगे बढ़े परन्तु जब तक वे उस पवित्र वृद्ध का शरीर छूते उसने ÷जय अम्बे' का वज्रघोष किया और कमर से कटार निकालकर अपने पेट में घोंप ली। रक्त का फव्वारा फूट पड़ा और खून की कुछ बूंदे सुल्तान के चेहरे पर भी पड़ीं। उस हुतात्मा के मृत शरीर को बगल में छोड़कर सुल्तान आगे बढ़ने को तत्पर हुआ तभी अगली सीढ़ी पर खड़े दूसरे ब्रह्मभट्ट ने 'जय अम्बे' का प्रचण्ड उद्घोष कर कटार निकाल कर अपने पेट में घोंप ली। सुल्तान एक बार तो हतप्रभ रह गया और उसकी गति रुक गई। वजीर ने उसे ब्रह्मभट्टों की धर्मप्राणता और हठधर्मिता के विषय में समझाया। परन्तु अपने मुल्ला-मौलवियों का रुख देखकर सुल्तान मानने को तैयार नहीं हुआ। उसका अनुमान था कि दो-चार लोगों के मरने पर ब्रह्मभट्ट भयभीत होकर वहाँ से चले जाएंगे। वह आगे बढ़ा परन्तु तीसरी सीढ़ी पर एक कोमल कमनीय काया, कामदेव के सौन्दर्य को अपनी सुन्दरता लजाने वाला हँसता हुआ दृढ़ निश्चयी षोडष वर्षीय किशोर खड़ा था। सुल्तान जब तक उसके पास पहुँचे उसने 'जय अम्बे' का उद्घोष किया और कटार पेट में घोंप ली। उसके गर्म रक्त से सुल्तान सिर से पाँव तक नहा गया।
यह अकल्पनीय दृश्य देखकर सुल्तान महमूद बेगड़ा का कलेजा हिल गया। वह भीतर तक काँप गया। इन हुतात्माओं की आत्माहुति ने उसे झकझोर दिया। वह पीछे लौटा और उसने अपने सरदारों को आदेश दिया कि मार्ग में खड़े सभी ब्रह्मभट्टों को कैद कर लिया जाए। सुल्तान का आदेश का पालन करने के लिए उसका सरदार खुदाबन्द खान जैसे ही आगे बढ़ा कि एक सत्तर वर्षीय वृद्ध ने कटार से अपना पेट चीर डाला और अपनी आँतों की माला खुदाबन्द खान के गले में डाल दी। बौखलाकर सरदार ने माला अपने गले से उतार दी और अगली सीढ़ी पर खड़े जवान को पकड़ने को आगे बढ़ा। जब तक खुदा बन्दखान उसके पास पहुँचे कि उसने वज्रनिनाद में ÷जय अम्बे' का घोष किया और कटार अपने पेट में घोंप ली। अब स्थिति यह हो गई कि ज्यों ज्यों बौखलाकर खुदाबन्द खान अगली सीढ़ी की ओर बढ़ता कि वहाँ खड़ा ब्रह्मभट्ट कटार से अपनी आत्माहुति दे देता था। इस तरह ८ लोगों ने बलिदान कर दिया। ब्रह्मभट्टों के इस रोमांचकारी अकल्पनीय आत्म बलिदान को देखकर खुदाबन्द खान भी काँप गया। वह पीछे लौटा और उसने सुल्तान बेगड़ा से लौट चलने की प्रार्थना की। क्रोधित और दिग्भ्रमित सुल्तान ने अपने खूंखार, निर्दयी और पाशविक वृत्तियों वाले सैनिकों को छाँटकर सभी ब्रह्मभट्टों को मारने का आदेश दिया। अब शत्रुजय की सीढ़ियों पर 'भूतो न भविष्यति' जैसा महान्‌ दृश्य था। महमूद के सैनिक जिस सीढ़ी के पास पहुँचते उसी पर खड़ा ब्रह्मभट्ट 'जय अम्बे' का तुमुलनाद कर आत्माहुति दे देता। इन वीर हुतात्माओं के इतने शव देखकर सुल्तान बेगड़ा घबरा गया। उसी समय एक ग्यारह वर्षीय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति वहाँ आई और उसने सुल्तान बेगड़ा की भर्त्सना करते हुए उसे धिक्कारा। उसने कहा! दुरात्मा महमूद तू तो गुजरात का पालक था फिर तू ही घातक कैसे बन बैठा। तूने अपनी धर्मप्राण जनता के खून से अपना कुल कलंकित कर लिया। यदि अभी भी तेरी प्यास नहीं बुझी तो देख एक हजार पालीताणा के और हजारों की संख्या नीचे तलहटी में खड़े ब्रह्मभट्ट अपना बलिदान देने को तत्पर खड़े हैं। ऐसा कहते-कहते उस बालिका ने 'जय अम्बे' का जयघोष करके अपने हाथों से अपना मस्तक उतार कर फेंक दिया। इस असीम साहस की प्रतिमूर्ति नन्हीं बालिका की आत्माहुति देखकर सुल्तान काँप गया। उसके साहस ने जवाब दे दिया। उसने काँपते कण्ठ से अल्लाह से अपने अपराध की क्षमा याचना की और सेना को लौट चलने का हुक्म दिया। उसी दिन से महमूद बेगड़ा ने अपने राज्य मे किसी भी धर्म के धार्मिक स्थल को नष्ट करने पर प्रतिबंध लगा दिया।
शत्रुंजय तीर्थराज में १०७ ब्रह्मभट्टों और एक कुमारी ने स्वेच्छा से आत्माहुति दी थी। उसी दिन से जैन समाज ने शत्रुजय की फरोहिती पालीताणा के ब्रह्मभट्टों को सौंप दी। शत्रुंजय का यह तीर्थराज आज भी हुतात्मा ब्रह्मभट्टों की जयकथा कह रहा है।



वीर छत्रसाल की मां लालकुवरि



भाभी भाभी । अरे देखो तो । कोई अश्वारोही इधर ही तेजी से घोड़ा दौड़ाता चला आ रहा है । भैय्‌या तो हो नहीं सकते । इतनी जल्दी लौटकर आ भी कैसे सकते है? हो न हो कोई शत्रु हो । सैनिकों को सावधान करना होगा । भाभी का हाथ अपनी ओर खीचते हुए उसकी नंनद बोली । स्त्री का रोम रोम सिहर उठा । अब क्या होगा ? लाली । हांफती हुई वह बोली ।

नाहक घबराती हो, भाभी। होगा क्या? मैं तो हूं ही लालकुंवरी ने उसको ढाढस बंधाया । टपटपटपट पट् खट् खट् अश्व के टापों की आवाज समीप आती स्पष्ट सुनाई देने लगी थी । काया का धुंधला धुंधला सा चेहरा भी दिखई पड़ने लगा था ।शीतला ने दूर दूर तक आंखो गढ़ाकर अपनी दृष्टि दौड़ाई यकायक उसक मुरझाया हुआ मुखड़ा खिल उठा । अरी नही री । ये तो वहे ही हैं तेरे भैय्‌या । उतावली में शीतला अपनी नन्द से बोलीं ।
संभवतः सन १६३५ में किसी शाम का वह किस्सा है । गढ़ी के बुर्ज पर दोनो स्त्रियां खड़ी शत्रु की गविधियों की टोह ले रही थीं यह गढ़ी ओरछा के राज्य के अन्तर्गत थी । यहां का गढ़पति था अनरुद्ध । लालकुंवरी का भाई । शीतला थी अनिरुद्ध की पत्नी वह हाल में वधू बन कर आई थी । शीतला से यही कोई दो तीन साल छोटी लालकुवरी रही होगी । समवयस्क होने के नाते ननद भाभी में सहेलियो जैसा अपनापा बन गया था । शीतला स्वभाव से कुछ भीरु और रसिक थी । इसके विपरीत लालकुंवरि निर्भीक औरसाहसी थी । बचपन से ही भाई के साथ उसे तलवारबाजी और भाला चलाने का अभ्यसास कराया गया था । भाई और बहिन में अतिशय प्रेम था । उस समय देश में मुसलमानों का राज्य था ।उनका बुंदेलखंड पर पूर्णरूप से अधिकार हो चुका था । फिर भी उसको स्वतंत्र कराने का प्रयास चल रहे थे । मुगलों के विरुद्ध ऐसे ही एक मोरचे पर अनिरुद्ध युद्ध करने को गया था । अपनी अनुपस्थिति में गढ़ की सुरक्षा का भार वह बहिन को सौंप गया था ।शीतला और अनिरुद्ध का नया नया विवाह हुआ था । उसके हाथों की मेंहदी अभी सूख भी नहीं पायी थी कि पति को युद्ध में जाने का न्यौता मिला था ।वह उद्धिग्न हो उठी उसने पति को प्रेमपाश में बांधनाचाहा था ।नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी । बड़ी बड़ी सुंदर आंख से झरते अरु बिंदुओं को देख अनिरुद्ध का मन भी अंदर अंदर कच्चा पड़ने लगा था ।
पता नही युद्ध का क्या परिणाम हो ? विवाह का सुख क्या होता है । यह उसने अभी जाना भी न था । यद्यपि युद्ध में मरने मारने की घुट्टी क्षत्रियों को घूंटी में ही पिलाई जाती है । राजपूत सैनिकों के जीवन और मृत्यु के बची का फासला बहुत कम होता है ।उसके सामने एक ओर था प्रणय और दूसरी ओर कर्तव्य । दुविधा में फंसा था उसका मन । भाई की दुर्बल मनःस्थिति को बहिन ताड़ गयी । लाल कुंवरि ने कहा भैयया इसी दिन के लिए ही तो क्षत्राणियां पुत्रों को जन्म देती हैं बहने । भाइयों को राखी बांध कर हंस हंस कर रण भूमि के लिए विदा करती हैं क्या क्षणिक मोह में पड़कर मेरा भाई कर्तव्य से विमुख हो जाएगा ।? नहीं भइया नहीं । तुम जाओं देष की धरती तमुमको पुकार रही ह। चिंता न करो । मैं और भभ्ी गढ़ को सम्हाल लेंगी । राजपूतनियां अपना अंतिम कर्त्रव्य भी अच्छी प्रकार से निबाहना जानती हैं । मेरे जीवित रहते शत्रु गढ़ी में प्रवेश नहीं करेगा । आप निष्चिन्त रहे । लालकुंवरि यद्यपि शीतला से थी तो छोटी ही पर उसके विचारों में आयु से अधिक परिपक्वता और प्रौढ़ता आ गयी थी । बहिन की ओजस्वी वाणी को सुनकर भाई की भुजाएं फड़क उठी । गर्व से सीना फूल गा । मन पर पड़ा क्षणिक मोह का अवरण काई के समान फट गया । रणबांकुरा युद्ध के मोरचे पर चल पड़ा ।
शीतला नेत्र सके पति को युद्ध भूमि में जाने के लिए प्रेरित करने पर ननद को खरी खोटी सुनाई थी तभी से वह लाली से चिढ़ी हुई थीं भाभी के हृदय को बीधने वाले वाक्यों को लाली ने हंसते हंसते पी लिया था । दोनो जल्दी जल्दी बुर्ज से नीचे उतरी । गढ़ी के दरवाजे पर जा पहुंची । तब तक घुड़सवार फाटक पर आ पहुंचा था । वह अनिरुद्ध ही था । उसमें उत्साह की झलक न देख बहिन का माथा ठनका । भैयया थोड़ा रुको मैं अभी आरती लेकर आती हूं । आप युद्ध में विजयी हाकर लौटे हैं वह भाई से बोली । सहोदरा की बात सुन अरिरुद्ध का मुख स्याह पड़ गया । गर्दन नीचे को झुक गयी । लज्जित हो वह बोला नहीं बहिन मैं किसी तरह से शत्रुओं से बच भागकर यहां आया हूं । वह भयभीत होकर रण भूमि से भाग निकला है यह सुन लालकुंवरि को जैसे सहस्रों बिच्छुऒं ने उंक मार दिया धिक्कार हैं तुम्हें । शत्रु को रण में पीठ दिखाकर भागने से तो अच्छा है कि मेरा भाई कर्तव्य की वेदी पर लड़ते लड़ते बलि चढ़ जाता । मां के दूध को लजानेमे तुम्हें शर्म नहीं आई । तुम कोई और हो मेरे भाई तो तुम कदापि नहीं हो सकते ।वह तो शूरवीर है । कायर नहीं । उसके वेश में अवश्य को छद्मवेषी है । तुम्हारे लिएदुर्ग का द्वार नहीं खुल सकता । बहिन भाई पर क्रुद्ध सर्पिणी सी शब्द बाण ले टूटपड़ी थी । पहरेदारों को उसे आदेश दिया ।किले का दरवाजा मत खोलों इस समय इसकी रक्षा का दायित्व मेंरे उपर है । मेरी आग्या का पालन हो । बहिन की प्रताड़ना सुन अनिरुद्ध पानी पानी हो गया थ । वह उसी समय वापिस लौटपड़ा । शीतला ननद पर क्रोध से बिफर पड़ी तूने यह अच्छा नहीं किया लाली । कितने थके थे वे ? अगर तेरे पति होता तू इतना उपदेश नहीं देती । दौड़ कर उसे अपने अंक में छिपा लेती । किसी को उसकी हवा भी न लगने देती । भगवान न करे वह दिन आए । यदि मेरा पति इस प्रकार से भीरुता दिखा, भाग कर छिपने को आता तो सच कहती हूं भाभी। तेरी सौगंध मैं उसकी छाती में कटार ही भोंक देती । और फिर उसके साथ ही अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर डालती । लाकुंवरी ने अति शांत स्वर में प्रत्युत्तर में कहा । वातावरण बड़ा गंभीर हो गया था। कुछ समय पष्चात वह फिर बोली भाभी क्षमा करो । आप के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने वाली मैं कौन हूं किन्तु क्या करूं मुझे ऐसी ही शिक्षा और संस्कार भैय्या ने दिए हैं उनकी ही बात मैने उनको स्मरण करा दिया था । हम दोनों ईश्वर से प्रार्थना करें वे विजयी होकर सकुशल घर वापिस लौटें उसने स्नेह से भाभी का हाथ पकड़ लिया ।
लालकुंवरी क्या जानती थी विधाता एक दिन उसकी इसी प्रकार परीक्षा लेगा । बहिन की प्रताड़ना और उलाहना अनरुद्ध के कानों में बार बार गूंजने लगी । उसे वीर मन पर दुर्बलता की पड़ी राख झड़ चुकी थ दहकतेअंगारे समान उ सका पौरुष दहक उठा था । उ सने पुनःपुनः अपनी सेना ऐकत्रित की । चोट खाए घायल सिंह के समान शत्रु सैनिको पर टूटपड़ा । शत्रुओं को मुंह की खानी पड़ी । वीर की भांति विजयी होकर वह घर वापसी लौटा । भाई की विजय का समाचार सुन लालकुवरि कर रोम रोम पुलतित और हर्षित हो उठा था । सर्वत्र अनिरुद्ध की जयजयकार हो रही थी । विजय के डके बज उठे थे । जनता विजय का श्रेय उसको देती तो अनिरुद्ध कहता नहीं भाई इसकी वास्तविक अधिकारी है मेरी यह छोटी बहिन। बहिन ने द्वारपर विजयी भाई की आरती उतारी अपने द्वारा प्रयोग किए गए तीखे शब्दों पर उसने भाई से क्षमा मांगी । अनिरुद्ध मुसकराया औ हल्की से बहिन को चपत लगाई बोला बहिन तूने ठीक किया थ । उस समय तो सचमुच तूने मेरी मां का उत्तरदायित्व ही निभाया । मैंधान्य हो गया तुझ सी छोटी बहिन पाकर । अच्छा चलचल बड़ी बड़ी भूख लगी है पहले जलपान ला । प्रमुदित मन से भागी लाली । भैय्या प्रसन्नता में यह तो मैं भूल ही गयी थी । कितना अच्छा भाई था उसका । किसी को भी ईर्ष्या होती उस पर उसने बहिन को उठा लिया । सिर पर हाथ फेरा । तत्पश्चात स्वयं बहिन के पैर छू लिए । असे भैय्‌या । यह क्या उल्टी गंगा बहा रहे हो लाली बोली चुप । शैतान की बच्चीकी अब जल्दी मुझे तेरे पैर पूजन है तुझे यहां से खदेड़ना है । पति के घर । अनिरुद्ध की रस भरी बाते सुन लाली बोली , हूं बड़े आए भेजने वाले शर्म से आंख नीचे कर वह भागी । कुछ समय बाद ही लालकुंवरि का चम्पतराय से विवाह हो गया । भाई ने बड़ी धूमधाम से बहिन को पति गृह के लिए विदा किया था वह वह पतिगृह महोबा आई ।
बुदेलखंड और मालवा में अनेकों छोटे छोटे राज रजवाड़े थे । बुंदेले आपस में लड़ते । मुस्लिम आक्रान्ताऒं केआधीन भयग्रस्त और आतंकित हिन्दू राजाओं को संगठित करने और मुगलों से देष की धरती को मुक्त कराने को वीरांगना लालकुंवरि पति को सदा प्रेरित करती रहती । वह भी स्वयं युद्ध में पति केसाथ जाती । बड़ी अच्छी जोड़ी थी दोनों की । स्वाधीनता के इन परवानों की । हिन्दू समाज को शक्ति सम्पन्न बनाने का महान लक्ष्य थाउनके सामने । उ न्होंने ओरछा का मुक्त कराने में स्वर्गीय वीर सिंह का पूरा सहयोग दिया था ।
शाहजहां के स्थान पर औरंगजेब शासनरूढ़ हुआ । हिन्दू शक्ति को कैसे सहन करता ? चम्पतराय को जिंदा या मुर्दापकड़ने की उसेन घोषणा की थी । लोगों को बड़े बड़े पुरस्कार देने के लिए प्रलोभन दिए गए थे । चम्पतराय कभी जय तो कभी पराजय के बीच झूल रहे थे । इतने बड़े साम्राजय से टक्करक वे ले रहे थे ।यह कोई सरल काम नहींथा । बड़ा पुत्र सारवाहन तो स्वतंत्रता की बलिवेदी पर पहले ही बलि चढ़ गया था । उस समय छत्रसाल की आयु केवल ६ वर्ष की थी । अनवरत घोड़े की पीठ पर संघर्ष करते करते उनका शरीर पूरी तरह से टूट चुका था । उनकी शक्ति भी क्षीण हो गयी थी अपने भी पराये बन गए थे । पर वाह रे भारत मों के सपूत । तूने शत्रुओं के सामने घुटनेनहीं टेके । इसीलिए इतिहास में तू अमर हो गया । देश भक्तों को प्रेरणा स्रोत बन गए । मुगल सेना लगातार पीछा कर रही थीं औरंगजेब ने सभी रजवाड़ों को धमकी दे रखी थी कियदि किसी ने भी चम्पतराय को शरण दी तो उसको नेस्तानाबूत कर दिया जाएगा । जिनके लिए उन्होंने पूरा जीवन दिय वे ही उसकी जान के पीछे पड़ गए । ओरछा के सुजना शुभकरण आदि मुगल फौजदार नामदार खां के साथ उनको जीवित या मुर्दा पकड़ कर मुगलों को सौंप कर पुरस्कार पाने की आशा में जी जान से लगे थे । मालवा में सहरा नामाका एक छोटा सा राज्य था वहां का राजा था इन्द्रमणि धंधेरा । वह चम्पतराय का मित्र था । चम्पतराय को तीव्र ज्वर चल रहा था । कई दिनों से पीछा नहीं छोड़ रहा था । उन्होंने सोचा कि किसी गुप्त स्थान पर कुछ दिन रहकर विश्राम करू । शक्ति का संचय कर पुनः शत्रु पर टूट पड़ूं इन्द्रमणि किसी युद्ध में बाहर गया हुआ था या पता नहीं उसका न मिलना संयोग था या जानबूझ कर ही वह वहां से निकल गया थाबात चाहे जो भी हो। उसे सहायक साहबराय धंधेरा ने चम्पतराय का बड़ा स्वागत सत्कार किया । वे अभी टिक भी नहीं पाए थे कि गुप्तचरों से संदेश मिला कि सुजान सिंह बुंदेला मुगल सेना के साथ पीछा करता बढ़ा चला आ रहा है । कुछ धंधेरों और सैनिको के संरक्षा में वे मोरन गांव की ओर चल पड़े । उनको अष्व पर चलन कठिन हो रहा था ।अतः पलंगपर लिटा कर उन्हें ले जाया गया । लालकुवरि अष्व पर सवार हो नंगी तलवार लिए पति की सुरक्षा के लिए साथ साथ चल रही थी। साहबराय कदाचित सुजानसिंह ओर मुगलो की धमकी में आ गया था । उसने कुछ धंधेरो को मार्ग में ही चम्पतराय की हत्या करने का संकेत कर दिया था । धंधेरे सैनिक भयभीत हो गए । यद्यपि इस जघन्य कृत्य करने का उनक मन नही कह रहा था । पर हाय रे । विष्वासघात । उन में से कुछ निकल ही आए । मुगलों ओर ओरछा का कोपभाजन कौन बने ? वे धोखा देकर चम्पतराय को मारने को लपके । कौन कहता है कि स्त्री अबला होती है । विष्वास घाती धंधेरे सैनिकों अबला अतिबला बनकर टूट पड़ी । उनके मुंह धरतीपर गिर पड़े । रानीके साथ निष्ठावान बुदेंले सैनिक थे । बचेखुचे धंधेरे उनको अकेला छोड़ भाग निकले । कई बुंदेले वीर शहीद भी हो गए । तब तक मुगल सैनिक भी आ चुके थे । बड़ी कठिन परीक्षा की घड़ी उपस्थित हुई केवल बस एक ही मार्ग शेष था आत्मसमर्पण या आत्तमर्पण का । चम्पताराय नेआत्मार्पण क निश्चय किया । शत्रुओ से पूरी तरह से अपने को घिरा हुआ देख वेसमझ चुके थे कि अब उनके जीवन क खेल खत्म हो चुका है । उनका शरीर इतना अशक्त था कि हाथ उठाने की क्षमता भी उनके शेष नहीं बची । अति क्षीण स्वर में वे पत्नी से बोले , लाली । तूने एकसहधर्मिणी के समान जीवन भर मेरा साथ दिय । अब क्या इस अंतिम बेला में ये विधर्मी मेरे शरीर को भ्रष्ट करेंगें स्वतंत्रता के लिए जीवन पर्यन्त लड़ने वाला अब क्या जंजीरों में बांध कर दिल्ली की सड़को पर घुमाया जाएगा ? मैं स्वतंत्र हूं स्वतंत्र ही रह कर ही मरना चाहता हूं । ओ । बड़ा दुस्सह होगा वह क्षण । उठाओं खंजर भोंक दो । मेरे सीन में । विलम्ब नहीं करो । पति की बात सुन लाकुंवरि विचलित हो गयीं । हे विधाता कैसी अग्नि परीक्षा है अब क्या अंतिम क्षणों में पतिहंता भी बनना पड़ेगा । मन में तूफान का वेग उमड़ पड़ा था चम्पतराय पत्नि के मन की दशा को समझ गए । किसी भी सती साध्वी पतिव्रता नारी के लिए अपने पति की हत्या करना बड़ा कठिन होता है । लाली तू वीर पत्नी है । सिंह पुत्रों की मां अब सोचने का समय नही है दूसरा कोई चारा नहीं जल्दी उठा खंजर । उखड़ते स्वर में वे बोले थे ।
लालकुंवरि को भाभी के ताने स्मरण हो आए थे । भाभी को कहे गए अपनेशब्द याद आएं अगर मेरा पति कायरता दिखातो तो सचमुच उसके सीन में कटार चुभो देती । पर वह कायर तो नहीं । नर श्रेष्ठ है वीर पुंगव क्या करें ? रानी के हाथों में कटार चमकी । पति के वक्षस्थल की ओर बढ़ी । तभी भगवान ने उसे पतिहंता के पाप से उबार लिया ।पत्नी की असमंजसता को देख चम्पतराय के अशक्त हाथों में अकस्मात न जाने कैसे एक विचित्र शक्ति आ गयी थी ।रानी का खंजर उनके सीन में चुभे कि उसके पूर्व ही उनकी स्वयं की कटार वक्षस्थाल में समा गयी । बिजली की गति से लाल कुवरि ने अपना बढ़ा खंजर स्वयं अपने सीने में उतार दिया । उसका शरीर निर्जीव होकर पति के चरणोमे गिर पड़ा । दोनो चिर निद्रा में मग्न हो गए थे मुगल आंख फाड़े इस अनोखे बलिदान को देख रहे थे । अवाक और स्तब्ध । आकाश में दो सितारे टूटे । क्षितिज में एक सिसे से दूसरे सिरे तक चमक कर लुप्त हो गए । उसके साथ हीदो सवीर आत्माए भी अनंत आकाश में विलीन हो गयी०। ६ नवम्बर १६६९ का वह दिन था ।चम्पतराय आरे लालकुवरि के हृदयों मे स्वतंत्रता का जो दीप जल रहा था उससे अंसख्य दीप ज्योतित हो उठे । वह दहका गयी बुंदेलों के हदयों मे तीव्र ज्वाला को । छत्रसाल के रूप में वह दावानल बन कर बह निकली प्राणनाथा प्रभु उसका सही राह पकड़ाई कालान्तर में उसकी तुफान में ध्वस्त हो गया मुगल साम्राज्य ।

Wednesday, October 27, 2010

कुछ भूले विसरे पन्ने से:हिंदुत्व के वे योद्धा जिन्हें हम भूल गए.-१

इस जानकारीपरक लेखमाला की कड़ी में मै आपलोगों को हिंदुत्व के कुछ ऐसे योद्धाओं से परीचित कराने की कोशिश करूँगा जिन्होंने हिंदुत्व की रक्षा के लिए अपना सबकुछ अर्पण कर दिया और आज धर्मनिरपेक्ष इतिहास के पन्नों में ये गायब होने की कगार पर पहुच गए हैं. इस कड़ी में टोटल तीन पोस्ट मै आपके सामने लाऊंगा.पहला भाग सादर समर्पित उन असंख्यो हिंदुत्व के रखवालों को जो राष्ट्र और धर्म के हित में सबकुछ छोड़ने को तैयार हैं-


वीर हकीकत राय

पंजाब के सियालकोट मे सन् 1719 मे जन्‍में वीर हकीकत राय जन्‍म से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। यह बालक 4-5 वर्ष की आयु मे ही इतिहास तथा संस्‍कृत आदि विषय का पर्याप्‍त अध्‍ययन कर लिया था। 10 वर्ष की आयु मे फारसी पढ़ने के लिये मौलबी के पास मज्जित मे भेजा गया, वहॉं के मुसलमान छात्र हिन्‍दू बालको तथा हिन्‍दू देवी देवताओं को अपशब्‍द कहते थे। बालक हकीकत उन सब के कुतर्को का प्रतिवाद करता और उन मुस्लिम छात्रों को वाद-विवाद मे पराजित कर देता। एक दिन मौलवी की अनुपस्तिथी मे मुस्लिम छात्रों ने हकीकत राय को खूब मारा पीटा। बाद मे मौलवी के आने पर उन्‍होने हकीकत की शियतक कर दी कि इसने बीबी फातिमा* को गाली दिया है। यह बाद सुन कर मौलवी बहुत नाराज हुऐ और हकीकत राय को शहर के काजी के सामने प्रस्‍तुत किया। बालक के परिजनो के द्वारा लाख सही बात बताने के बाद भी काजी ने एक न सुनी और निर्णय सुनाया कि शरह** के अनुसार इसके लिये सजा-ए-मौत है या बालक मुसलमान बन जाये। माता पिता व सगे सम्‍बन्धियों के कहने के यह कहने के बाद की मेरे लाल मुसलमान बन जा तू कम कम जिन्‍दा ता रहेगा। किन्‍तु वह बालक आने निश्‍चय पर अडि़ग रहा और बंसत पंचमी सन 1734 करे जल्‍लादों ने, एक गाली के कारण उसे फॉंसी दे दी, वह गाली जो मुस्लिम छात्रो ने खुद ही बीबी फातिमा को दिया था न कि वीर हकीकत राय ने। इस प्राकर एक 10 वर्ष का बालक अपने धर्म और देश के लिये शहीद हो गया।


जितेन्द्रिय वीर छ्त्रसाल


वीर बुंदेलेछत्रसाल युवा थे । बात उस समय की है । उनका कद लम्बा था । शरीर के एक एक अवयव अति सुगठित और सुडौल थे । नेत्रों में अनोखा की आकर्षण । मुख्मंडल तेजस्वी आभा से युक्त था ।उनका गौरवर्ण का मुखड़ा किसी के भी मन को मोह लेता । लोगों की आखें बरबस उनकी ओर खिंची चली जातीं वृद्ध एवं वृद्धाएं उनमें अपने पुत्र की छवि निहारतीं युवक उनको अपने सुहृद के रूप में पाते । सैनिक अपने नेता की दृष्टि से देखते । उनके एक संकेतपर मर मिटने को सदा तत्पर रहते ।

कुमारियां मन ही मन अपने इष्टदेव से प्राथ्रना करती कि भगवन मुझे भी छत्रसाल ऐसा ही वीर और तेजस्वी पति दो । बच्चे तो उनको चाचा चाचा कह कर घेर लेते । वे भी उनको रोचक कहानिंया सुनाते । उनकी बोली में एक ऐसी मिटास थी कि सभी उस पर लट्टू हो जाते । सारे बुदेलखंड में वे इतने लोकप्रिय हो गए थे कि सभी के आशा के केन्द्र न गए । जन जन उनको अपने नेता के रूप में देखता ।ऐसा आकर्षक था उनका व्यक्त्तिव । यदि किसी की धन सम्पदा नष्ट हो जाती है तो वह कुछ भी नहीं खोता । क्योंकि उसका अर्जन पुनः किया जा सकता है । स्वास्थ्य में अगर घुन लग गया तो अवष्य कुछ हानि होती है । शरीर में ही तो स्वस्थ मन और मस्तिष्क रह सकता है । शरीरमाद्यंखलु धर्म साधनम । ध्येय साधना का वही तो अनुपम साधन है । माध्यम । किन्तु यदि चरित्र ही नष्ट हो गया तो उसको कोई भी नहीं बचा सकता । वह सर्वस्व से हाथ धो बैठता है । पतन की ओर उन्मुख हो जाता है मन का गुलाम बन जाता है ।वीर छत्रसाल धन, स्वास्थ्य और शील इन तीनों गुणों के धनी थे ।
दुपहरिया का समय था ।ग्रीष्म ऋतु का । उन दिनों बुंदेखण्ड में धरती जल उठती है । संपूर्ण पठारी क्षेत्र भंयकर लू की चपेट में झुमस रह था । रात अवश्य ही कुछ ठंडी और सुहावनी हो जाती है ।दिन में तो सूर्य की गर्मी से दग्ध पत्थर तो जैसे आग ही उगलने लगते हैं । ऐससे ही समय में छत्रसाल अश्व पर सवार होकर कही जा हरे थे, यदा कदा वे स्वयं भी शत्रु की खोज खबर लेने को निकला करते थे । बिल्कुल अकेले थे । सारा शरीर पसीने से लथपथ था । बहुत थके हुए थे । उनके भव्य भाल पर पसीना चुहचुहाकर बह निकला था ।बीच बीच ममें वे अपने साफे के एक छोर से श्रम बिंदुओं को पोंछते जाते । कहाँ विश्राम करें ? आस पास कही कोई छायादार वृक्ष नहीं दीखा । बेमन से टप्‌ टप्‌ टप्‌ घोड़े को दौड़ाते आगे ही बढ़ते चले गए । एक ग्राम के निकट पहुंचे । वही पर उनको फलकदार एवं छायादार वृक्षों का एक छोटा सा बगीचा दीखा । यहीपर उन्होंने थोड़ी देर तक विश्राम करने का मन बनाया । अश्व भी वही बुरी तरह से हांफ रहा था । उसकी स्थिति को देखकर उनको तरस आ गया । उसकी छाती धौंकनी ऐसी धौक रही थी । नथुने फूल रहे थे । वे उस से उतर पड़े । एक पेड़ी की छाँव में उसको बांध दिया । कमर से फेंटा खोला । धरतीपर उसका बिछा दिया । मस्तक पर सेपगड़ी उतारी । उसका ही सिरहाना लगा वृक्ष की छाया मं लेट गए । उनको न जाने कब नींद आ गयी ।
आंखे खुली । विस्मय से हैरान रह गए । देखा एक रूपवती युवती सामने खड़ी है, वह विमुगधा सी उनको एकटक निहारे जा रही थी । समझ में न आया । वह यहाँ पर क्यों आयी है । उनका माथा घूम गया । कही यह कोई जादूगरनी तो नहीं है ।जादू टोना करने को आई हो । उन दिनो में जादू टोना बड़ा प्रचलित था ।वे हड़बड़ा कर उठ बैठे ।
हे देवी आप कौन हैं ? यहां पर क्या कर रही हैं ? क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ । छत्रसाल ने समझाथा कि यह नवयौवना सचमुच ही किसी संकट में है। अपनी आप बीती , दुखड़ा उनको सुनाने को आयी है ।उनके लिए यह कोई नयी बात नहीं थी साधारणतया इसी प्रकार के लोग प्रायः उनकेपास आते रहते थे । अपनी कष्ट कथा सुनाते । यथाशक्ति वे उनकी सहायता भी करते । अतः बड़ी सहजता से वे उससे उक्त प्रश्न पूंछ बैठे थे । युवती की दृष्टि नीचे की ओर गढ़ी हुई थी । वह अपने पेर के नख से धरती को कुरेद रही थी । सम्भवतः लज्जा ने उसको आ घेरा था ।वह बोलने में सकुचा रही था सोच रही थी सोच रही थी कि ऐसी बात कहे या नहीं । विवके और अविवेक में विपुल युद्ध छिड़ा हुआ था ।उसका मन इसी झूले में पेंगे मार रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
बहिन । निसंकोच रूप से कहो क्या बात है छत्रसाल ने उससे पूछा । बहिन यह शब्द सुनते ही उसका चेहरा फक पड़ गया था । उसने साहस जुटाया । छत्रसाल से जो कुछ कहना था एक झटके में ही कह डाला । उसकी अभिलाषा को सुन छत्रसाल तो एक क्षण को संज्ञा शून्य से हो गए । दंग ओर अवाक । यह उनका पहला अनुभव था । उसको क्या उत्तर दें ? असमंजसता में पड़ गए थे । तुरंत कुछ उत्तर नहीं सूझा । वासना की इन्द्रियां जब शिथिल हो जाती है तब तो उन पर नियंत्रण कर पाना सरल हो जाता है किन्तु यौवन जब अपनी पूर्णता व चरम सीमा पर होताहै तब मन मस्तिष्क और वासनेद्रियों को अपेक्षाकृत काबू में रख पाना कठिन होता है और वह भी ब सुनसान एकांत स्थान हो । कोइ सोदर्यवती युवती सामने खड़ी हो और स्वेच्छा से प्रणयदान की याचना कर रही हो । ऐसे क्षणों में भी जो अडिग रहता हैवही इन्द्रियजयी , जितेन्द्रिय कहलाता है ऐसे क्षणों में बड़े बड़े साधक और तपस्वी की भी परहीक्षा हो जाती है ।
छत्रसाल को लगा कियह युवती उनकी परीक्षा ही लेने को आई है उस दृष्य को दख उन्होंने आंखो मुदं ली । युवती पर काम का मद सवार था । उसके गात थर थर कांप रहे । ।उसकी कामेंनद्रियां प्रदीप्त हो उठी थीं चेहरा लाल हो गया था । उसने छत्रसाल से बड़ी निर्लज्जता सेप्रणय निवेदन किया था कि वीर पुगंव मेंरी उत्कट अभिलाषा है कि तुम मुझे अपने अंक में समेट लो मुझको अपना लो । मैं आपके संसर्ग से एक संतान चाहती हूं । तुम जैसा ही वीरपुत्र मेरी कोख से जन्में । काम पीड़ा सेआहत उसका चेहरा तमतमा उठा था ।छत्रसाल की तोसिट्टी पिट्टी ही गुम हो गयी थी । उनकी बोलती बंद थी । दोनो के लिए परीक्षाकी घड़ी आ उपस्थित हुई थी । छत्रसाल की जितेन्द्रियता की और युवमी सदविवेक की । महर्षि विश्वामित्र के सामने मेनका भी ऐसे ही खड़ी रही होगी । वे तो क्षणिक आवेश में फिसल पड़ी थे किन्तु वह वीर चरित्र की कसौटी पर खरा उतरा था। कुछ ही क्षणामें में वे स्वस्थ हो गए । उनका चित्त स्थिर हो गया था । बाई जी मैं। हौं छत्ता । तौरो लरका ( हे माता । मैं छत्रसाल हूं तेरा पुत्र ) उन्होंने उससे कहा था ।उनके इस वाक्य ने ही उसको पानी पानी कर डाला था ।उसकी वासना की अग्नि पर शीतल जल की फुहार पड़ गयी । उसकी क्षणिक उत्तेजना शांत हो गयी । जिस माहेजाल में वह जा फंस थी वह कट चुका था ।उसका विचलित मन ठिकाने आ लगा था ।उसमें से निकल आयी थीं ऐ वात्सल्यमय जननी । उसके मन ने कहा धरती मैय्‌या तू फट जा । मैं पापिनी उसे समा जाऊँ । तू कैसी है री ? प्रणयकी याचना वह भी अपने पुत्र से हीं ओह यह मैने क्या कर डाला ? यह तो घोर पाप है । अनर्थ हैं उसकी अन्तरात्मा ने उसको कुरेदा और झकझोर डाला ।
वह शर्म से डूब गयी थी उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकल ।पश्चाताप की गंगा में अवगाहन कर उसका मन शुद्ध और निर्मल हो चुका था ।यदि उस समय छत्रसाल उसको सम्हाल न लेते तो शायद वह आत्महत्या ही कर डालती । उन्होंने उसके मन की अवस्था को भांप लिया था । उसने छत्रसाल को सच्चे मन से अपना पुत्र स्वीकार कर लिया था । व्यक्ति के जीवन में बहुत बार ऐसे क्षण आते ह। यह अस्वाभाविक नहीं शरीर धर्म की मानव सहज दुर्बलता न्यूनाधिक मात्रा मे सबमें होती है । छत्रसाल ने भी एक निष्ठवान पुत्र के समान उसको मां का सम्मान प्रदान किया था । पता नहीं उसने विवाह किया या नहीं । इतिहास इसपर मौन है । कालान्तर में उसके धर्म पुत्र छत्रसाल ने अपनी इस मुंहबोली माता के लिए एक हवेली का निर्माण करवाया था । पन्ना से थोड़ी दूरपर यह स्थित है। बंऊआ जू की हवेली । ( माता जी की हवेली ) के नाम से आज ये प्रसिद्ध है । दोनो जब तक जीवित रहे मां बेटे का धर्म निभाया । बंऊआ जी पुत्र की स्मृति में जीवन पर्यन्त वहीं पर रहीं थी ।
अब नतो बंऊआ जू हैं और नही छत्ता । लेकिन आज भी खड़ी है वह हवेली । इतिहास की वह पंक्ति । छत्रसाल के इन्द्रियनिग्रही जीवन तथा उनके निर्मल वा उज्ज्वल चरित्र की कीर्ति की गाथा गा रही है ।



रानी हाड़ी



सुबह का दिन था । सूर्य देवता आकाश में दो हाथ ऊपर को चढ़ आए थे । हाड़ा सरदार गहरी निद्रा में था । उसके विवाह को हुए अभी एक सपताह भी नहीं बीता था ।हाथ में कंगन भी नहीं खुले थे । रानी स्वयं पति को जगाने आई थी । सज धजकर वह सामन खड़ी थी । हाड़ा सरदार जगा । उसके चहरे पर छायी नींद की खुमारी अभी भी नहीं उतरी थी । पति पत्नी में किसी बात पर हंसी ठिठोली चल पड़ी तभी दरवान ने आकर सूचना दी कि महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा हुआ है । वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहता है । आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना जरूरी है ऐसा वह कहता है ।

असमय में दूत मे आगमन का समाचार । वह हक्का बक्का सा रह गया । वह सोचने लगा कि अवश्य कोई विशेष बात होगी । राणा को पता है कि वह अभी ही व्याह कर के लौटा है । आपात की घड़ी ही हो सकती है । उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा । मेवा । दूत का तुंरत लाकर बैठक में बिठाओ । मैं नित्यकर्म से शीघ्र ही निपटकर आता हू । हाड़ा सरदार दरबान से बोला जह जल्दी जल्दी में निवृत्त होकर बाहर आया । सहसा बैठक में बैठै राणा के दूत पर उसकी निगाह जा पड़ी । जोहार बंदगी हुई । अरे शार्दूल तु । इतने प्रातः कैसे ? क्या भाभी ने घर से खदेड़ दिया है ? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया । तेरी लई भाभी अवश्य तुम पर नाराज होकर अंदर गयी होगी । नई नई है न । इसलिए बेचारी कुछ नहीं बोली । अम्मा चार । ऐसी क्या आफत आ पड़ी था । दो दिन तो चैन की बंसी बजा लेने देते । मियां बीबी के बीच में दालात में मूसलचंद बनकर आ बैठै । । अच्छा बोलो राणा ने मुझे क्यों० याद किया है ? वह ठहाका मारकर हंस पड़ा । दोनों में गहरी दोस्ती थी । सामान्य दिन अगर होते तो वह भी हंसी में उत्तर दूता । शार्दूल स्वयं भी बड़ा हंसोड़ था । वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह सकता था किन्तु वह बड़ा गंभीर था । दोस्त हंसी छोड़ो । सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ पहुंची है मुझे भी तुंरंत इन्ही पैरों से वापिस लौटना है । यह कहकर सहसा वह चुप हो गया अपने इस मित्र के विवाह हम में बाराती बनकर गाया था । उसके चेहरे पर छायी गंभीरता की रेखाओं को देखकर हाड़ा सरदार का मन आंशकित हो उठा ।सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयी । दूत सकुचा रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं हाड़ा सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश वह लाया था । उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे । हाड़ा के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थो । नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी तो अभी सूखी नहोगी । पति पत्नी ने एक दूसरे कोठी से देखा पहचाना नही होगा । कितना दुखदायी होगा उनका बिछोह ? यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा । पता नहीं युद्ध में क्या हो ? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता है । अंत में जी कड़ा करके उसने हाड़ा सरदार कके हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया । राणा का उसके लिए संदेष था ।
वीरवर । अविलम्ब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब की सेना को रोको । मुसलमान सेना उसकी सहायता को आगे बढ़ रही है । इस समय बादशाह संकट में फंसा है ।मैं उसे घेरे हुए हूं । उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझाकर रखना है ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके तब तक मैं पूरा काम निपट लेता हूं । तुम इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर सकते हो । यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है ।प्राण की बाजी भी लगानी पड़ सकती है । मुझे तुम पर भरोसा है । हाड़ा सरदार के लिए यह परीक्षा की खड़ी थी । एक ओर मुगलों की विपुल सेना और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प । राणा राजसिंह ने मेवाड़ के छिने हुए क्षेत्रों को पुनः मुगलों के चंगुल से मुक्त करा लिया था । औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी ऐड़ी चोटी की ताकत लगा दी थी । वह चुप होकर बैठ गया था । अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी । राणा से चारूमति के विवाह ने उसकी द्वेषाग्नि को और भी भड़का दिया था । इसी बीच में एक बात और हो गयी थी जिसने राजसिंह और औरंगजेब को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया यह सम्पूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था । इस्लाम को कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दण्ड भगतो । इसी निमित्त हिन्दुओं पर यह कहकर उसने दण्डस्वरूप जजिया लगाया था ।
राणा राजसिंह ने इसका डटकर विरोध किया था । उनका हिन्दू मन इसे सहन नहीं कर सका । इसका परिणाम यह हुआ कइ अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपनेयहां लागू करने में आनाकानी की । उनका साहस बढ़ गया था । गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मुंद पड़ गयी थी पुनः प्रज्ज्वलित हो गयी थी । दक्षिण में शिवाजी बुंदेलखण्ड में छत्रसाल, पंजाब में गुरू गोविंदसिंह मरवाड़ में राठौर वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत के विरूद्ध उठ खड़े हुए था । यहां तक कि आमेर के मिर्जा राजा जयसिं और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगलसल्तनत के दो प्रमुख स्तम्भ थे । उनमें भी स्वतंत्रता प्रेमियों के प्रति सहानुभूमि उत्पन्न हो गयी थी ।
घर का भेदी लंका ढाए । औरंगजेब का सगा बेटा ही उसके लिए काल बन गया था ।मुगल सल्तनत का अस्तित्त्व ही दांव पर लग गया था ।अतः करो या मरोके अतिरिक्त उसके सामने कोई चारा न बचा । अतः एक बड़ी सेना लेकर उ सने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए थं । मुगल सेनाके अरावली में न घुसने देने का दायित्व अपने बेटे जयसिंह को सौपा था । अजमेर की ओर से बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का काम दूसरे बेटे भीमसिंह का था । वे स्वयं अकबर और दुर्गादास राठौर के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े थे । सभी मोर्चो पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी ।बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय काकेशियन बेगम बंदी बना ली गयी थी । बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण बचाकर निकल सका था ।मेवाड़ के महाराणा की यह जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी औरंगजेब उनके विरूद्ध सिंर न उठा सका था । यह बात अलग है कि औरंगजेब के जाली पत्र से भ्रमित होकर राजपूत अकबर का साथ छोड़ गए थे ।
किन्दु क्या इस विजय का श्रेय केवल राणा को था । या और को भी ? हाड़ा रानी और हाड़ा सरदार को किसी भी प्रकार से कम नहीं था । मुगल बादशाह जब चारों ओर राजपूतों से घिर गया था । उसकी जान के भी लाले पड़े थे । उसका बचकर निकलना दुष्कर हो गया था तब उसने दिल्ली से अपनी सहायताकों अतिरिक्त सेना बुलवाई थी । राणा को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था । उन्होंने मुगलो सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करनके लिए हाड़ा सरदार को पत्र लिखा थां ।वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र के पास पहुंचा था । एकक्षण का भी विलम्ब न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था । अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था ।
केसरिया बाना पहने युद्धवेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचम्भित थी । कहां चले स्वामी ? इतनी जल्दी । अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह महीनों के लिए युद्धसे फुरसत मिली हैआराम से कटेगी यह क्या ? आष्चर्य मिश्रित शब्दों में हाड़ी रानी पति से बोती । प्रिय । पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती हे। । वह शुभ घड़ी अभी ही आ गयी ।देष के शत्रुओं से दो दो हाथ होने का अवसर मिला है । मुझे यहां से अविलम्ब निकलना है। हंसते हंसते विदा दो । पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो हाड़ा सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा । हाड़ा सरदार का मन आंशकित था ।सचमुच ही यदि न लौटा तो । मेरी इस अर्द्धागिनी नवविवाहिता का क्या होगां ? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह । इसी अन्तर्द्वन्द्व में उसका मन फंसा था । उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी । विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी राजी की तेज आंखो से छिपा न रह सका । यद्यपि हाड़ा सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की । हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है । उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रण भूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर । इसका पति विजयश्री प्राप्त करे अतः उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी । वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए । मैं अभी आई । वह दौड़ी दौड़ी अंदर गयी । आरती थाल सजाया । पति के मस्तक पर टीका लगाया उसकी आरती उतारी । वह पति से बोली । मैं धन्य धन्य हो गयी ऐसा वीर पति पाकर । हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं अप जाएं । मै विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी ।उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था । पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी । चलते चलते पति उससे बोला प्रिय । मैं तुमको कोइ सुख न सका बस इसका ही दुख है मुझे भुला तो नही जाओगी ? यदि मैं न रहा तो ............ । उसके वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके मुख पर हथेली रख दी । नाना स्वामी । ऐसी अशुभ बातें न बोलो । मैं वीर राजपूतनी हूं , फिर वीर की पत्नि भी हूं । अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निष्चिंत होकर प्रयाण करें । देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें । यही मेरी प्रार्थना है ।
हाड़ा सरदार ने घोड़े को ऐड़ लगायी । रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया । उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखो से बह निकला । हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था । किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कही सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दे ? वह मन को समझाता पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता । अंत में उससे रहा न गया । उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिको के रानी के पास भेजा । उसको पुनः स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत । मैं अवष्य लौटूंगा । संदेषवाहक को आष्वस्त कर रानी न लौटाया । दूसर दिन एक और वाहक आया ।
फिर वही बात । तीसरे दिन फिर एक आया । इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र लाया था । प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं । अंगद के समना पैर जमारक उनको रोक दिया है ।मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं । यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है॥ पत्रवाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवष्य भेज देना । उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करूगा । हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयी । युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे । विजय श्री का वरण कैसे करेंगे ? उसके मन में एक विचार कौंधा । वह सैनिक से बोली वीर ? मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं । इसे ले जाकर उ न्हें दे देना । थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना । किन्तु इसे कोई और न देखे । वे ही खोल कर देखें । साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना । हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था प्रिय । मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं । तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं । अब बेफिक्र होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली ............ स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी ।
पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल , एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया । वह धरती पर लुढ़क पड़ा । सिपाही के नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली । कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्णथाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया । सुहाग के चूनर से उसको ढका । भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा । उसको देखकर हाड़ा सरदार स्तब्ध रह गया उसे समझ में न आया कि उसके नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है ? धीरे से वह बोला क्यों यदुसिंह । रानी की निषानी ले आए ? यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया । हाड़ा सरदार फटी आंखो से पत्नी का सिर देखता रह गया । उसके मुख से केवल इतना निकला उफ्‌ हाय रानी । तुमने यह क्या कर डाला । संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर । मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं ।
हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे । वह शत्रु पर टूट पड़ा । इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है । जीवन की आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा । औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नही ही बढ़ने दिया , जब तक मुसगल बादषाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था ।इस विजय को श्रेय किसको ? राणा राजसिंहि को या हाड़ा सरदार को । या हाड़ी रानी को अथवा उसकी इस अनोखी निशानी को ?