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अगरहो प्यार के मौसम तो हमभी प्यार लिखेगें,खनकतीरेशमी पाजेबकी झंकारलिखेंगे

मगर जब खून से खेले मजहबीताकतें तब हम,पिलाकर लेखनीको खून हम अंगारलिखेगें

Thursday, December 30, 2010

कैसे बचें कामवासना से:विपश्यना एक वैज्ञानिक रास्ता

कामवासना मानवमन की सबसे बड़ी दुर्बलता है । जिन तीन तृष्णाओं के कारण वह भवनेत्री में बंधा रहता है उसमें कामतृष्णा प्रथम है , प्रमुख है । माता पिता के काम संभोग से मानव की उत्पत्ति होती है । अतः अंतर्मन की गहराइयों तक कामभोग का प्रभाव छाया रहता है । इसके अतिरिक्त अनेक जन्मों के संचित स्वयं अपने काम संस्कार भी साथ चलते ही हैं । अतः मुक्ति के के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के लिए काम भोग के संस्कारों से छुटकारा पाना बहुत कठिन होता है । विपश्यना करनी न आए तो असंभव ही हो जाता है ।
काम वासनाओं से छुटकारा पा कर कोई व्यक्ति ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता है परंतु बार बार मन में वासना के तूफान उठते हैं और उसे व्याकुल बनाते हैं । कहीं ब्रह्मचर्य भंग न हो जाए इसलिए वह कठोरतापूर्वक वासनाओं का दमन करता है ओर परिणामतः अपने भीतर तनाव की ग्रंथियां बांधता है दमन द्वारा वासनाओं से मुक्ति मिलती नहीं । भीतर ही भीतर वासना उमड़ती कुलबुलाती रहती है और मन को मोहती रहती है। या दमन द्वारा ब्रह्मचर्य पालने वाला कोई विश्वामित्र जैसा साधक मेनका जैसी अप्सरा की रूप माधुरी पर फिसल जाता है तो आत्मग्लानि, आत्मक्षोभ और आत्मगर्हा से भर उठता है । ऐसा होने पर अपराध की ग्रथियां बांध बांध कर अपनी व्याकुलता को और बढ़ाता है ।
इसीलिए फ्रायड जैसे मनोविज्ञानवेत्ता ने कामवासना के दमन को मानसिक तनाव और व्याकुलता का प्रमुख कारण माना और काम भोग की खुली छूट को प्रोत्साहित किया । अनेक लोग इस मत के पक्षधर बने । आज के युग के कुछएक साधना सिखाने वाले लोग भी इस बहाव में बह कए । ऐसे लोगों ने रोग को तो ठीक तरह से समझा, पर रोग निवारण का जो इलाज ढूंढा, वह रोग के बढ़ाने का ही कारण बन बैठा । काम वासना का दमन एक अंत है , जो सचमुच रोग निवारण का सही उपाय नहीं है । परंतु उसे खुली छूट देना ऐसा दूसरा अंत है जो कि रोग निवारण की जगह रोग संवर्धन का ही काम करता है ।
जब कोई व्यक्ति बुद्ध बनता है तो तृष्णा के सभी बंधनों को भग्न करके विकार विमुक्ति के ऐश्वर्य का जीवन जीता है । इसीलिए वह भगवान कहलाने का अधिकारी होता है । ऐसा व्यक्ति काम तृष्णा, भव तृष्णा और विभव तृष्णा , इन तीनों से छुटकारा पा लेता है और जिस विपश्यना विद्या ( भगवान बुद्ध की ध्यान की विधि ) द्वारा यह मुक्त अवस्था प्राप्त की , उसे ही करुण चित्त से लोगों को बांटता है ।
विपश्यना साधना की विधि न विकारों के दमन के लिए है और न उन्हें खुली छूट देने के लिए । विपश्यना विधि इन दोनों अतियों के बीच का मध्यम मंगल मार्ग है जो जागे हुए विकार को साक्षी भाव से देखना सिखाती है जिससे कि अतंर्मन की गहराइयों में दबे हुए काम विकारों को भी जड़ से उखाड़ना का काम शुरू हो जाता है कुशल विपश्यी साधक समय पाकर इस विधि में पारंगत होता है और कामविकारों का सर्वथा उन्मूलन कर लेता है । और सहज भाव से ब्रह्मयर्च का पालन करने लगता है । इसके अभ्यास में समय लगता है । बहुत परिश्रम , पुरूषार्थ , पराक्रम करना पड़ता है । परंतु यह पराक्रम देहदंडन का नहीं , मानस दमन का नहीं , बल्कि मनोविकारों को तटस्थ भाव से देख सकने की क्षमता प्राप्त करने का है जोकि प्रारम्भ में बड़ा कठिन लगता है पर लगन और निष्ठा से अभ्यास करते हुए साधक देखत है कि शनैः शनैः उसके मन पर वासना की गिरफ्त कम होती जा रही है ।दमन नहीं करने के कारण कोई तनाव भी नहीं बढ़ रहा है और समय पा कर सारे कामविकारों से मुक्त हो कर ब्रह्मचर्य का जीवन जीना सहज हो गया है । यह सब कैसे होता है । इसे समझें ।
पुरुष के लिए नारी के और नारी के लिए पुरुष के रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्शसे बढ़ कर अन्य कोई लुभावना आलंबन नहीं होता । यह पांचों आलंबन आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा कीं इंद्रियों पर आघात करते हैं अथवा इनकी याद और कल्पना चिंतन के रूप में मन की इंद्रिय पर आघात करती है तो ही वासना के विकार जगने का काम आंरंभ होता है । पहली पांचों इंद्रियां शरीर पर स्थापित है ही । छठी मन की इंद्रिय भी शरीर की सीमा के भीतर ही होती है । अतः विपश्यना साधना का अभ्याय साढ़े तीन हाथ की काया के भीतर ही किया जाता है बाहर नहीं । कामतृष्णा जहां जागती है, वहीं उसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है, अन्यत्र नहीं । साढ़े तीन हाथ की काया में इंद्रिय सीमाक्षेत्र के भीतर इसकी उत्पत्ति होती है , यहींनिवास और संवर्धन होता है । अतः विश्यना द्वारा यहीं इसका उन्मूलन किया जा सकता है देखना यह है कि बाहर के आलंबन ने अपने भीतर क्या खट पट शुरू कर दी । आंख कान, नाक, जीभ और त्वचा पर रूप , शब्द गंध, रस और स्पर्ष का संपर्क होते ही यानी प्रथम आघात लगते ही अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर तत्संबंधित इंद्रिय दरवाजे पर और फिर सारे षरीर पर प्रकंपन होता हैं फस्स पच्चया वेदना स्पर्श होते हीं संवेदना होती है । जैसे कांसे के बर्तन को छू देने से उसमें झंकार की तरंगें उठती हैं इस प्रथम आघात के तुरंत बाद मानस का वह हिस्सा जिसे संज्ञा कहें याबुद्धि कहं वह अपने पूर्व अनुभव और याददाश्त के आधार पर इस आलंबन को पहचानता है ‘‘ यह पुरुष अथवा नारी का रूप , शब्द, गंध आदि है । और फिर उसका मूल्यांकन करता है ओह बहुत सुंदर है बहुत मधुर है ं ऐसा करने पर षरीर पर होने वाली यह तरंगे प्रिय प्रतीत होने लगती हैं और मानस उनके प्रति राग रंजित हो कर उनमें डूबने लगता है । वेदना पच्चया तण्हा संवेदना से ही ( काम ) तृष्णा होती है । यही से वासना का दौर शुरू हो जाता है । बार बार रूप, शब्द गंध आदि संबंधित इंद्रियों से टकराते हैं , बार बार प्रिय मूल्यांकन होता है बार बार प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कार बनते हैं । यों क्षण प्रतिक्षण एक के बाद एक वासना के संस्कार बनते बनते पत्थर की लकीर जैसे गहरे हो जाते हैं जब रूप, षब्द, गंध, रस आदि बाहर आलंबन प्रत्यक्षतः आंख, कान नाक आदि इंद्रिय द्वारों से संपर्क करना बंद कर देते हैं तो छठी इंद्रिय का दरवाजा खुल जाता है , अब मन की इंद्रिय पर पूर्व अनुभूत रूप, शब्द, गंध आदि के आंलबन कल्पना और चिंतन के रूप में टकराने लगते हैं, फिर वही क्रम चल पड़ता है । आघात से प्रकंपन का होना , फिर प्रिय मूल्यांकन, फिर संवेदना, फिर प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कारों की उत्पत्ति । क्षण प्रतिक्षण चिंतन का आंलबन चित्तधारा से टकराता रहता है औरक्षण प्रतिक्षण वासना का संस्कार पैदा होता रहता है । यह क्रम जितनी देर चलता है , वासना उतनी बलवान होती जाती है । मन पर उमड़ती हुई यह तीव्र वासना वाणी और शरीर पर प्रकट कोने के लिए मचल उठती है । सारा का सारा चित्त वासना के प्रवाह में आमूल चूल डूब जाता है । वासना में डूबें हुए व्यक्ति की सति याने स्मृति ( यहां स्मृति का अर्थ याददाश्त नहीं है । ) यानि जागरूकता बनी रहती है वासना व्यथित व्यक्ति स्मृतिमान रहता है याने सजग रहता है । परंतु सजग रहता है केवल रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श अथवा चिंतन के आलंबन के प्रति ही । इन छह में से किसी न किसी आलंबन पर उसका ध्यान लगा रहा है । यही आलंबन का ध्यान वासना को उद्दीप्त करता है । अतः स्मृति रहते हुए भी इसे सम्यक स्मृति याने सही स्मृति नहीं कहते । मिथ्या स्मृति कहते है, सति मुट्ठा कहते हैं इन छह आलंबनों में से कोई एक भी तत्संबंधित इद्रिय द्वार के संपर्क में आता है तो स्वानुभव का काम शुरू हो जाता है । संपर्क होते हं तरंग रूपी वेदना को होना, संज्ञा द्वारा मूल्यांकन करना, संवेदना का प्रिय लगना और प्रिय संवेदना का रसास्वादन करते हुए वासना के संस्कार की प्रतिक्रिया का आंरंभ होना, यह सब स्वानुभूति का क्षेत्र है । अतः सत्य का क्षेत्र है । इसके प्रति सजग रहे तो स्मृति सम्यक है। केवल मात्र आलंबन के प्रति सजग रहे आलंबन के स्पर्श का भी निरीक्षण न कर सके, उसके आगे की स्वानुभूतियां तो दूर रहीं, तो स्मृति मिथ्या ही हुई, क्योंकि गहरी अनुभूति वाल क्षेत्र भुलाया हुआ है ।
स्मृति याने जारूकता जब सम्पजज्ज से जुड़ती है तो सम्यक हो पाती है । साधक आताप सम्जनानो सतिमा हो जाता है । इसी को विपश्यना कहते हैं । इसी को सतिपठ्टान कहते हैं याने सति का सम्यक रूप से स्वानुभूतिजन्य सत्य में प्रतिष्ठापित हो जाना । विपश्यी साधक यही करता हैं वह सत्यदर्शी होता है आत्मदर्शी होता है। आत्मदर्शी के माने जिसका कभी स्वयं अनुभव किया ही नहीं ऐसी सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई दार्शनिक मान्यता वाली कल्पित आत्मा का दर्शन करना नहीं । यहां आत्मदर्शन का अर्थ है स्वदर्शन । अनुभूतियों के स्तर पर अपने बारें में जिस जिस क्षण जो जो सच्चाई प्रकट हो उसे ही साक्षीभाव से देखना सत्यदर्शन है , स्वदर्शन है । आत्मदर्शन है । मुक्ति का सहज उपाय है । किसी कल्पना का ध्यान मन को कुछ देर के लिए भरमाए भले ही रखे पर विकार विमुक्त नहीं कर सकता । कोरे बौद्धिक अथवा भक्ति भावावेशमूलक मान्यताओं के दायरें बाहर निकल कर साधक अनुभूति के स्तर पर यथार्थ की भूमि पर कदम रखता है । जो सत्य है उसे केवल मान कर नहीं रह जाता उसे जानता है जनाति और प्रज्ञापूर्वक जानता है पजानाति । साक्षीभाव से तटस्थ भाव से बिना राग के, बिना द्वेश के बिना मोह के यथाभूतः जैसा है वैसा, उसके सत्य स्वभाव में, यथार्थ को जानता है । मात्र जानता है । कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, न उसे दूर करने की न उसे रोके रखने की । केवल दर्शन, केवल ज्ञान यही है पजानाति ।
बाहर का आंलंबन चाहे जो हो , अपने भीतर कामवासना जागी तो बाहर के आलंबन को गौण मानकर अपने भीतर की अनुभूतिजन्य सच्चाई को जानने का अभ्यास साधक शुरू कर देता है । सन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं- जब भीतर कामतृष्णा है तो अत्थि मं अज्डद्यझत्तं कामच्छन्दोति पजानाति - मेरे भीतर कामवासना याने कामतृष्णा है यह प्रज्ञापूर्वक जानता है प्रज्ञापूर्वक इस माने में भी कि यह अनित्य स्वभाव वाली है अनंतकाल तक बनी रहने वाली नहीं । इस समझदारी के साथ तटस्थभाव बनाए रखता है । उसे दूर करने की जा भी कोशिश नहीं करता, अन्यथा दमन के एक अंत की ओर झुक जाएगा । और न हीं उसे वाणी और शरीर पर प्रकट कोने की छूट देता हैं अन्यथा आग में घी डालने वाले दूसरे अंत की ओर झुक जाएगा । उसके अनित्य सवभाव को समझते हुए केवल जानता है पजानाति । क्योंकि अब उसे बढ़ावा नहीं मिल रहा, इस सच्चाई को भी महज साक्षीभाव से प्रज्ञापूर्वक जान लेता हैं असंन्तं वाअज्झत्तं कामच्छन्दं - नहीं है भीतर कामछंद तो , नत्थि में अज्झत्तं कामच्छन्देति पजानाति - मेरे भीतर कामछंद नहीं हैं , इस सच्चाई को प्रज्ञा पूर्वक तटस्थभाव से जानता है । और क्योंकि विष्यना कर रहा है तो सतिमुट्ठा नहीं हुई , सतिपट्ठान का अभ्सायी है याने, अपने भीतर नामरूप याने चित्त और शरीर के प्रंपच को प्रज्ञापूर्व अनुभूति के स्तर पर जानने को काम कर रहा है । इसी को सति के साथ सम्पजञ्ञ को जोड़ना कहते हैं । शरीर चित्त का प्रपंच वेदनाओं के रूप में प्रकट होता है । साधक मानस पर जागी हुई संवेदनाओं को तटस्थभाव से देखत है । ये संवेदनांए अतंर्मन से जुड़ी रहती हैं अतः मन की उदीरणा शुरू हो जाती है । इन पूर्व संचित अनुत्पन्न कामवासनाओं का उत्पाद शुरू हो जाता है यथा च अनुप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स उप्पादो होति तत्च पजानाति । और उदीर्ण हुई इस चिरसंचित कामवासना को भी साक्षीभाव से संवेदनाओं के स्तर पर देखते रहता है तो उन पुराने संस्करों की परत पर परत उतरते हुए उनकी निर्जरा होती जाती है , उनका क्षय होते जाता है । यथाच उप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स पहानं होततिञ्च पजानाति - यों उदीरणा और निर्जरा होते होते प्रहाण क्षय होते होते एक समय ऐसा आता है, जब कि अंतर्मन की गहराई तक के कामतृश्णा के सारे संस्कार उखड जाते हैं उनका नाम लेख तक नहीं रहता । अब कोई कामवासना जागती हीं नहीं । न किसी वर्तमन के आलंबन के कारण और न कोई पुराने संग्रह में से । यथा च पहीनस्स काच्छन्दस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति । साधक परम मुक्त अवस्था तक पहुँच जाता है ।
जो परिश्रम करे , वही इस मुक्त अवस्थात क पहुँचे । किसी भी जाति का हो, वर्ण का हो, रंग रूप हा हो , देश विदेश का हो, बोली भाषा का हो जो करे वही मुक्त । जो न करे उसे लाभ कैसे मिले भला । कोई कोई इसीलिए नहीं करता कि यह तो हमारी पंरपरागत दार्शनिक मान्यता के अनुकूल नहीं है हम क्यों करें । कोई कोई इसलिए नहीं करता कि यह हमारी मान्यता कितनी महान है । इस गर्व गुमान में ही संतुष्टि कर लेता है । मान्यताओं में उलझे हुए लोग विपश्यना नहीं कर सकते , इससे लाभान्वित नहीं तो सकते । करें तो लाभान्वित होंगे ही । ।

Friday, December 24, 2010

पाकिस्तान में हिन्दू -सिक्खों की दुर्गति और हम.....


पाकिस्तान में हिंदुओं के धार्मिक नेता लखीचंद गर्जी का अपहरण कर लिया गया है। वे बलूचिस्तान प्रांत के कलात जिले में स्थित काली माता मंदिर से जुड़े हुए हैं। उनके अपहरण की घटना के खिलाफ हिंदू समुदाय के लोगों ने कई जगहों पर प्रदर्शन किए। इस बीच तालिबान द्वारा दो सिखों के अपहरण और उनका सिर धड़ से अलगर करने के बाद एक हिंदू युवक के अपहरण का मामला सामने आया है। अपहरण करने वालों ने फिरौती की रकम के तौर पर एक करोड़ रुपये की मांग की गई है।
धर्म गुरु के अपहरण के बाद सड़कों पर विरोध प्रदर्शन
85 वर्षीय लखीचंद एक शादी समारोह में शामिल होने के लिए कलात से खुजदार इलाके की ओर जा रहे थे। उनके साथ कुछ और लोग भी थे। अज्ञात सशस्त्र लोगों ने उन्हें रास्ते में रोका और लखीचंद व अन्य लोगों को अगवा कर लिया। हालांकि अपहर्ताओं ने फिरौती की रकम मिलने पर उनमें से एक को छोड़ भी दिया।

घटना के विरोध में कलात और अन्य स्थानों पर सैकड़ों हिंदुओं ने प्रदर्शन कर सड़कें जाम कर दीं जिसकी वजह से यातायात बाधित हुआ। प्रदर्शनकारी लखीचंद को तुरंत छुड़ाने की मांग कर रहे थे।

प्रदर्शनकारियों ने बलूचिस्तान के खुजदार, क्वेटा, कलात और नौशकी में अपहरण के विरोध में प्रदर्शन किए और सरकार से लखीचंद की सुरक्षित रिहाई तुरंत करवाई जाए और हिंदू समुदाय को सुरक्षा मुहैया कराई जाए। खुजदार में विरोध कर रहे हिंदुओं को संबोधित करते हुए नंद लाल, राजकुमार और चंदर कुमार ने कहा कि सरकार आम लोगों खासकर अल्पसंख्यकों की ज़िंदगी और उनकी संपत्तियों की सुरक्षा करने में नाकाम रही है। क्वेटा की हिंदू पंचायत ने आर्य समाज मंदिर से एक रैली निकाली। यह रैली जिन्ना रोड, मस्जिद रोड, शाहरा-ए-इकबाल और मन्नान चौक होते हुई गुजरी।


हिंदू युवक का अपहरण, एक करोड़ की फिरौती मांगी
तालिबान द्वारा दो सिखों के अपहरण और उनका सिर धड़ से अलगर करने के बाद एक हिंदू युवक के अपहरण का मामला सामने आया है। अपहरण करने वालों ने फिरौती की रकम के तौर पर एक करोड़ रुपये की मांग की गई है।

रॉबिन सिंह नाम के कंप्यूटर इंजीनियर का पाकिस्तान के पेशावर शहर में यूनिवर्सिटी रोड बाज़ार से अपहरण हुआ। एक स्थानीय नेता के मुताबिक रॉबिन किसी काम से नौशेरा जा रहा था जब उसे अगवा किया गया। पेशावर जिला असेंबली के सदस्य साहिब सिंह के मुताबिक अपहरण करने वालों ने रॉबिन के परिवार से एक करोड़ रुपये मांगे हैं। साहिब सिंह के मुताबिक रॉबिन के भाई राजन सिंह ने पश्चिमी कैंट थाने में इसी सिलसिले में मामला दर्ज कराया है। हालांकि, पश्चिम कैंट थाने की पुलिस ने ऐसी किसी एफआईआर की जानकारी से इनकार किया है। पुलिस अफसरों का कहना है कि हो सकता है कि रॉबिन सिंह का अपहरण उनके थाने की सीमा में न हुआ हो।


सिख भी निशाने पर
पाकिस्तान के कबिलाई इलाके में अगवा किए गए दो सिखों-महल सिंह और जसपाल सिंह की सिर कटी लाश मिलने से पाकिस्तन के अल्पसंख्यक समुदाय में सनसनी फैल गी है। इसके अलावा दो से चार सिख अब भी तालिबान के कब्जे में हैं। पाकिस्तान की अल्पसंख्यक सिख समुदाय ने सिखों के अपहरण और उनकी हत्या की तीखी आलोचना की है।


पहले से हो रहा है हिंदुओं पर अत्याचार
पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी करीब दो फीसदी है। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के साथ बहुसंख्यक अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं। कई हिंदू परिवारों को अपना पुश्तैनी घर छोड़ने और मंदिर को तोड़े जाने के फरमान जारी होते रहते हैं। पेशावर जैसे कई शहरों में ऐसे फरमान जारी हो चुके हैं। हिंदु लड़कियों का अपहरण करके उनके साथ जबर्दस्ती शादी करने और धर्म परिवर्तन की कई घटनाएं हो चुकी हैं। यही वजह है कि १९४८ में पाकिस्तान में जहां हिंदुओं की आबादी करीब १८ फीसदी थी, वही अब घटकर करीब दो फीसदी हो गई है।

पाकिस्तान में तालिबानी कट्टरपंथियों का कहर पिछले कुछ सालों से हिंदू परिवारों पर भी टूट रहा है। हिंदू परिवार ही लड़कियों का अपहरण और उनका जबरन धर्म परिवर्तन अब आम बात हो गई है। सरकारी तंत्र ने भी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए हैं।


होते रहे हैं अपहरण
पाकिस्तान के सिंध प्रांत के जैकोबाबाद में रहने वाले एक हिंदू परिवार की लड़की रवीना (16) का तालिबानी आतंकियों ने २००९ में अपहरण कर लिया था। 16 लाख रुपये की फिरौती लेने के बाद आतंकियों ने रवीना को मुक्त किया था। वहीं, कराची में लॉयर टाउन के चक्कीवाड़ा की रहने वाली एक नाबालिग लड़की का दो मुस्लिम युवकों-इकबाल और अरशद ने अपहरण कर लिया। इस पर परिजनों ने पुलिस में मामला दर्ज कराया। पुलिस ने छापा मारकर किशोरी को बरामद कर लिया, लेकिन उसे हवालात में डाल दिया गया। मेडिकल जांच में दुष्कर्म की पुष्टि होने के बावजूद कोर्ट ने एकतरफा फैसला सुनाते हुए मामला खारिज कर दिया। कोर्ट का कहना था कि किशोरी ने इस्लाम स्वीकार कर अरशद से निकाह कर लिया है।


हजारों हिंदू खटखटा रहे हैं भारत का दरवाजा
एक आकलन के मुताबिक पिछले छह वर्षो में पाकिस्तान के करीब पांच हजार परिवार भारत पहुंच चुके हैं। इनमें से अधिकतर सिंध प्रांत के चावल निर्यातक हैं, जो अपना लाखों का कारोबार छोड़कर भारत पहुंचे हैं, ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रह सकें।

2006 में पहली बार भारत-पाकिस्तान के बीच थार एक्सप्रेस की शुरुआत की गई थी। हफ्ते में एक बार चलनी वाली यह ट्रेन कराची से चलती है भारत में बाड़मेर के मुनाबाओ बॉर्डर से दाखिल होकर जोधपुर तक जाती है। पहले साल में 392 हिंदू इस ट्रेन के जरिए भारत आए। 2007 में यह आंकड़ा बढ़कर 880 हो गया। पिछले साल कुल 1240 पाकिस्तानी हिंदू भारत जबकि इस साल अगस्त तक एक हजार लोग भारत आए और वापस नहीं गए हैं। वह इस उम्मीद में यहां रह रहे हैं कि शायद उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाए, इसलिए वह लगातार अपने वीजा की मियाद बढ़ा रहे हैं।

(साभार दैनिक भास्कर )

Wednesday, December 22, 2010

विश्व में हिन्दू देश एक अथवा दो नहीं वरन १३ - इति सिद्धम


जब लोग कहते हैं कि विश्व में केवल एक ही हिन्दू देश है तो यह पूरी तरह गलत है यह बात केवल वे ही कह सकते हैं जो हिन्दू की परिभाषा को नहीं जानते । इसके लिए सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि हिन्दू की परिभाषा क्या है ।
हिन्दुत्व की जड़ें किसी एक पैगम्बर पर टिकी न होकर सत्य, अहिंसा सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य , करूणा पर टिकी हैं । हिन्दू विधि के अनुसार हिन्दू की परिभाषा नकारात्मक है परिभाषा है जो ईसाई मुसलमान व यहूदी नहीं है वे सब हिन्दू है। इसमें आर्यसमाजी, सनातनी, जैन सिख बौद्ध इत्यादि सभी लोग आ जाते हैं । एवं भारतीय मूल के सभी सम्प्रदाय पुर्नजन्म में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि व्यक्ति के कर्मों के आधार पर ही उसे अगला जन्म मिलता है । तुलसीदास जीने लिखा है परहित सरिस धरम नहीं भाई । पर पीड़ा सम नहीं अधमाई । अर्थात दूसरों को दुख देना सबसे बड़ा अधर्म है एवं दूसरों को सुख देना सबसे बड़ा धर्म है । यही हिन्दू की भी परिभाषा है । कोई व्यक्ति किसी भी भगवान को मानते हुए, एवं न मानते हुए हिन्दू बना रह सकता है । हिन्दू की परिभाषा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि भारत में हिन्दू की परिभाषा में सिख बौद्ध जैन आर्यसमाजी सनातनी इत्यादि आते हैं । हिन्दू की संताने यदि इनमें से कोई भी अन्य पंथ अपना भी लेती हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं समझी जाती एवं इनमें रोटी बेटी का व्यवहार सामान्य माना जाता है । एवं एक दूसरे के धार्मिक स्थलों को लेकर कोई झगड़ा अथवा द्वेष की भावना नहीं है । सभी पंथ एक दूसरे के पूजा स्थलों पर आदर के साथ जाते हैं । जैसे स्वर्ण मंदिर में सामान्य हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाते हैं तो जैन मंदिरों में भी हिन्दुओं को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । जब गुरू तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितो के बलात धर्म परिवर्तन के विरूद्ध अपना बलिदान दिया तो गुरू गोविन्द सिंह ने इसे तिलक व जनेउ के लिए उन्होंने बलिदान दिया इस प्रकार कहा । इसी प्रकार हिन्दुओं ने भगवान बुद्ध को अपना 9वां अवतार मानकर अपना भगवान मान लिया है । एवं भगवान बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को करने वाले अधिकतम लोग आज हिन्दू ही हैं एवं बुद्ध की शरण लेने के बाद भी अपने अपने घरों में आकर अपने हिन्दू रीतिरिवाजों को मानते हैं । इस प्रकार भारत में फैले हुए पंथों को किसी भी प्रकार से विभक्त नहीं किया जा सकता एवं सभी मिलकर अहिंसा करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य को ही पुष्ट करते हैं ।
इसी कारण कोई व्यक्ति चाहे वह राम को माने या कृष्ण को बुद्ध को या महावीर को अथवा गोविन्द सिंह को परंतु यदि अहिंसा, करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य, पुर्नजन्म, अस्तेय, सत्य को मानता है तो हिन्दू ही है । इसी कारण जब पूरे विश्व में 13 देश हिन्दू देशों की श्रेणी में आएगें । इनमें वे सब देश है जहाँ बौद्ध पंथ है । भगवान बुद्ध द्वारा अन्य किसी पंथ को नहीं चलाया गया उनके द्वारा कहे गए समस्त साहित्य में कहीं भी बौद्ध शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । उन्होंने सदैव इस धर्म कहा । भगवान बुद्ध ने किसी भी नए सम्प्रदाय को नहीं चलाया उन्होनें केवल मनुष्य के अंदर श्रेष्ठ गुणों को लाने उन्हें पुष्ट करने के लिए ध्यान की पुरातन विधि विपश्यना दी जो भारत की ध्यान विधियों में से एक है जो उनसे पहले सम्यक सम्बुद्ध भगवान दीपंकर ने भी हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दी थी । एवं भगवान दीपंकर से भी पूर्व न जाने कितने सम्यंक सम्बुद्धों द्वारा यही ध्यान की विधि विपश्यना सारे संसार को समय समय पर दी गयी ( एसा स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा कहा गया है । भगवान बुद्ध ने कोई नया पंथ नहीं चलाया वरन् उन्होंने मानवीय गुणों को अपने अंदर बढ़ाने के लिए अनार्य से आर्य बनने के लिए ध्यान की विधि विपश्यना दी जिससे करते हुए कोई भी अपने पुराने पंथ को मानते हुए रह सकता है । परंतु विधि के लुप्त होने के बाद विपश्यना करने वाले लोगों के वंशजो ने अपना नया पंथ बना लिया । परतुं यह बात विशेष है कि इस ध्यान की विधि के कारण ही भारतीय संस्कृति का फैलाव विश्व के 21 से भी अधिक देशों में हो गया एवं ११ देशों में बौद्धों की जनसंख्या अधिकता में हैं ।
हिन्दुत्व व बौद्ध मत में समानताएं -
१- दोनों ही कर्म में पूरी तरह विश्वास रखते हैं । दोनों ही मानते हैं कि अपने ही कर्मों के आधार पर मनुष्य को अगला जन्म मिलता है ।
2- दोनों पुर्नजन्म में विश्वास रखते हैं ।
3- दोनों में ही सभी जीवधारियों के प्रति करूणा व अहिंसा के लिए कहा गया है ।
4- दोनों में विभिन्न प्रकार के स्वर्ग व नरक को बताया गया है ।
5- दोनों ही भारतीय हैं भगवान बुद्ध ने भी एक हिन्दू सूर्यवंशी राजा के यहां पर जन्म लिया था इनके वंशज शाक्य कहलाते थे । स्वयं भगवान बुद्ध ने तिपिटक में कहा है कि उनका ही पूर्व जन्म राम के रूप में हुआ था । 6- दोनों में ही सन्यास को महत्व दिया गया है । सन्यास लेकर साधना करन को वरीयता प्रदान की गयी है ।
7- बुद्ध धर्म में तृष्णा को सभी दुखों का मूल माना है । चार आर्य सत्य माने गए हैं ।
- संसार में दुख है
- दुख का कारण है
- कारण है तृष्णा
- तृष्णा से मुक्ति का उपाय है आर्य अष्टांगिक मार्ग । अर्थात वह मार्ग जो अनार्य को आर्य बना दे ।
इससे हिन्दुओं को भी कोई वैचारिक मतभेद नहीं है ।
8- दोनों में ही मोक्ष ( निर्वाण )को अंतिम लक्ष्य माना गया है एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरूषार्थ करने को श्रेष्ठ माना गया है ।

दोनों ही पंथों का सूक्ष्मता के साथ तुलना करने के पश्चात यह निष्कर्ष बड़ी ही आसानी से निकलता है कि दोनों के मूल में अहिंसा, करूणा, ब्रह्मचर्य एवं सत्य है । दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता । और हिन्दओं का केवल एक देश नहीं बल्कि 13 देश हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं विश्व की कुल जनसंख्या में भारतीय मूल के धर्मों की संख्या 20 प्रतिशत है जो मुस्लिम से केवल एक प्रतिशत कम हैं । एवं हिन्दुओं की कुल जनसंख्या बौद्धों को जोड़कर 130 करोड़ है। है जो मुसलमानों से कुछ ही कम है । व हिन्दुओं के 13 देश थाईलैण्ड, कम्बोडिया म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, तिब्बत, लाओस वियतनाम, जापान, मकाउ, ताईवान नेपाल व भारत हैं । इसी कारण जब लोग कहते हैं कि विश्व में केवल एक ही हिन्दू देश है तो यह पूरी तरह गलत है यह बात केवल वे ही कह सकते हैं जो हिन्दू की परिभाषा को नहीं जानते हैं ।

Sunday, December 19, 2010

१९६२ दोहराने को आमादा चीन:सरकार सो रही है


आज के ताजा हालातों से जान पड़ता है की चीन दुबारा से १९६२ को दोहराने की पूरी साजिश कर रहा है और हमारे हुक्मरान दुखद अतीत की भाति निद्रित हैं. चीन के प्रधानमंत्री वन च्या पाओ के भारत दौरे के चंद दिनों बाद ही चीन ने भारत के साथ सीमा विवाद को एक नया मोड़ दे दिया है। ची
न की सरकारी समाचार एजेंसी 'शिन्हुआ' ने बताया है कि भारत-चीन सीमा महज 2000 किलोमीटर लंबी है, जबकि भारतीय दस्तावेज के मुताबिक यह करीब 3500 किलोमीटर है। यानी चीन ने करीब 1500 किलोमीटर दूरी को भारत के साथ सीमा मानने से इनकार कर दिया है।

जाहिर है, चीन अब उस 1500 किलोमीटर लंबी लाइन को सीमा नहीं मानता जिसके एक ओर जम्मू एवं कश्मीर है और दूसरी ओर तिब्बत और सिंचियांग प्रांत है। चीनी प्रधानमंत्री के भारत दौरे के पहले उनके सहायक विदेश मंत्री हू ने सीमा के बारे में जो ब्यौरा दिया था, शिन्हुआ ने उसी के आधार पर भारत-चीन सीमा को दर्शाया है
एक ओर जहां भारत और चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत का दौर चला रहे हैं। वहीं चीन की सरकारी संवाद समिति शिन्हुआ और कम्युनिस्ट पार्टी के मुख पत्र पीपुल्स डेली के अंग्रेजी संस्करण 'ग्लोबल टाइम्स' के अनुसार, भारत-चीन सीमा की लंबाई महज 2 हजार किमी है। चीनी मीडिया ने भारत-चीन सीमा की लंबाई के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के 17 दिसंबर को संपन्न हुई भारत की तीन दिवसीय यात्रा के पहले यह रिपोर्ट शिन्हुआ और ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित हुई थी। शिन्हुआ ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा गया है कि भारत-चीन सीमा सिर्फ 2,000 किमी लंबी है। बीजिंग स्थित भारतीय राजदूत एस जयशंकर ने चीनी मीडिया के इस दावे का खंडन किया है। ग्लोबल टाइम्स को दिए साक्षात्कार में जयशंकर ने कहा है कि दोनों देशों के बीच 3,488 किमी लंबी सीमा है। मंगलवार को प्रकाशित इस साक्षात्कार में ग्लोबल टाइम्स ने जानबूझ कर यह नोट लगाया है कि चीन के दावे के अनुसार, दोनों देशों के बीच सीमा की लंबाई करीब 2 हजार किमी है।


1962 युद्ध के पीछे थी नेहरू का उदासीनता !

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1 जुलाई 1954 को ही (भारत-चीन) सीमा पर
बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे। यह बात ए ज
ी नूरानी की नई किताब में कही गई है।

पुस्तक के मुताबिक नेहरू ने न केवल बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे बल्कि
1960 में भारत दौरे पर आए और विवाद को समाप्त करने को तैयार चाउ एन लाइ
को टका सा जवाब दे दिया था। इन दोनों कारकों ने 1962 के भारत-चीन युद्ध
की नींव डाल दी।


लीगल मामलों के एक्सपर्ट ए.जी. नूरानी सरहद से जुड़े मसलों के अपने
अध्ययन के लिए भी जाने जाते हैं। नूरानी ने इस पुस्तक में 17 पैरा
मेमोरेंडम को उद्धृत किया है जिसमें नेहरू ने कहा है,'हमारी अब तक की
नीति और चीन से हुआ समझौता दोनों के आधार पर यह सीमा सुनिश्चित मानी जानी
चाहिए ऐसी जो किसी के साथ भी बातचीत के लिए खुली नहीं है। बहस के कुछ
बेहद छोटे मसले हो सकते हैं लेकिन वे भी हमारी ओर से नहीं उठाए जाने
चाहिए।'

इंडिया-चाइना बाउंडरी प्रॉब्लम 1846-1947: हिस्ट्री एंड डिप्लोमैसी' नाम
की इस पुस्तक में बताया गया है कि भारत ने अपनी तरफ से ऑफिशल मैप में
बदलाव कर दिया। 1948 और 1950 के नक्शों में पश्चिमी (कश्मीर) और मध्य
सेक्टर (उत्तर प्रदेश) के जो हिस्से अपरिभाषित सरहद के रूप में दिखाए गए
थे, वे इस बार गायब थे। 1954 के नक्शे में इनकी जगह साफ लाइन दिखाई गई
थी।'

लेखक ने कहा है कि 1 जुलाई 1954 का यह निर्देश 24 मार्च 1953 के उस फैसले
पर आधारित था जिसके मुताबिक सीमा के सवाल पर नई लाइन तय की जानी थी।
किताब में कहा गया है,'यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण था। पुराने नक्शे जला दिए
गए। एक पूर्व विदेश सचिव ने इस लेखक को बताया था कि कैसे एक जूनियर ऑफिसर
होने के नाते खुद उन्हें भी उस मूर्खतापूर्ण कवायद का हिस्सा बनना पड़ा
था।'
माना जा रहा है कि वह पूर्व विदेश सचिव राम साठे थे चीन में भारत के
राजदूत भी रह चुके थे। साठे की स्मृति को समर्पित इस पुस्तक का विमोचन 16
दिसंबर को चीनी प्रधाननमंत्री वेन जियाबाओ की बारत यात्रा के दौरान
उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया था।

किताब के मुताबिक नेहरू चाहते थे कि नए नक्शे विदेशों में भारतीय
दूतावासों के भेजे जाएं, इन्हें सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने ला दिया
जाए और स्कूल-कॉलेजों में भी इस्तेमाल किए जाने लगें। किताब में 22 मार्च
1959 को चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ के लिखे पत्र में नेहरू की हर बात
को ' ऐतिहासिक रूप से गलत ' बताते हुए नूरानी कहते हैं कि 1950 तक भारतीय
नक्शों ने सीमा को अपरिभाषित बताया जाता था।


खोजो टीपू सुल्तान कहाँ सोये हैं
असफाक और उस्मान कहाँ सोये हैं
बम वाले वीर जवान कहाँ सोये हैं
वे भगत सिंह बलवान कहाँ सोये हैं
जा कहो,करे वे कृपा,न रूठे वे
बम उठा बाज़ के सदृश टूटे वे
हम मान गए जब क्रान्तिकाल होता ही
सारी लपटों का रंग लाल होता है
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता है
शुरत्व नहीं कोमल,कराल होता है
वास्तविक मर्म जीवन का जान गए हैं
हम भलीभाति खुद को पहचान गए हैं
हम समझ गए हैं खूब क्रूर के चालों को
बम की महिमा को और बन्दूक की नालों को
साधना स्वयं शोणित कर वार रही है
शातलुज को साबरमती पुकार रही है.

Saturday, December 18, 2010

काकोरी के वीरों को नमन



देश के नौजवानों को अपनी कविता और साहसिक कारनामों से आजादी का दीवाना बनाने वाले काकोरी कांड के नायक राम प्रसाद बिस्मिल और आजादी की लड़ाई में हिंदू-मुसलमानों के बीच एकता का प्रतीक बने अशफाक उल्ला खां ने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते हंसते फांसी का फंदा चूम लिया था।
सन् 1927 में वह दिसंबर का महीना था जब 19 तारीख को इन जांबाज देशभक्तों की शहादत ने देश के बच्चों, युवाओं और बुजुर्गो में आजादी हासिल करने का एक नया जज्बा पैदा कर दिया था। ये वीर सेनानी काकोरी की घटना से चर्चा में आए थे।
बात 1925 की है जब नौ अगस्त के दिन बिस्मिल के अलावा चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह समेत 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच शाम लगभग साढ़े सात बजे ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूटकर अंग्रेजों को खुली चुनौती दी थी। यह घटना काकोरी डकैती के नाम से जानी गई जिसमें दुर्घटनावश चली गोली से एक यात्री की मौत हो गई।
इतिहासवेत्ता पी. हरीश के मुताबिक अंग्रेजी हुकूमत ने काकोरी के नायकों को पकड़ने के लिए व्यापक अभियान छेड़ा और अपनों की गद्दारी के चलते सभी लोग पकड़े गए। सिर्फ चंद्रशेखर आजाद ही जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
क्रांतिकारियों ने काकोरी कांड को नाम बदलकर अंजाम दिया था। बिस्मिल ने अपने लिए चार अलग-अलग नाम रखे थे जबकि अशफाक उल्ला ने अपना नाम कुमार जी रखा था। इस घटना में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया और राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।
इन सभी को फांसी देने के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर की गई, लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी दे दी गई। बिस्मिल को 19 दिसंबर को गोरखपुर जेल में और अशफाक को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी दी गई। काकोरी घटना को अंजाम देने वाले सभी क्रांतिकारी उच्च शिक्षित और विद्वान थे। बिस्मिल के पास गजब का भाषा ज्ञान था। वह अंग्रेजी, हिंदी, बंगाली और उर्दू में दक्ष थे। उनके द्वारा रचित अमर पंक्तियां सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.. आजादी के हर लड़ाके की जुबान पर हुआ करती थीं जो आज भी नौजवानों को देश पर मर मिटने और दुश्मन को मार गिराने की प्रेरणा देती नजर आती हैं।

Tuesday, December 14, 2010

कल भारत सोने की चिड़िया होता था






कल भारत सोने की चिड़िया होता था
सारी दुनिया की पलकों पे सोता था
अब दुनिया में दो कौड़ी का नोट है
ये गौरव की परंपरा पर चोट है
हम डंकल के निर्देशों पर नाचे हैं
ये दिल्ली के मुह पर कड़े तमाचे हैं
हम ने अपनी खुद दारी को बेचा है
दिल्ली वाली दम दारी को बेचा है
ओढो और बिचावों आब कंगाली को
केवल सपनो में देखो खुशहाली को
आब दुनिया के आगे ऐसा दर्ज़ा है
पेटों के बच्चों के सर भी कर्जा है
अर्थ व्यवस्था टंगी हुई कंकालों में
सोना गिरवी है लन्दन के तालों में
निर्भरता है अमरीका की झोली में
देश खड़ा है भीख मंगो की टोली में
नकसल वादी चलन हुवा है तो क्या है
सीमावों का हनन हुवा है तो क्या है
कन्या सागर से पर्वत तक शोर है
पुरवा के दामन दामन में खूनी भोर है
हर चौराहे पर हिंसा का मेला है
गोहाटी में अपहर्नो की बेला है
बटवारे के नारे है दीवारों पर
बन्दोकों की नालें है अखबारों पर
इससे भी जायदा होगा आगे आगे
हम ने आंखे मीची है जागे जागे
डर कर घुटने टेके है दरबारों ने
जेलों से कातिल छोडे सरकारों ने
कायरता बैठी सत्ता की सेजो पे
हत्यारे हैं समझौतों की मेजो पे
मै तो चारण हो आंसू को गाता हूँ
अत्याचारो का दर्पण दिखलाता हूँ
मेरी कविता सुन कर कोई मत रोना
देश बचाने आएगा जादू टोना
अभी अभी तो केवल आंख मिचौनी है
इक दिन पूरी संसद बंधक होनी है


हर-हर महादेव
(एक देशभक्त की रचना)

हजार साल पुरानी नरसिंह की प्रतिमा मिली


मधुबनी।जिले के फुलपरास अनुमंडल की महिन्दवार पंचायत केबैका गांव में शनिवार की शाम हजार साल पुरानी ग्रेनाइट निर्मित भगवान नरसिंह की दुर्लभ प्रतिमा मिली। यह प्रतिमा एनएच 57 के निर्माण के क्रम में जेसीबी मशीन से मिट्टी खुदाई के क्रम में मिली। स्थानीय लोगों ने प्रतिमा को दुर्गा स्थान में रखकर पूजा-अर्चना शुरू कर दी है।

मिली प्रतिमा में नरसिंह भगवान हिरणकश्यप का वध करते नजर आ रहे हैं। प्रतिमा की ऊंचाई ढाई फुट व चौडाई डेढ फुट है। प्रतिमा के साथ-साथ दो बडे व तीन छोटे कलश भी मिले हैं।

जानकारी हो कि जहां से प्रतिमा प्राप्त हुई है वहां पूर्व में पोखरा था। इसी जगह से वर्ष 1957 में एक महात्मा के कहने पर तत्कालीनविधायक पंडित काशीनाथ मिश्र व अन्य ग्रामीणों के सहयोग से की गई खुदाई में शिव पार्वती की युगल प्रतिमा, एक शिवलिंग, भैरवनाथव प्राचीन काले पत्थर की कई शिलाएं प्राप्त हुई थीं, जो दुर्गा स्थान में स्थापित हैं। ग्रामीण रामनारायण सिंह, शत्रुघ्न सेन, दिगंबर झा, मधुकांतझा आदि ने बताया कि पूर्वज कहते थे कि इस क्षेत्र में कभी प्राचीन मंदिर था। मंदिर में अनेक देवी देवताएं स्थापित थे।

कार्बन जांच में होगा सही उम्र का निर्धारण

मधुबनी।महिला कालेज मधुबनी में कार्यरत इतिहास व प्राचीन संस्कृतिविभाग के अध्यक्ष डॉ. उदयनारायण तिवारी ने बताया कि यह प्रतिमा लगभग एक हजार साल पुरानी है। वास्तविक काल निर्धारण इसके कार्बन जांच के बाद ही होगा। उन्होंने कहा कि नरसिंह भगवान की प्रतिमा जिले में प्रथम बार प्रतिवेदित हुई है। मधुबनी जिले में अब तक मिट्टी खुदाई के क्रम में दुर्लभ प्रतिमाएं प्राप्त हो चुकी हैं।

बेनीपट्टी के सलेमपुर गांव में प्राप्त बराह की प्रतिमा भी एक वर्ष पूर्व तालाब खुदाई के क्रम में मिली थी।

Friday, December 10, 2010

सभी काम श्रेष्ठ हैं


स्वामी विवेकानंद ने कर्तव्य और कर्मयोग को सर्वोपरि बताया है। कोई भी काम छोटा-बडा नहीं होता, यह उनके इस व्याख्यान से पता चलता है..
यदि कोई मनुष्य संसार से विरक्त होकर ईश्वरोपासना में लग जाए, तो उसे यह नहीं समझना चाहिए कि जो लोग संसार में रहकर संसार के हित के लिए कार्य करते हैं, वे ईश्वर की उपासना नहीं करते। संसार के हित में काम करना भी एक उपासना ही है। अपने-अपने स्थान पर सभी बडे हैं।
इस संबंध में मुझे एक कहानी का स्मरण आ रहा है। एक राजा था। वह संन्यासियों से सदैव पूछा करता था-संसार का त्याग कर जो संन्यास ग्रहण करता है, वह श्रेष्ठ है, या संसार में रहकर जो गृहस्थ के कर्तव्य निभाता है?
नगर में एक तरुण संन्यासी आए। राजा ने उनसे भी यही प्रश्न किया। संन्यासी ने कहा, हे राजन् अपने-अपने स्थान पर दोनों ही श्रेष्ठ हैं, कोई भी कम नहीं है। राजा ने उसका प्रमाण मांगा। संन्यासी ने उत्तर दिया, हां, मैं इसे सिद्ध कर दूंगा, परंतु आपको कुछ दिन मेरे साथ मेरी तरह जीवन व्यतीत करना होगा। राजा ने संन्यासी की बात मान ली।
वे एक बडे राज्य में आ पहुंचे। राजधानी में उत्सव मनाया जा रहा था। घोषणा करने वाले ने चिल्लाकर कहा, इस देश की राजकुमारी का स्वयंवर होने वाला है। जिस राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा था, वह संसार में अद्वितीय सुंदरी थी और उसका भावी पति ही उसके पिता के बाद उसके राज्य का उत्तराधिकारी होने वाला था। इस राजकुमारी का विचार एक अत्यंत सुंदर पुरुष से विवाह करने का था, परंतु उसे योग्य व्यक्ति मिलता ही न था।
राजकुमारी रत्‍‌नजटित सिंहासन पर बैठकर आई। उसके वाहक उसे एक राजकुमार के सामने से दूसरे के सामने ले गए। इतने ही में वहां एक दूसरा तरुण संन्यासी आ पहुंचा। वह इतना सुंदर था कि मानो सूर्यदेव ही आकाश छोडकर उतर आए हों। राजकुमारी का सिंहासन उसके समीप आया और ज्यों ही उसने संन्यासी को देखा, त्यों ही वह रुक गई और उसके गले में वरमालाडाल दी।
तरुण संन्यासी ने एकदम माला को रोक लिया और कहा, मैं संन्यासी हूं मुझे विवाह से क्या प्रयोजन? राजा ने उससे कहा, देखो, मेरी कन्या के साथ तुम्हें मेरा आधा राज्य अभी मिल जाएगा और संपूर्ण राज्य मेरी मृत्यु के बाद। लेकिन संन्यासी वह सभा छोडकर चला गया। राजकुमारी इस युवा पर इतनी मोहित हो गई कि युवा संन्यासी के पीछे-पीछे चल पडी।
दूसरे राज्य के राजा को लेकर आए संन्यासी भी पीछे-पीछे चल दिए। जंगल में जाकर संन्यासी नजरों से ओझल हो गया। हताश होकर राजकुमारी वृक्ष के नीचे बैठ गई। इतने में राजा और संन्यासी उसके पास आ गए। रात हो गई थी। उस पेड की एक डाली पर एक छोटी चिडिया, उसकी स्त्री तथा उसके तीन बच्चे रहते थे। उस चिडिया ने पेड के नीचे इन तीन लोगों को देखा और अपनी स्त्री से कहा, देखो हमारे यहां ये लोग अतिथि हैं, जाडे का मौसम है। आग जलानी चाहिए। वह एक जलती हुई लकडी का टुकडा अपनी चोंच में दबा कर लाया और उसे अतिथियों के सामने गिरा दिया। उन्होंने उसमें लकडी लगा-लगाकर आग तैयार कर ली, परंतु चिडिया को संतोष नहीं हुआ। उसने अपनी स्त्री से फिर कहा, ये लोग भूखे हैं। हमारा धर्म है कि अतिथि को भोजन कराएं। यह कहकर वह आग में कूद पडा और भुन गया। उस चिडिया की स्त्री ने मन में कहा, ये तो तीन लोग हैं, उनके भोजन के लिए केवल एक ही चिडिया पर्याप्त नहीं। पत्‍‌नी के रूप में मेरा कर्तव्य है कि अपने पति के परिश्रमों को मैं व्यर्थ न जाने दूं। वह भी आग में गिर गई और भुन गई। इसके बाद उन तीन छोटे बच्चों ने भी यही किया।
तब संन्यासी ने राजा से कहा, देखो राजन, तुम्हें अब ज्ञात हो गया है कि अपने-अपने स्थान में सब बडे हैं। यदि तुम संसार में रहना चाहते हो, तो इन चिडियों के समान रहो, दूसरों के लिए अपना जीवन दे देने को सदैव तत्पर रहो। और यदि तुम संसार छोडना चाहते हो, तो उस युवा संन्यासी के समान हो, जिसके लिए वह परम सुंदरी स्त्री और एक राज्य भी तृणवत था। अपने-अपने स्थान में सब श्रेष्ठ हैं, परंतु एक का कर्तव्य दूसरे का कर्तव्य नहीं हो सकता।

Wednesday, December 8, 2010

काशी में फिर रक्तरंजित हुई आस्था



पहले


बाद में


आज आस्था पर फिर एक और हमला हुआ.जगह वही वाराणसी जो(काशी).२००६ में एक ऐसे हमले में अततयिओ ने पवित्र संकटमोचन मंदिर को रक्तरंजित कर दिया था.वही दिन-मंगलवार,हिन्दुओं के लिए विशेष धार्मिक महत्व का दिन,श्री हनुमान जी का दिन.आखिर ये चाहते के हैं,ये बात किसी से छिपी नहीं है,और हम आसानी से समझ सकते हैं की आतंक के सौदागरों फिर से गंगा महा आरती के दौरान दशाश्वमेध घाट दहल उठा..और सीढिया घायलों के खून से सन गयीं. की साजिश ६ दिसंबर को ही इस घटना को अंजाम देने की थी और शायद सुरक्षा की वजह से वे ऐसा नहीं कर पाए.मै खाटी बनारसी हूँ और बनारस मेरी जन्मभूमि भी है.मुझे अच्छी तरह पता है की दशाश्वमेध घाट पर होने वाली गंगा महा आरती बनारस की एक एक पहचान है.हजारों की संख्या में श्रद्धालु हर रोज एकत्रित होते हैं जिनमे देशी भी होते हैं और विदेशी भी होते हैं. जब घंटा घड़ियाल की ध्वनि के के बीच में आरती और भजन शुरू होता है तो पूरा माहौल भक्ति में डूब जाता है.और इसी माहौल में अगर घंटा घड़ियाल की ध्वनि के साथ बम की शोरे सुनाई दे.अगरबत्ती की खुशबू की जगह बारूद और जले मानव अंगों की गंध सुनाई दे तो आप आसानी से समझ सकते हैं की वहां पर रहने वाले लोगों पर क्या गुजरती होगी.क्या यह एक छुपा प्रश्न है की किसने ऐसी हरकत की होगी?क्या यह हिन्दुओं से प्यार करने वालों की हरकत है?क्या ये लोग चाहते हैं की देश में सभी संप्रदाय के लोग एक साथ रहे?शायद कभी नहीं.फिर ये लोग हैं कौन?ये किसी दुसरे देश आये हुए लोग नहीं हैं.ये हमारे बीच के वही राक्षस हैं जिनको सिखाया जाता है की उनके धर्म के आलावा दुसरे धर्म के लोग मार दिए जाने योग्य हैं.इतनी बड़ी साजिश एक दिन में भी नहिओ की जा सकती.इसके लिए इन्होने बाकायदा योजनाबअद्ध तरीके से काम किया होगा.इनको आश्रय देने वाले हिन्दू कभी नहीं हो सकते क्युकी कोई भी हिन्दू ऐसी घिनौनी हरकत नहीं कर सकता.न तो कोई हिन्दू मंदिर में खून खराबा कर सकता है न तो किसी दूसरे संप्रदाय के धार्मिक स्थल पर क्यूँ की उन्हें तो सिखाया जाता है कई सभी लोग सामान है और ईश्वर की संताने हैं.क्या जिन लोगों ने इसको किया है,वे इस देश में रहने के लायक हैं?कभी नहीं.आज इनकी संख्या बहुत कम है लेकिन जिस दिन भी ये केवल २०% हो गए,हिंदुस्तान,हिंदुस्तान न रहकर अरब हो जायेगा.


बनारस में भी विस्फोटों का शोर सुनाई देता है
इंडियन मुजाहिदीन के नारों का शोर सुनाई देता है
भरे समीर मौसम आदमखोर दिखाई देता है
लाल किले का भाषण भी कमजोर दिखाई देता है
बनारस के चौराहों से आती आवाजे संत्रासो की
पूरा शहर नज़र आता है मंडी ताजा लाशो की
सिंघासान को चला रहे है नैतिकता के नारों से
मदिरा की बदबू आती है संसद की दीवारों से

देश के नेतावो से है जनता का ये सवाल
बोलो उग्रवाद वाले पृष्ठ कब बांचे है
सिंह हो कर भी सिंह सिंह नहीं दीखते है
और स्वान खुले आम भर रहे कुलाचे है
हो अहमदाबाद या फिर दक्षिण का बंगलुरु
उग्रवादी नंगा नाच चारो और नाचे है
बनारस के धमाके चीख चीख के ये कहते है
ये धमाके तो दिल्ली के गाल पे तमाचे है

(हर-हर महादेव
(एक देशभक्त की रचना))


इस आतंकवाद का भी रंग बताएं गृहमंत्री

हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए भगवा आतंकवाद शब्द को जन्म देने वाले हमारे माननीय गृह मंत्री पी.चिदमबरम जी बताएं की बनारस में हुए आतंक का काया रंग है.वो जानते हैं की यह रंग हरा है,लेकिन वो कह नहीं सकते...आतंकवादी उनके लिए वोट बैंक हैं.राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बदनाम करने के लिए तरह-तरह की झूठी बातें करने वाले गृह मंत्री जी ये तो बताएं की इस संगठन को प्रतिबंधित होने के बावजूद अपना काम करने में दिक्कत क्यूँ नहीं होती?कभी बनारस में तो कभी दिल्ली में..हर जगह ये अपना काम इतनी आसानी से कैसे कर देते हैं?मत बोलना साहब नहीं तो बात १७ करोन वोट की है.बस दस जनपथ में इनके साथ बैठ कर बिरयानी की पार्टी करना.

हिन्दुओं को फिर से जागने की जरुरत है.

अगर आज तक देश में १९९२ की तरह हिन्दू एकता कायम रहती तो शायद बार-बार ऐसे दिन देखने की नौबत नहीं आती.अभी समय है...हमें जागना होगा नहीं तो कभी पुस्तकों में पढ़ा जायेगा की कभी हिन्दू नाम का एक धर्म हुआ करता था.

चिंतको चिंतन की तलवार गढ़ों रे
रिशिओं उद्दीपन मंत्र पढो रे
योगिओं जागो जीवन की और बढ़ो रे
बंदूकों पर फिर अपने अलोक मढ़ो रे
है जहाँ कही भी तेज उसे पाना है
रन में समस्त भारत को ले जाना है
पर्वत पति को फिर आमूल डोलना होगा
शंकर को विध्वंशक नयन खोलना होगा.

Monday, December 6, 2010

बाबरी विध्वंश के १८ साल:विश्रांति विनाश की तरफ ले जा रही है.


आज बाबरी विध्वंश के अठ्ठारह साल पुरे हुए.यह एक ऐसा दिन है जो भारत के इतिहास में शायद ही भुला जा सके क्यूंकि यह उन चंद वीरगाथाओं में से एक है..जो हमारे भारत भूमि को स्वर्णिम अतीत की याद दिलाते हैं.यह घटना उन चंद घटनाओं में से एक है जिसमे पूरा हिन्दुसमाज और अन्य धर्मो के राष्ट्रवादी मतावलम्बी एक हुए.बाबर जैसे बर्बर आक्रमणकरी द्वारा मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंदिर को तोड़कर बनाये गए ढाचें को जमींदोज कर,अयोध्या में पुनः भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर को बनाने का प्रसश्त किया.यह हमारे लिए गर्व की बात है और समस्त हिन्दुस्तानी जिनके लिए अपना राष्ट्र प्रथम है इसको शौर्य दिवस के रूप में मना रहे हैं.लेकिन आज १८ साल बीत जाने के बाद भी,कुछ तथाकथित राष्ट्र विद्रोही(खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले)बाबर के अनुयायिओं के कारण भव्य मंदिर निर्माण में देरी हो रही है.कुछ दिन पहले लखनऊ उच्च न्यायलय द्वारा भव मंदिर निर्माण का आदेश देने के बावजूद कुछ राष्ट्र विरोधी तत्त्व अपना वोट बैंक बचने के लिए रस्ते में रोड़ा बन रहे हैं.यहाँ मै एक बात बताना चाहूँगा की भगवान श्री राम केवल हिन्दुओं के ही नहीं हैं.वो तो समस्त मानव समाज के लिए हैं.उन्होंने कभी भी नहीं कहा की हे हिन्दुओं ऐसा करो.उन्होंने जो कहा जो किया वह समस्त मानव समाज के लिए है.इसी का नतीजा है की भारतीय संबिधान जो की एक धर्म निरपेक्ष संबिधान है के पेज नंबर ३ पर भगवान श्रीराम की तस्वीर लगी है और कहा गया है की आप मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और हम आपके ही आदर्शों पर चलेंगे.यहाँ पर कुछ शब्द मै अपने देश के लोगों से पूछना चाहूँगा की क्या केवल हिन्दू श्रीराम जी के वंशज है और बाकि लोग क्या बाबर की औलाद हैं.सभी लोग जानते हैं की हिंदुस्तान में रहने वाले ९९.९९% लोग यहीं के रहने वाले हैं जो कुछ पिडियो पहले अपनी पूजा पध्धति बदल लिए.क्या पूजा पद्धति बदल लेने से हमारे पूर्वज बदल जायेंगे.राम हिन्दुओं के भी पूर्वज है और मुसलमानों के भी.तो हमारे मुस्लिम भाईओं को भी सामने आना चाहिए और श्रीराम मंदिर निर्माण में सहयोग कर अपना फ़र्ज़ अदा करना चाहिए.
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग कहते हैं-समय बदल चूका है और १९९२ की स्थिति नहीं है.अब हिन्दू समाज वैसा नहीं रहा जो ऐसी प्रतिक्रया दे जो १९९२ में दिया था.उनको लगता है की १९९२ में जो हुआ था वह गलत हुआ था लेकिन मै सभी देशवासिओं से कुछ सवाल पूछना चाहूँगा-

क्या अगर १९९२ की तरह हमारा हिन्दू समाज संगठित रहता तो कोई माँ का लाल आकर अक्षर धाम,काशी और आन्या अनेक धार्मिक जगहों पर अपने गंदे हाथों से खून की होली खेल पाता.

क्या हमारे संसद भवन और जम्मू कश्मीर विधानसभा जैसे लोकतंत्र के मंदिरों में रक्तरंजीत नज़ारे दीखते?

क्या कोई ....मुबई दिल्ली ओर बेंगलोरे की सड़कों को रक्तरंजीत लाशों से पाटता.

नहीं--कभी नहीं

जो विश्राम करता है,विनाश की तरह जाता है.विश्रांति हमारे लिए नहीं है.जब तक भारत माता अपनी अतीत की मर्यादा को पुनः से प्राप्त नहीं कर लेती,जब तक भारत पुनः जगतगुरु की उपाधि की प्राप्त नहीं कर लेता...हमें विश्राम करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए.
भारत हमारा है.हमने यहाँ जन्म लिया और लाखों साल से हमारे पूर्वज यहाँ रह रहे हैं.इसकी पीड़ा हम समझ सकते हैं,इटली से आयी सोनिया गाँधी या हिब्रेड राहुल गाँधी नहीं.
अतः भारत की भलाई के लिए हमें पुनः जागने की जरुरत है.जागो हिन्दुओं और वे मुस्लमान भी जिनको धर्म से ज्यादा देश प्रिय है...और इस नेक काम में लग जाओ.क्योंकि राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है हिन्दू या मुसलमान होना नहीं.जागो...और वन्देमातरम का विरोध करने वाले देश द्रोहिओं को देश से बहार भेजो और काशी,मथुरा और अयोध्या की प्रतिष्टा पुनः स्थापित करो.
वन्देमातरम

Thursday, December 2, 2010

अपना प्यार मै न्योछावर करूँ



तुझे देखकर जो जीने की जो ललक थी
जल गयी मेरे अरमानो के संग में
समय ने हमें क्या से क्या कर दिया
जिन्दगी रंग गयी विरह के रंग में
हर तरफ हर दिशा में तुम्हारी हसी
छाई थी बादलों की घटा की तरह
सोचता रह गया प्यार बरसे कभी
पर बरसा वही आशुओं की तरह
तुझे भूलकर जीना मुमकिन नहीं
साथ रहना भी मुझको गवारा नहीं
दिल करे भूल जाऊं तुझे दिलरुबा
पर अपने बस में दिल हमारा नहीं
वो बातें,वो यादें,वो अपने इरादे
वो तनहा सी रातें,वे जीवन के वादे
सभी झूठ थे,झूठ थे-झूठ थे
कैसे बोलूं सभी के सभी झूठ थे
पर यही सत्य है-पर यही सत्य है
तो तुझे भूलने की मै कोशिश करूँ
प्यार जननी जन्मभूमि से मिला जो मुझे
उसपर अपना प्यार मै न्योछावर करूँ.
-राहुल पंडित