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अगरहो प्यार के मौसम तो हमभी प्यार लिखेगें,खनकतीरेशमी पाजेबकी झंकारलिखेंगे

मगर जब खून से खेले मजहबीताकतें तब हम,पिलाकर लेखनीको खून हम अंगारलिखेगें

Thursday, February 25, 2010

प्यार बांटते साई


प्राणिमात्र की पीडा हरने वाले साई हरदमकहते, मैं मानवता की सेवा के लिए ही पैदा हुआ हूं। मेरा उद्देश्य शिरडीको ऐसा स्थल बनाना है, जहां न कोई गरीब होगा, न अमीर, न धनी और न ही निर्धन..। कोई खाई, कैसी भी दीवार..बाबा की कृपा पाने में बाधा नहीं बनती। बाबा कहते, मैं शिरडीमें रहता हूं, लेकिन हर श्रद्धालु के दिल में मुझे ढूंढ सकते हो। एक के और सबके। जो श्रद्धा रखता है, वह मुझे अपने पास पाता है।
साई ने कोई भारी-भरकम बात नहीं कही। वे भी वही बोले, जो हर संत ने कहा है, सबको प्यार करो, क्योंकि मैं सब में हूं। अगर तुम पशुओं और सभी मनुष्यों को प्रेम करोगे, तो मुझे पाने में कभी असफल नहीं होगे। यहां मैं का मतलब साई की स्थूल उपस्थिति से नहीं है। साई तो प्रभु के ही अवतार थे और गुरु भी, जो अंधकार से मुक्ति प्रदान करता है। ईश के प्रति भक्ति और साई गुरु के चरणों में श्रद्धा..यहीं से तो बनता है, इष्ट से सामीप्य का संयोग।
दैन्यताका नाश करने वाले साई ने स्पष्ट कहा था, एक बार शिरडीकी धरती छू लो, हर कष्ट छूट जाएगा। बाबा के चमत्कारों की चर्चा बहुत होती है, लेकिन स्वयं साई नश्वर संसार और देह को महत्व नहीं देते थे। भक्तों को उन्होंने सांत्वना दी थी, पार्थिव देह न होगी, तब भी तुम मुझे अपने पास पाओगे।
अहंकार से मुक्ति और संपूर्ण समर्पण के बिना साई नहीं मिलते। कृपापुंजबाबा कहते हैं, पहले मेरे पास आओ, खुद को समर्पित करो, फिर देखो..। वैसे भी, जब तक मैं का व्यर्थ भाव नष्ट नहीं होता, प्रभु की कृपा कहां प्राप्त होती है। साई ने भी चेतावनी दी थी, एक बार मेरी ओर देखो, निश्चित-मैं तुम्हारी तरफ देखूंगा।
1854में बाबा शिरडीआए और 1918में देह त्याग दी। चंद दशक में वे सांस्कृतिक-धार्मिक मूल्यों को नई पहचान दे गए। मुस्लिम शासकों के पतन और बर्तानियाहुकूमत की शुरुआत का यह समय सभ्यता के विचलन की वजह बन सकता था, लेकिन साई सांस्कृतिक दूत बनकर सामने आए। जन-जन की पीडा हरी और उन्हें जगाया, प्रेरित किया युद्ध के लिए। युद्ध किसी शासन से नहीं, कुरीतियों से, अंधकार से और हर तरह की गुलामी से भी! यह सब कुछ मानवमात्र में असीमित साहस का संचार करने के उपक्रम की तरह था। हिंदू, पारसी, मुस्लिम, ईसाई और सिख..हर धर्म और पंथ के लोगों ने साई को आदर्श बनाया और बेशक-उनकी राह पर चले।
दरअसल, साई प्रकाश पुंज थे, जिन्होंने धर्म व जाति की खाई में गिरने से लोगों को बचाया और एक छत तले इकट्ठा किया। घोर रूढिवादी समय में अलग-अलग जातियों और वर्गो को सामूहिक प्रार्थना करने और साथ बैठकर चिलम पीने के लिए प्रेरित कर साई ने सामाजिक जागरूकता का भी काम किया। वे दक्षिणा में नकद धनराशि मांगते, ताकि भक्त लोभमुक्तहो सकें। उन्हें चमत्कृत करते, जिससे लोगों की प्रभु के प्रति आस्था दृढ हो। आज साई की नश्वर देह भले न हो, लेकिन प्यार बांटने का उनका संदेश असंख्य भक्तों की शिराओंमें अब तक दौड रहा है।
चण्डीदत्तशुक्ल

वीरता व बलिदान के प्रतीक गुरु


धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इतिहास में ऐसी वीरता और बलिदान कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इतिहासकारों ने इस महान शख्सियत को वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। इतिहासकार लिखते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई। जिस बालक ने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो, क्या संभव है कि वह स्वयं लडने के लिए प्रेरित होगा?
गुरु गोविन्द सिंह को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाडी राजाओं की ईष्र्या पहाड जैसी ऊंची थी, तो दूसरी ओर औरंगजेबकी धार्मिक कट्टरता की आंधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया-आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण करना। जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह लिखते हैं- जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोविन्द सिंह ने 1699ई.में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानिखालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। उन्होंने सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त कर न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उन्होंने स्पष्ट मत व्यक्त किया-मानस की जात सभैएक है।
गुरु नानक देव जी ने जहां विनम्रता और समर्पण पर जोर दिया था, वहीं गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया। समानता के आधार पर स्थापित खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में यदि कुछ था तो समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा।
गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरोरूप है खास, खालसा में हो करो निवास। सेनानायक के रूप में पहाडी राजाओं एवं मुगलों से कई बार संघर्ष किया। युद्ध के मैदान में उनकी उपस्थिति मात्र से सैनिकों में उत्साह एवं स्फूर्ति पैदा हो जाती थी। चण्डी चरित में लिखा सवैया शूरवीरों का मंत्र बन गया था-देह शिवा वर मोहिएहैभुभकरमनतेकबहूंन टरौ,न डरो अरि सो जब जाइलरोनिसचैकर अपनी जीत करो।
जहां शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। उनका विषय तो शान्ति एवं समाज कल्याण था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेबको फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। कुरान की कसम खाकर तूने कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लडाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। गुरु गोविंद सिंह एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने पाउन्टासाहिब के अपने दरबार में 52कवियों को नियुक्त किया था। जफरनामा एवं विचित्र नाटक गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियां हैं। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। इसी भावनाओं का पोषण उन्होंने अपने सिखों में भी किया। सिखों के बीच गुरु गद्दी को लेकर कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खनको हुकम है गुरू मानियहुग्रंथ।
गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।
(सुरजीत सिंह गांधीद्वारा साभार)

Monday, February 22, 2010

रग-रग हिन्दू मेरा परिचय


मै शंकर का वह क्रोधानल,कर सकता जगती क्षार-क्षार.
मै डमरू की वह प्रिय ध्वनि हूँ,जिसमे नाचता भिसन संहार.
रणचंडी की अतृप्त प्यास,मै दुर्गा का उन्मत्त हास.
मै यम की प्रलयंकर पुकार,जलते मरघट का धुआधार.
फिर अंतरतम की ज्वाला से,जगती में आग लगा दूं मै.
गर धधक उठे जल,थल-अम्बर,तो फिर इसमें कैसा विस्मय.
हिन्दू तन मन,हिन्दू जीवन,रग-रग हिन्दू मेरा परिचय.
मै आदि पुरुष निर्भयता का,वरदान लिए आया भू पर.
पय पीकर सब मरते आये,लो अमर हुआ मै विष पीकर.
अधरों की प्यास बुझाई है,मैंने पीकर वो आग प्रखर.
हो जाती दुनिया भास्म्सार,जिसको पल भर में ही छूकर.
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन.
मै नर,नारायण-नीलकंठ,बन गया न इसमें कुछ संसय.
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.
मै अखिल विश्व का गुरु महान,देता विद्या का अमर दान.
मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग,मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान.
मेरे वेदों की ज्योति प्रखर,मेरे वेदों का ज्ञान अमर.
मानव के मन अंधकार,या हो सामने सत्य सहर.
मेरे स्वर नभ में घहर-घहर,सागर के जल में फहर-फहर.
इस कोने से उस कोने तक कर सकता जगती सौरभ मय
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.
मय तेज पुंज तम्लीन जगत में,फैलाया मैंने प्रकाश.
जगती का रच कर के विनाश,कब चाह है खुद का विकाश?
सरणागत की रक्षा की है,मैने अपना जीवन देकर.
विश्वाश अगर नहीं आता तो,साक्षी है इतिहास अमर.
यदि आज बनारस के खंडहर,सदिओं की निद्रा से जगकर.
हुंकार उठे हिन्दू की जय,तो फिर इसमें कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.
दुनिया के वीराने पथ पर,जब-जब नर ने खायी ठोकर.
दो आंशु शेष बचा पाया,जब मानव ने सबकुछ खोकर.
मै आया तभी द्रवित होकर,मै आया ज्ञान दीप लेकर.
भूला भटका मानव पथ पर,चल निकला सोते से जगकर.
पथ के आवर्तों से थक-कर,जब बैठ गया मानव पथ पर.
उस नर को राह दिखाना ही,मेरा सदैव का दृढ़ निश्चय.
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.
मैंने छाती का लहू पिला,पाले विदेश के सृजित लाल.
मुझको मानव में भेद नहीं,मेरा अन्तःस्थल वर विशाल.
जग से ठुकराए लोगों को,लो मेरे घर का खुला द्वार.
अपना हूँ सबकुछ लुटा चूका,फिर भी अक्षय है धनागार.
मेरा हीरा पाकर ज्योतित,परीकिओं का वह राजमुकुट.
इन चरणों पर अगर झुक जाये,कल वह कीरीट तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.
मै वीर पुत्र मेरे जननी के जगती में जौहर अपार.
अकबर के पुत्रों से पूछो,क्या याद उन्हें मीना बाज़ार?
क्या याद उन्हें चितौड दुर्ग में जलने वाली आग प्रखर?
जब हाय सहस्त्रों माताएं,तिल-टिक जलकर हो गयी अमर.
वो बुझने वाली आग नहीं,रग-रग में उसे समाये हूँ.
यदि कभी अचानक फूट पड़े,विप्लव लेकर तो क्या संशय?
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाह,कर लूं सरे जग को गुलाम?
मैंने तो सदा सिखाया है,करना अपने मन को गुलाम.
गोपाल-राम के नमो पर मैंने कब अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने,घर-घर में नरसंहार किया?
कोई बतलाये काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी?
भूभाग नहीं,शत-शत मानव का ह्रदय जितने का निश्चय.
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.
मै एक विन्दु,परिपूर्ण सिन्धु है,यह मेरा हिन्दू समाज.
मेरा इसका सम्बन्ध अमर,मै ब्यक्ति और यह है समाज.
इससे मैंने पाया तन-मन,इससे मैंने पाया जीवन.
मेरा तो बस कर्त्तव्य यही,कर दूं इसको सबकुछ अर्पण.
मै तो समाज की थाती हूँ,मै तो समाज का हूँ सेवक.
मै हिन्दू हित के लिए सदा,कर दूं खुद का बलिदान अभय.
हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,रग रग मेरा हिन्दू परिचय.

भूले पन्नो से.


महसूस हो रहे हैं यादे फ़ना के झोके,
खुलने लगे हैं मुझपर असरार जिन्दगी के,
वारे अलम उठाया रेंज निशात देता,
यूँ ही नहीं हैं छाये अंदाज बहसी के.
वफ़ा में दिल की सदके जान की नज़रे जफा कर दे,
मुहब्बत में ये लाजिम है की जो कुछ हो फ़िदा करदे
बहे बहरे फना में जल्द या रब लाश बिस्मिल की,
की भूखी मछलियाँ है जौहरे शमशीर कातिल की,
ज़रा संभल कर फुकना इसे ई दागे नाकामी
बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजडे हुए दिल से..
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल
(फांसी पे चढ़ने से २४ घंटे पहले का वक्तब्य)

Thursday, February 18, 2010

शरणागत वत्सल थे महर्षि सौभरि


ऋषियों को वेदों ने प्रजापति के अंग-भूत की संज्ञा दी है; उन्हें जन्म से ही सच्चे धर्म का ज्ञान था एवं आचरण भी उसी के अनुरूप होता था। वे त्रिकालदर्शी होते थे। सतयुग के उन्हीं श्रेष्ठ ऋषियों में थे महर्षि सौभरि।ब्रह्मा जी के पौत्र महर्षि घोर के पौत्र ऋषि सौभरिमंत्रद्रष्टामहर्षि कण्व के पुत्र थे। सदैव तपस्या में लीन रहने वाले ऋषि कण्व का रमणीक आश्रम था जहां शिष्यों की शिक्षा-दीक्षा अनवरत चलती रहती थी। उस काल में वृत्तासुरका आतंक संत-महात्माओं के लिए कष्टदायक बना हुआ था। उसने इन्द्र से इन्द्रासन बलपूर्वक छीन लिया था। वृत्तासुरको भस्म करने के लिए इन्द्र ने महर्षि दधीचिसे प्रार्थना की तथा उनकी अस्थियां प्राप्त कर बज्रबनाया और वृत्तासुरको मार दिया। वृत्तासुरके भस्म होने के बाद बज्रसृष्टि को भी अपने तेज से जलाने लगा। इस समाचार को नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा और सृष्टि की रक्षा हेतु निवेदन किया। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि जहां एक ओर बज्रमें नष्ट करने की शक्ति है; तो दूसरी ओर सृजन करने की विलक्षण क्षमता भी है। विष्णु जी ने नारद जी से भूमण्डल पर महर्षि दधीचिके समकक्ष किसी तपस्वी ऋषि का नाम बताने को कहा। नारद ने महर्षि कण्व की प्रशंसा करते हुए उन्हीं का नाम इस हेतु प्रस्तावित किया। भगवान विष्णु महर्षि कण्व के आश्रम पर पहुंचे और बज्रके तेज को ग्रहण करने का आग्रह किया। ऋषिश्रेष्ठने सृष्टि के कल्याण के लिए उस तेज को ग्रहण करना स्वीकार किया। विष्णु भगवान ने कहा कि बज्रका तेज संहारक के साथ-साथ गर्भोत्पादकभी है। कुछ दिनों बाद ऋषि पत्नी गर्भवती हुई। पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई। ये ही आगे चलकर तपोधन महर्षि सौभरिहुए। बालक सौभरिने पिता कण्व से तत्वमसि का ज्ञान प्राप्त किया। ऋषि कण्व ने उन्हें सबका मूल सत् बताया। जगत का ईश्वर हमारी अपनी ही अन्तरात्मा स्वरूप है उसे दूरवर्ती कहना ही नास्तिकताहै। ऋषि ने आगे कहा-वत्स! जगत की अनन्त शक्ति तुम्हारे अन्दर है। मन के कुसंस्कारउसे ढके हैं, उन्हें भगाओ, साहसी बनो, सत्य को समझो और आचरण में ढालो। कण्व पुन:बोले-पुत्र! जैसे समुद्र के जल से वृष्टि हुई वह पानी नदी रूप हो समुद्र में मिल गया। नदियां समुद्र में मिलकर अपने नाम तथा रूप को त्याग देती हैं; ठीक इसी प्रकार जीव भी सत् से निकल कर सत् में ही लीन हो जाता है। सूक्ष्म तत्व सबकी आत्मा है, वह सत् है। वह सत् तू ही है। तत्वमसि तत्वज्ञान प्राप्त कर एवं पिताजीसे आज्ञा प्राप्त कर सबसे मिलकर हर्षित हो सौभरिवनगमन करते हैं।
महर्षि सौभरिसृष्टि के आदि महामान्य महर्षियोंमें हैं। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणीसे ज्ञात होता है कि ब्रह्मा से अंगिरा,अंगिरासे घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरिहुए। इसके अनुसार सौभरिबहुऋचाचार्यमहामहिम ब्रह्मा के पौत्र के पौत्र हुए। मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को इन्होंने जन्म ग्रहण किया। महर्षि सौभरिएक हजार वर्ष तक यमुना हृदजहां ब्रज का कालीदहऔर वृन्दावन का सुनरखवन है, में समाधिस्थ हो तपस्या करते हैं। इन्द्रादिकसमस्त देव उनकी परीक्षा के लिए महर्षि नारद को भेजते हैं। नारद जी भी सौभरिजी के तप एवं ज्ञान से प्रभावित हो वंदन करते हैं तथा सभी देवगण उनका पुष्प वर्षा कर अभिनंदन करते हैं। इधर अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धातावर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे; कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाताके राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरिसे यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरिके यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मानअयोध्यापतिको आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापतिके साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं।
यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये। महर्षि का अपनी तपस्या के अंतर्गत नैतिक नियम था कि आटे की गोलियां बनाकर मछलियों को प्रतिदिन भोज्य प्रदान किया करते थे। शरणागत वत्सल महर्षि सौभरिकी ख्याति भी सर्वत्र पुष्पित थी। विष्णु भगवान का वाहन होने के दर्प में गरुड मछलियों एवं रमणकद्वीप के निवासी कद्रूपुत्र सर्पो को अपना भोजन बनाने लगा। सर्पो ने शेषनाग से अपना दुख सुनाया। शेषनाग जी ने शरणागत वत्सल महर्षि सौभरिकी छत्रछाया में शरण लेने का परामर्श उन्हें दिया। कालियनाग के साथ पीडित सर्प सौभरिजी की शरणागत हुए। मुनिवरने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षीगरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरखस्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरिअहि को वास देने के कारण अहिवासी कहलाये। इस प्रकार उस स्थल में अहि,मछली तथा सभी जीव जन्तु, शान्ति पूर्वक निवास करते रहे। तपस्या करते बहुत काल हो जाने पर भगवान विष्णु एक दिवस सौभरिजी के पास आकर निर्देश देते हैं कि सृष्टि की प्रगति के लिए ऋषि जी गृहस्थ धर्म में प्रवेश करें और इसके लिए नृपश्रेष्ठ मान्धाताके अन्त:पुर की एक कन्या से पाणिग्रहण करें। इच्छा न होने के बावजूद सृष्टि कल्याण के लिए भगवान विष्णु के निर्देशानुसार महर्षि सम्राट मान्धाताके यहां पहुंचे तो उनकी पचासों कन्याओं ने उनको वर बनाने की इच्छा जताई। कन्याओं का पाणिग्रहण वेद रीति से सौभरिके साथ कर दिया तथा अपार दहेज देकर उनके आश्रम अहिवास (सुनरख) को विदा किया। योग माया ने महर्षि के निर्देश पर सभी के लिए अलग-अलग आवासों की व्यवस्था कर दी। महर्षि सौभरिपत्नियों के साथ योग बल से रहते थे। एक दिवस मान्धातापुत्रियों का कुशल-क्षेम जानने महर्षि के आश्रम आये। प्रत्येक पुत्री के प्रासाद में नृपको महर्षि मिलते तथा पुत्री सर्वथा आनन्दित। महर्षि ने राजा को काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार को त्यागने का उपदेश किया। महर्षि सौभरिके गुणवान एवं रूपवानपांच सहस्रपुत्र-पुत्रियां हुए तथा पौत्र-प्रपौत्र भी हुए जो अहिवासीकहलाये। एक दिन महर्षि को लगा कि उनका काम पूरा हो गया है और सभी पत्‍ि‌नयों एवं परिवार को बताकर पुन:तपस्या की ओर बढने की इच्छा हुई।
ऋषि पत्नियों ने भी महर्षि के साथ ही तपस्या में सहयोग करने का आग्रह किया। तपस्या में लीन हो प्रभु दर्शन कर समाधिस्थ हो गए। महर्षि का तपस्थलआज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है जहां मंदिर में महर्षि सौभरिकी पूजा होती है। भक्त उदार मना महर्षि की आराधना कर मनचाहा मनोरथ प्राप्त करते हैं।

Wednesday, February 17, 2010

ललकार गीत


हम डरते नहीं अणु बमों से,बिस्फोटक जलपोतों से.
हम डरते हैं तो ताशकंद-शिमला जैसे समझौतों से.
सियार भेडिए से डर सकते,सिंग्हो की औलाद नहीं,
भारतवंश की इस मिटटी की तुमको है पहचान नहीं.
एटमबम बना कर के तुम,किस्मत पर फूल गए.
पैसठ,इकहत्तर-निन्यानवे के युद्धों को शायद भूल गए.
तुम याद करो अब्दुल हमीद ने पैटर्न टंक जला डाला.
हिन्दुस्तानी नेटो ने अमेरिकी जेट जला डाला.
तुम याद करो ग़ाज़ी का बेडा झटके में डूबा दिया,
ढाका के जनरल मियादी को,दूध छठी का पिला दिया.
तुम याद करो नब्बे हज़ार उन बंदी पाक जवानों को,
तुम याद करो शिमला समझोता,इंदिरा के अहसानों को.
पाकिस्तान ये बात कान खोलकर सुन ले-
अबकी जंग छिड़ी तो नामोनिशान नहीं होगा.
कश्मीर तो होगा,लेकिन पूरा पाकिस्तान नहीं होगा.
लाल कर दिया लहू से तुमने,श्रीनगर की घाटी को.
किस गलफ़त में छेड़ रहे तुम सोयी हल्दीघाटी को.
झूटे बातें बतलाकर तुम कश्मीरी परवानो को.
भय और लालच देकर तुम भेज रहे नादानों को.
अबकी जंग छिड़ी तो चेहरे का खोल बदल देंगे.
इतिहास की क्या हस्ती है पूरा भूगोल बदल देंगे.
धारा हर मोड़ बदल कर लाहौर से गुजरेगी गंगा,
इस्लामाबाद की छाती पर लहराएगा भारत का झंडा.
रावलपिंडी से कराच तक,सब कुछ गारत हो जायेगा.
सिन्धु नदी के आर पार पूरा भारत हो जायेगा.
सदिओं-सदिओं तक फिर जिन्ना जैसा शैतान नहीं होगा.
कश्मीर तो होगा लेकिन पूरा पाकिस्तान नहीं होगा.

Sunday, February 14, 2010

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत: महर्षि दयानंद सरस्वती


महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1975)को गिरगांवबम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणीमात्रके कल्याण के लिए हैं- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वास और रूढियों-बुराइयोंको दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूलवर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धारके पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मांड का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवादके समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूलथे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं तथा फल भोगने में परतंत्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय 1878में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमरग्रंथसत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षणरथे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रांति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा संबंधी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूलहै। महर्षि दयानंद समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्तमें राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति,मिथ्याभाषावादि,कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्षतथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृतिऔर स्वदेशोन्नतिका वह अग्रदूत सन् 1883में दीपावली के दिन इस असार संसार से चला गया तथा अपने पीछे छोड गया एक सिद्धांत, कृष्णवंतोंविश्वमार्यम्सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ उनके अन्तिम शब्द थे-प्रभु तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।
डा. धर्मपाल आर्य महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1975)को गिरगांवबम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणीमात्रके कल्याण के लिए हैं- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वास और रूढियों-बुराइयोंको दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूलवर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धारके पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मांड का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवादके समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूलथे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं तथा फल भोगने में परतंत्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय 1878में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमरग्रंथसत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षणरथे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रांति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा संबंधी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूलहै। महर्षि दयानंद समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्तमें राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति,मिथ्याभाषावादि,कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्षतथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृतिऔर स्वदेशोन्नतिका वह अग्रदूत सन् 1883में दीपावली के दिन इस असार संसार से चला गया तथा अपने पीछे छोड गया एक सिद्धांत, कृष्णवंतोंविश्वमार्यम्सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ उनके अन्तिम शब्द थे-प्रभु तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।
डा. धर्मपाल आर्य महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1975)को गिरगांवबम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणीमात्रके कल्याण के लिए हैं- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वास और रूढियों-बुराइयोंको दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूलवर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धारके पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मांड का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवादके समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूलथे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं तथा फल भोगने में परतंत्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय 1878में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमरग्रंथसत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षणरथे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रांति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा संबंधी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूलहै। महर्षि दयानंद समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्तमें राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति,मिथ्याभाषावादि,कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्षतथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृतिऔर स्वदेशोन्नतिका वह अग्रदूत सन् 1883में दीपावली के दिन इस असार संसार से चला गया तथा अपने पीछे छोड गया एक सिद्धांत, कृष्णवंतोंविश्वमार्यम्सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ उनके अन्तिम शब्द थे-प्रभु तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।
(डा. धर्मपाल आर्य द्वारा साभार)

Saturday, February 13, 2010

शोषक


जो पीकर खून पलते हैं,वो हमको प्यार क्या देंगे?
ये शोषक देश के उत्थान को अधर क्या देंगे?
गरीबों की कमाई प्यालिओं में ढलने वाले,
शहीदों के कफ़न को बेच जीवन पलने वाले,
न्याय को बेचने वाले,वतन को बेचने वाले,
भगत सिंह चंद्रशेखर के चमन को बेचने वाले,
जो आदर्शों की नौका को डुबो देने में माहिर हैं,
तूफा में देश की नौका को वे पतवार क्या देंगे?
जो पीकर खून पलते हैं,वो हमको प्यार क्या देंगे?
देशभक्ति पर बोलते,पर पेट में है पाप इनके,
आवरण में सफेदी,जनविरोधी माप इनके,
सभाओं में शहीदों के लिए आशुं बहते हैं.
मगर पीछे उनका नाम बेचकर दाम खाते हैं.
विषधर देश को पवन सुधा भंडार क्या देंगे?
जो पीकर खून पलते हैं,वो हमको प्यार क्या देंगे?
ग्रहण कर उच्च शिक्षा फिर भी छोटे कम करते हैं.
अपावन काम से शिक्षा को भी ये बदनाम करते हैं.
फटे हालों गरीबों से भी ये सब घूस लेते हैं.
ये कुत्ते हैं,हबिस में हड्डियाँ तक चूस लेते हैं.
प्रशाशन और जनता को ये सद्व्यवहार क्या देंगे?
जो पीकर खून पलते हैं,वो हमको प्यार क्या देंगे?

-राहुल पंडित

Thursday, February 11, 2010

भगवन्नाम के अमर प्रचारक चैतन्य महाप्रभु


श्रीकृष्ण चैतन्यदेवका पृथ्वी पर अवतरण विक्रम संवत् 1542(सन् 1486ई.) के फाल्गुन मास की पूíणमा को संध्याकाल में चन्द्र-ग्रहण के समय सिंह-लग्न में बंगाल के नवद्वीपनामक ग्राम में भगवन्नाम-संकीर्तनकी महिमा स्थापित करने के लिए हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ तथा माता का नाम शची देवी था।
पतितपावनीगंगा के तट पर स्थित नवद्वीपमें श्रीचैतन्यमहाप्रभु के जन्म के समय चन्द्रमा को ग्रहण लगने के कारण बहुत से लोग शुद्धि की कामना से श्रीहरिका नाम लेते हुए गंगा-स्नान करने जा रहे थे। पण्डितों ने जन्मकुण्डली के ग्रहों की समीक्षा तथा जन्म के समय उपस्थित उपर्युक्त शकुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की-इस बालक ने जन्म लेते ही सबसे श्रीहरिनामका कीर्तन कराया है अत:यह स्वयं अतुलनीय भगवन्नाम-प्रचारकहोगा।
वैष्णव इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस संदर्भ में कुछ शास्त्रीय प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। देवीपुराण-भगवन्नामही सब कुछ है। इस सिद्धांत को प्रकाशित करने के लिए श्रीकृष्ण भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से प्रकट होंगे। गंगा के किनारे नवद्वीपग्राम में वे ब्राह्मण के घर में जन्म लेंगे। जीवों के कल्याणार्थ भक्ति-योग को प्रकाशित करने हेतु स्वयं श्रीकृष्ण ही संन्यासी वेश में श्रीचैतन्य नाम से अवतरित होंगे। गरुडपुराण-कलियुग के प्रथम चरण में श्रीजगन्नाथजीके समीप भगवान श्रीकृष्ण गौर-रूप में गंगाजीके किनारे परम दयालु कीर्तन करने वाले गौराङ्ग नाम से प्रकट होंगे। मत्स्यपुराण-कलियुगमें गंगाजीके तट पर श्रीहरिदयालु कीर्तनशीलगौर-रूप धारण करेंगे। ब्रह्मयामल-कलियुग की शुरुआत में हरिनाम का प्रचार करने के लिए जनार्दन शची देवी के गर्भ से नवद्वीपमें प्रकट होंगे। वस्तुत:जीवों की मुक्ति और भगवन्नामके प्रसार हेतु श्रीकृष्ण का ही चैतन्य नाम से आविर्भाव होगा।
विक्रम संवत् 1566में मात्र 24वर्ष की अवस्था में श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास ले लिया। इनके गुरु का नाम श्रीकेशवभारती था। संन्यास लेने के उपरान्त श्रीगौरांग(श्रीचैतन्य)महाप्रभु जब पुरी पहुंचे तो वहां जगन्नाथजीका दर्शन करके वे इतना आत्मविभोर हो गए कि प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य व कीर्तन करते हुए मन्दिर में मूíच्छत हो गए। संयोगवश वहां प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य उपस्थित थे। वे महाप्रभु की अपूर्व प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। वहां शास्त्र-चर्चा होने पर जब सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौरने ज्ञान के ऊपर भक्ति की महत्ता स्थापित करके उन्हें अपने षड्भुजरूपका दर्शन कराया। सार्वभौम गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने जिन 100श्लोकों से श्रीगौरकी स्तुति की थी, वह रचना चैतन्यशतक नाम से विख्यात है।
विक्रम संवत् 1572(सन् 1515ई.) में विजयादशमी के दिन चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवृन्दावनधामके निमित्त पुरी से प्रस्थान किया। श्रीगौरांगसडक को छोडकर निर्जन वन के मार्ग से चले। हिंसक पशुओं से भरे जंगल में महाप्रभु श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए निर्भय होकर जा रहे थे। पशु-पक्षी प्रभु के नाम-संकीर्तन से उन्मत्त होकर उनके साथ ही नृत्य करने लगते थे। एक बार श्रीचैतन्यदेवका पैर रास्ते में सोते हुए बाघ पर पड गया। महाप्रभु ने हरे कृष्ण हरे कृष्ण नाम-मन्त्र बोला। बाघ उठकर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहकर नाचने लगा। एक दिन गौरांग प्रभु नदी में स्नान कर रहे थे कि मतवाले जंगली हाथियों का एक झुंड वहां आ गया। महाप्रभु ने कृष्ण-कृष्ण कहकर उन पर जल के छींटे मारे तो वे सब हाथी भी भगवन्नामबोलते हुए नृत्य करने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य श्रीचैतन्यदेवकी ये अलौकिक लीलाएं देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। काíतक पूíणमा को श्रीमहाप्रभुवृन्दावन पहुंचे। वहां आज भी प्रतिवर्ष काíतक पूíणमा को श्रीचैतन्यदेवका वृन्दावन-आगमनोत्सव मनाया जाता है। वृन्दावन के माहात्म्य को उजागर करने तथा इस परमपावनतीर्थ को उसके वर्तमान स्वरूप तक ले जाने का बहुत कुछ श्रेय श्रीचैतन्यमहाप्रभु के शिष्यों को ही जाता है।
एक बार श्रीअद्वैतप्रभुके अनुरोध पर श्रीगौरांगमहाप्रभु ने उन्हें अपने उस महामहिमामयविश्वरूप का दर्शन कराया, जिसे द्वापरयुगमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय दिखाया था। श्रीनित्यानन्दप्रभुकी मनोभिलाषाथी कि उन्हें श्रीकृष्णचैतन्यदेवके परम ऐश्वर्यवान विराट स्वरूप का दर्शन प्राप्त हो। महाप्रभु ने उनको अपने अनन्त ब्रह्माण्डरूपीदिव्य रूप का साक्षात्कार करवाया। माता शचीदेवीने इनको श्रीकृष्णरूपमें देखा था। वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानन्दसरस्वती जैसे वेदान्ती भी इनके सत्संग से श्रीकृष्णनाम-प्रेमीबनकर भगवन्नामका संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु की सामीप्यता से बडे-बडे दुराचारी भी सन्त हो गए। इनके स्पर्श से अनेक असाध्य रोगी ठीक हो गए। श्रीगौरांगअवतार की श्रेष्ठता के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ हैं। इनमें श्रीचैतन्यचरितामृत, श्रीचैतन्यभागवत, श्रीचैतन्यमंगल, अमिय निमाइचरितआदि विशेष रूप से पठनीय हैं। महाप्रभु की स्तुति में अनेक महाकाव्य भी लिखे गए हैं।
द्वापरयुगमें श्रीकृष्ण और राधा ने पृथक देह धारण करके श्रीवृन्दावनधाममें लीलाएं की थीं। एक दूसरे के सौन्दर्य-माधुर्य को बढाते हुए प्रिया-प्रियतम ने स्थावर-जंगम सबको आनन्द दिया। यह ध्यान रहे कि प्रेम के विषय श्रीकृष्ण हैं परन्तु प्रेम का आश्रय राधाजीहैं। परस्पर एकात्माहोते हुए भी वे दोनों सामान्य प्राणियों को दो भिन्न स्वरूप लगे। श्रीकृष्ण को राधा के प्रेम, अपने स्वरूप के माधुर्य तथा राधा के सुख को जानने की इच्छा हुई। श्रीकृष्ण के मन में आया कि जैसे मेरा नाम लेकर राधा भाव-विह्वल होती हैं, वैसे मैं भी अपने नाम-रस की मधुरिमा का आस्वादन करूंगा। मैं जब राधा-भाव ग्रहण करूंगा, तभी मुझे राधा के प्रेम का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सकेगा। अस्तु राधा-भाव को अंगीकार करने के लिए ही श्रीगौरांगका अवतार हुआ था।
श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने 32अक्षरों वाले तारकब्रह्महरिनाम महामन्त्र को कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
कलिपावनावतार, प्रेममूíत,भावनिधिश्रीगौरांगदेवके उपदेशों का सार यह है-मनुष्य को निज कुल, विद्या, रूप, जाति और धनादिके अहंकार को त्यागकर सर्वस्व समर्पण के भाव से भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करना चाहिए। अन्त:करण की शुद्धि का यह सबसे सरल व सर्वोत्तम उपाय है। भक्त कीर्तन करते समय भगवत्प्रेममें इतना मग्न हो जाएं कि उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओंकी धारा बहने लगे, उसकी वाणी गदगद और शरीर पुलकित हो जाए। भगवन्नामके उच्चारण में देश-काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी संपूर्ण शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। भगवान का नाम स्वयं भगवान के ही तुल्य है। नाम, विग्रह, स्वरूप-तीनों एक हैं, अत:इनमें भेद न करें। नाम नामी को खींच लाता है। कलियुग में मुक्ति भगवन्नामके जप से प्राप्त होगी।
WITH THANKS-
डा. अतुल टण्डन

Tuesday, February 9, 2010

हम पथिक कंटीली राहों के

हम पथिक कंटीली राहों के,फूलों पर चलना क्या जाने?
जिसने अरुणोदय देखे हो,संध्या का ढलना क्या जाने?
हम देश प्रेम के मतवाले, भिड़ते हैं तरल तरंगो से,
गौरव मद अविरल टपक रहा,जीवन के अंग प्रयत्नों से.
जिसने सूरभोग पिलाए हो वह जहर उगलना क्या जाने?
हम पथिक.................................................
हम लहराने ही आये हैं,जग में भगवा लहरायेंगे,
जीवन की आहुति देकर भी,वेदों के मंत्र सुनायेंगे.
जो स्वयं प्रीटी पथ अनुयायी,इर्ष्या में जलना क्या जाने?
हम..................................................
हम शिवी दाधीच के वंसज हैं,परहित में मिटने जाते हैं,
ले मधुर प्रीति की अभिलाषा,बम बम का अलख जागते हैं.
जो हरदम ही मुस्काएं हो,घुट घुट कर जीना क्या जाने?
हम..................................................
-राहुल पंडित

सच्चा आध्यात्मिक नायक स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के एक क्रांतिकारी संत हुए हैं। 12जनवरी, 1863को कलकत्ता में जन्मे इस युवा संन्यासी के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था। इन्होंने अपने बचपन में ही परमात्मा को जानने की तीव्र जिज्ञासावशतलाश आरंभ कर दी। इसी क्रम में सन् 1881में प्रथम बार रामकृष्ण परमहंस से भेंट की और उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया तथा अध्यात्म-यात्रा पर चल पडे। काली मां के अनन्य भक्त स्वामी विवेकानंद ने आगे चलकर अद्वैत वेदांत के आधार पर सारे जगत को आत्म-रूप जताया और कहा कि आत्मा को हम देख नहीं सकते किंतु अनुभव कर सकते हैं। यह आत्मा जगत के सर्वाश में व्याप्त है। सारे जगत का जन्म उसी से होता है, फिर वह उसी में विलीन हो जाता है। उन्होंने धर्म को मनुष्य, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए स्वीकार किया और कहा कि धर्म मनुष्य के लिए है,मनुष्य धर्म के लिए नहीं। भारतीय जन के लिए, विशेषकर युवाओं के लिए उन का नारा था -उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक रुको मत।

31मई, 1883को वह अमेरिका गए।

11सितंबर, 1883में शिकागोके विश्व धर्म सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने संबोधन में सबको भाइयो और बहनोकह कर संबोधित किया।

इस आत्मीय संबोधन पर मुग्ध होकर सब बडी देर तक तालियां बजाते रहे। वहीं उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का डंका बजाया, उनका कहना था कि आत्मा से पृथक करके जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करते हैं, तो उसका फल शोक या दु:ख होता है।

अत:हमें सभी वस्तुओं का उपयोग उन्हें आत्मा के अंतर्गत मान कर करना चाहिए या आत्म-स्वरूप मान कर करना चाहिए ताकि हमें कष्ट या दु:ख न हो। अमेरिका में चार वर्ष रहकर वह धर्म-प्रचार करते रहे तथा 1887में भारत लौट आए। फिर बाद में 18नवंबर,1896 को लंदन में अपने एक व्याख्यान में कहा था, मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है।

उनका स्पष्ट संकेत अंग्रेजों के लिए था, किंतु आज यह कथन भारतीय समाज के लिए भी कितना अधिक सत्य सिद्ध हो रहा है? स्वामी विवेकानंद ने धर्म को मात्र कर्मकांड की निर्जीव क्रियाओं से निकाल कर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में लगाने पर बल दिया। वह सच्चे मानवतावादी संत थे। अत:उन्होंने मनुष्य और उसके उत्थान और कल्याण को सर्वोपरि माना। इस धरातल पर सभी मानवों और उनके विश्वासों का महत्व देते हुए धार्मिक जड सिद्धांतों तथा सांप्रदायिक भेदभाव को मिटाने के आग्रह किए।

युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो ताकि स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों में बताए आदर्शो में आचरण कर सको। आज जरूरत है ताकत और आत्म विश्वास की, आप में होनी चाहिए फौलादी शक्ति और अदम्य मनोबल।

विवेकानंद ने शिक्षा को अध्यात्म से जोड कर कहा कि जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र बने, मानसिक बल बढे, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खडा हो सके।

पराधीन भारतीय समाज को उन्होंने स्वार्थ, प्रमाद व कायरता की नींद से झकझोर कर जगाया और कहा कि मैं एक हजार बार सहर्ष नरक में जाने को तैयार हूं यदि इससे अपने देशवासियों का जीवन-स्तर थोडा-सा भी उठा सकूं।

इस प्रकार एक सच्चे भारतीय संत की मर्यादा के अनुरूप स्वामी विवेकानंद ने अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी तथा भूख से लडने के लिए अपने समाज को तैयार किया तो राष्ट्रीय चेतना जगाने, सांप्रदायिकता मिटाने, मानवतावादी संवेदनशील समाज बनाने की एक आध्यात्मिक नायक की भूमिका निभाते हुए 4जुलाई सन् 1902में कुल 39वर्ष की आयु में अपनी इहलीला समाप्त की।

(डा. बलदेव वंशी द्वारा साभार)

Sunday, February 7, 2010

सोच:बनारस के बारे में


कभी-कभी ऐसा होता है की एक ही बात को दो लोगों से अलग-अलग तरह से सुनकर हमारे दिल में कुछ अजीब सा लगने लगता है.नौकरी पेशा आदमी हूँ.ऑफिस के रश्ते में एक अंकल महोदय मिले.बातचीत चलने लगी.उन्होंने पुछा कहाँ के रहने वाले हो बेटा?
"बनारस से."
"अरे बड़ी पवित्र भूमि को लाल हो.दिल खुश हो गया मिल कर.लोग काशी में जाने को तरश्ते हैं और आप वहीँ से २२ साल रह कर आए हो."
दिल बाग़-बाग़ हो गया.बनारस के बारे में लोगों की ऐसी सोच है.
उसी दिन मेरा ये भ्रम टूट गया.
ऑफिस में मेरे सर (हमारे मेनेजर) ने अचानक पूछ दिया.
"राहुल तुम कहाँ के रहने वाले हो.हमेशा धार्मिक बातें ही करते हो."
"सर बनारस से."
मई तो सोच रहा था की अंकल की तरह ये बनारस को काशी,पवित्र भूमि के नामो से संबोधित करके उसकी महानता के पुल बढ़ेंगे.लेकिन यहाँ तो ठीक उल्टा हुआ.
"अरे,बनारस.वहां के तो ठग प्रसिद्ध हैं न.कहीं तुम उनमे से तो नहीं?"
और तहाके लगाने लगे.दिल को थेश लगा.मै क्या बोलता?दिल दुखी हो गया.इसलिए नहीं के मुझपर ठग होने का शक किए अपितु इसलिए की बनारस के बारे में दो अलग-अलग लोगों की सोचें कितनी अलग हैं.
छाती इन्द्रिय ने काम किया.
मै बोला.
"सर देखी अपना-अपना नजरिया होता है.एक चीज़ को लोग अपने अपने नजरिए से देखते हैं.
एक साहित्य प्रेमी बनारस को मुंशी प्रेमचंद,जयशंकर प्रसाद की जन्मभूमि और कर्म भूमि के रूप में देखता है,तो एक क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आजाद और रानी लक्ष्मीबाई के जन्मभूमि के रूप में.कला प्रेमी के लिए यह उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का बनारस है तो एक इमानदार राजनेता के लिए लालबहादुर शाश्त्री जी की जन्मभूमि.हिन्दुओं के लिए द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक विश्वेश्वर महादेव का कृपा स्थल,जैनों के लिए तीर्थंकर चंद्रप्रभु और पार्श्वनाथ की जन्मभूमि और बौद्धों के लिए भगवन बुद्ध का प्रथम उपदेश स्थल.और एक ठग के लिए..."
मेरा इतना ही कहना था....
पता नहीं उनको क्यूँ बुरा लग गया...
हमेशा मेरे पीछे पड़े हुए हैं....
कुछ गलत कहा था दोस्तों?
आप ही बताओ...........

काशी के सचल विश्वनाथ श्रीतैलंग स्वामी


श्रीतैलंगस्वामी अध्यात्म जगत की ऐसी अतिविशिष्ट विभूति हैं, जिनकी तुलना किसी अन्य से कर पाना संभव नहीं लगता। ये एक परमसिद्धयोगी और जीवन्मुक्त पुरुष थे। इन महापुरुष का जन्म दक्षिण भारत के एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में सन् 1607ई. के जनवरी माह में पौष-शुक्ल-एकादशीके पावन दिन हुआ था। इनके पिता नृसिंहधरऔर माता विद्यावती देवी नि:संतान होने के कारण बहुत दु:खी व चिंतित रहते थे। पुत्र-प्राप्ति की कामना से उन दोनों ने गौरीशंकर की आराधना एवं ब्राह्मणों की सेवा बडी श्रद्धा से की। स्वामीजीका आविर्भाव इसी के फलस्वरूप हुआ। पिता ने नामकरण किया तैलंगधर। माता विद्यावती ने एक दिन शिवार्चन करते समय देखा कि शिवलिंगसे एक दिव्य ज्योति निकल कर उनके पुत्र में समाविष्ट हो गई। इससे प्रभावित होकर मां ने इनका नाम शिवराम रख दिया।

बचपन से ही इनमें सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य तथा अध्यात्म की ओर प्रवृत्ति थी। युवावस्था आते-आते भौतिकता से इनकी उदासीनता स्पष्ट दिखलाई पडने लगी। माता-पिता ने तैलंगधरको विवाह के बंधन में बांधना चाहा, लेकिन इन्होंने वैराग्य की अति तीव्र भावना के कारण इसकी सम्मति नहीं दी। तैलंगधरजब 40वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहावसान हो गया। वे अपनी माता की सेवा करते हुए ईश्वर के चिंतन में निमग्न हो गए। 52वर्ष की अवस्था में माताश्री का स्वर्गवास हो जाने पर ये सांसारिक दायित्वों से पूरी तरह मुक्त हो गए। जिस श्मशान में माता का दाह-संस्कार हुआ था, उसी निर्जन स्थान पर वे रहने लगे। उनके अनुज श्रीधर ने उन्हें घर वापस लाने का बहुत प्रयास किया किन्तु तैलंगधरन माने। तब श्रीधर ने अपने बडे भाई के लिए वहां एक कुटी बनवा दी। तैलंगधरने वहाँ 20वर्ष तक अत्यन्त कठोर साधना की। सन् 1679में इनकी भेंट स्वामी भगीरथानन्दसरस्वती नामक महायोगीसे हुई, जिनके साथ वे राजस्थान के सुप्रसिद्ध तीर्थ पुष्कर आ गए। वहीं पर भगीरथानन्दने सन् 1685ई.में इन्हें दीक्षा दी और इनका नाम गणपति स्वामी हो गया। 10वर्षो तक गुरु-शिष्य दोनों ने पुष्कर में एक साथ तप किया। सन् 1695ई. में गुरु के देह त्याग देने के दो वर्ष बाद वे तीर्थाटन के लिए निकल पडे। सन् 1697ई. में रामेश्वर की दर्शन-यात्रा में जब इन्होंने एक मृत ब्राह्मण को पुन:जीवित कर दिया तब लोगों ने पहली बार इनकी अलौकिक शक्ति का साक्षात्कार किया। वहाँ से कांजीवरम,कांचीपुरम,शिवकाशी,नासिक होकर सन् 1699ई. में वे सुदामापुरीपहुंचे। वहां इनकी सेवा में रत निर्धन-निपुत्र ब्राह्मण के धनवान-पुत्रवान हो जाने पर इनकी ख्याति चारों ओर फैल गई। दर्शनार्थियोंकी भीड के कारण साधना में विघ्न उपस्थित होता देखकर वे यहां से चल पडे। सन् 1701ई. में प्रभास क्षेत्र से द्वारकापुरीहोकर वे नेपाल पहुंच गए और वहां एक वन में योग-साधना करने लगे। नेपाल-नरेश इनका दर्शन करने आए और इनके भक्त बन गए। लोगों की भारी संख्या में एकत्रित होता देख वे यहां से भी प्रस्थान करके सन् 1707ई. में भीमरथीतीर्थ पहुंचे। वहां श्रृंगेरीमठ के स्वामी विद्यानन्दसरस्वती से इन्होंने संन्यास की दीक्षा ली। भीमरथीसे उत्तराखंड जाते समय वे केदारनाथ, बदरिकाश्रम,गुप्तकाशी,त्रियोगीनारायणआदि स्थानों पर भी इन्होंने तपस्या की।

उनके जैसे सिद्ध पुरुष के लिए कहीं पहुंच जाना असंभव न था। उनकी गति पृथ्वी के अतिरिक्त जल और वायु में भी थी। वे इच्छामात्रसे किसी भी स्थान पर पहुंच सकने में समर्थ थे। सन् 1710ई. में स्वामीजीमानसरोवर चले गए और वहां वे दीर्घकाल तक साधनारतरहे। यहां एक विधवा की प्रार्थना पर उसके मृत पुत्र के शरीर को स्पर्श करके स्वामी जी ने उसे पुनर्जीवित कर दिया। सन् 1726ई. में स्वामी जी नर्मदा के तट पर स्थित मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में आकर रहने लगे। वहां के सुप्रसिद्ध संत खाकी बाबा और अन्य लोगों ने देखा कि स्वामी जी के द्वारा पूजन करते समय नर्मदा में दूध प्रवाहित होने लगता था। सन् 1733ई. में स्वामी जी तीर्थराज प्रयाग आ गए और वहां एकांत में साधनालीनहो गए। यहां उन्होंने यात्रियों से खचाखच भरी एक नाव को अपनी यौगिक शक्ति से गंगाजीमें डूबने से बचाया।

प्रयागराज में 4वर्ष रहने के उपरांत सन् 1737ई. में तैलंगस्वामीकाशी पधारे और यहीं 150वर्ष तक रहे। वाराणसी में स्वामीजीअस्सी घाट, हनुमान घाट और दशाश्वमेधघाट आदि स्थानों पर रहने के बाद सन् 1800ई. में पंचगंगाघाट पर आकर बिंदुमाधवजी के मंदिर में रहने लगे। वहीं पास में एक महाराष्ट्रीयनब्राह्मण मंगलदासभट्ट एक कोठी में रहते थे। वे नित्य गंगा-स्नान करके बाबा विश्वनाथ जी की पूजा करने के बाद ही घर लौटते थे। मंगलदासप्रतिदिन यह देखकर बडे आश्चर्यचकित होते थे, कि जो माला उन्होंने श्रीकाशीविश्वनाथको चढाई थी, वही स्वामीजीके गले में पडी हुई है। कई बार परीक्षा करने पर भट्टजीयह जान गए कि स्वामी जी साक्षात् शिव-स्वरूप हैं। वे अनुनय-विनय करके स्वामी जी को अपनी कोठी में ले आए। स्वामीजीसदा खुले आसमान के नीचे रहते थे अत:कोठी के आंगन में बेदीबनाकर उसपरउनके रहने की व्यवस्था की गई। कालांतर में यह स्थान तैलंगस्वामीके मठ के नाम से विख्यात हो गया। तैलंगस्वामीदिगम्बरावस्थामें रहते थे। एक स्त्री अपने पति के स्वस्थ होने की कामना से प्रतिदिन जब बाबा विश्वनाथ के दर्शन-पूजन हेतु जाती थी, तब वह रास्ते में स्वामी जी को देखकर अपशब्द कह देती थी। एक रात श्रीकाशीविश्वनाथने उससे स्वप्न में कहा- तुम उस स्वामी की अवहेलना और अपमान मत करो। वे ही तुम्हारे पति को ठीक करेंगे। स्वामी जी का वास्तविक परिचय प्राप्त होते ही उस स्त्री के मन में उनके प्रति श्रद्धा की भावना जाग उठी। तैलंगस्वामीके द्वारा प्रदत्त भस्म लगाने से उसका पति रोग-मुक्त हो गया। इस प्रकार स्वामीजीने न जाने कितने लोगों को रोग-शोक, कष्ट-संताप और संकटों से मुक्त करके नवजीवन प्रदान किया। वे अत्यन्त उदार और परोपकारी थे। एक बार उज्जैनके महाराजा जब काशी की गंगा में नौका-विहार कर रहे थे, तब उन्होंने स्वामीजीको गंगाजीपर आसन जमाए देखा। श्रीरामकृष्णपरमहंस ने जब उन्हें भीषण गर्मी में तपती रेत पर लेटे देखा, तो वे स्वयं खीर बनाकर लाए और स्वामीजीको उसका भोग लगाया। परमहंसदेवउनकी दिव्यता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तैलंगस्वामीको सचल विश्वनाथ का नाम दे दिया। एक अंग्रेज अफसर ने वस्त्रहीनरहने के कारण इन्हें हवालात में बंद कर दिया किन्तु दूसरे दिन सबेरे यह देखा गया कि हवालात का ताला तो बंद है लेकिन स्वामी जी हँसते हुए बाहर टहल रहे हैं। श्रीतैलंगस्वामीके चमत्कारों को देखकर लोग दंग रह जाते थे। भारतीय योग और अध्यात्म की पताका चारों तरफ लहरा कर सन् 1887ई. में 280वर्ष पृथ्वी पर लीला करने के उपरांत अपनी जन्मतिथि पौष-शुक्ल-एकादशीके दिन ही काशी के ये सचल विश्वनाथ ब्रह्मलीन हो गए और पीछे छोड गए अपने सद्गुणों और योग-शक्ति का प्रकाश, जो हमें आज भी ईश्वर और धर्म से जुडने की प्रेरणा दे रहा है।