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अगरहो प्यार के मौसम तो हमभी प्यार लिखेगें,खनकतीरेशमी पाजेबकी झंकारलिखेंगे

मगर जब खून से खेले मजहबीताकतें तब हम,पिलाकर लेखनीको खून हम अंगारलिखेगें

Saturday, October 30, 2010

नमन है




आन बान शान और स्वाभिमान की मशाल जलिया वाला बाग के शिकारों को नमन है
शांति अंहिंसा के हथियारों को नमन और क्रांति के गगन के सितारों को नमन है
तो बलदानी स्वरों की पुकारो को नमन और लाला जी के पीठ के प्रहारों को नमन है
तुम मुझे खून दो और मै तुमे आज़ादी दूंगा दिल्ली चलो वाली ललकारों को नमन है
जश्ने आज़ादी आवो मिल के मनाये सभी चाहे होली खेलिए दिवाली भी मनाईये
मंदिरों कि आरती या मस्जिदों कि हो अजान चाहे एईद पैर सब को गले लगाईये
बेटे बटियों कि या फिर दौलत कि चाह यारो ख्वाब इन आँखों में हजारो आप सजायिये
कुर्बानियों से जिनकी ये बस्तियां आबाद शहीदों कि याद नहीं दिल से भुलाइये
आन बान शान और स्वाभिमान कि मशाल क्रांति चेतना कि अंगड़ाई को नमन है
काल के कराल भाल जिस पे तिलक किया उस पुण्य लहू कि ललाई को नमन है
तो झाँसी राज्य वंश कि कमाई को नमन और अमर स्वरों कि शहनाई को नमन है
और चिड़िया कि बाज़ से लड़ाई को नमन रानी लक्ष्मी बाई शौर्य तरुणाई को नमन है
पञ्च प्यारे और बंदा बैरागी की शहादत गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणी को नमन है
कंधार की रण भूमि में जो देश हित लड़े नौजवान बेटो की जवानी को नमन है
सर हिंद की दिवार में जो जिन्दा चुने गए उन वीर पुत्रो की निशानी को नमन है
एक को लडावो सवा लाख से था उद्घोष गोविन्द की पावन कहानी को नमन है
गुरु तेग बहादुर को शत शत नमन !!!!
(हर-हर महादेव
(एक देशभक्त की रचना)

Friday, October 29, 2010

कुछ भूले विसरे पन्ने से:हिंदुत्व के वे योद्धा जिन्हें हम भूल गए.-३

जैसा की मैंने आपको अपने पिछले पोस्टों में हिंदुत्व के पांच महान योद्धावों/वीरांगनाओं की जानकारी दी.उसी सीरीज का यह तीसरा पोस्ट उन ब्लोगर मित्रों को समर्पित जो अपने राष्ट्र की पुरातन परम्पराओं को जीवीत रखने के लिए कलम और इन्टरनेट के माध्यम से हमारी सुप्त चेतना को जगाने का काम कर रहे हैं...


त्याग की देवी रुद्रमाम्बा


मित्रो, वह युगाब्द 4425 ( सन्‌ 1323 ) की जन्माष्टमी का दिन था। कर्णाटक राज्य की राजधानी द्वारसमुद्र में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। कर्णाटक नरेश बल्लाल देव यह उत्सव दूसरी ही तरह मना रहे थे। उस समय उत्तरी भारत आक्रमणकारी सुल्तानों से पदाक्रान्त हो रहा था। कुछ वर्षों पहले अलाउद्दीन खिलजी का एक सरदार मलिक काफ़ूर दक्षिण में भयंकर तबाही कर गया था। गयासुद्दीन तुगलक के सिपहसालार जूना खाँ ने उस समय भी वारंगल को घेर रखा था। देश में आए उस भीषण संकट के समय भी बल्लाल देव को चक्रवर्ती बनने की धुन सवार थी। पाँच राज्यों को वह अब तक जीत चुका था मदुरा और वारंगल उसके अगले निशाने थे। सात राजमुकुटों को अपने पैरों में झुकाकर चक्रवर्ती कहलाने की महत्त्वकांक्षा उसके मन में थी। जन्माष्टमी से पहले उसके सेनापति संगमराय मदुरा के पाण्ड्य संघ के प्रमुख सोमैया नायक को बंदी बना लाए थे। उस दिन कर्णाटक के भरे राजदरबार में छठें राजा पर विजय का उत्सव मनाया जा रहा था।

मलिक काफ़ूर से डट कर लोहा लेने वाले तथा आखिर तक विदेशियों से संघर्ष का संकल्प किए वीरवर सोमैया नायक को महिलाओं के वस्त्रा पहनाकर तथा रस्सियों से बाँधकर दरबार में लाया गया था। केवल उनके हाथ खुले थे। नायक को सामने देखकर बल्ला देव के मंत्री ने कहा -
सोमैया नायक अब तुम कर्णाटक के अनुगत हो, अतः पहले हमारे कुलदेवता को और फ़िर होयसलराज को प्रणाम करो, ताकि तुम्हें बधंन मुक्त किया जा सके। वीरश्रेष्ठ सोमैया नायक कुछ उत्तर देते उसके पहले ही उन्हें बन्दी बनाने वाले संगमराय ने होयसलराज बल्लाव देव से निवेदन किया - महाराज यह क्यों ? आपने मुझे वचन दिया था कि नायक सोमैया से वीरों जैसा व्यवहार करेंगे, पर आप तो इनका अपमान कर रहे हैं।
हम वचन पर दृढ़ हैं, संगमराय । लेकिन पराजित को अपनी मर्यादा का भी तो ध्यान होना चाहिए। हमें प्रणाम करना कोई अपमान की बात तो नहीं। बल्लाल देव ने कहा। तभी सभा-भवन में एक जोरदार अट्टहास गूंजा। यह तीखी हँसी सोमैया नायक की थी। आँखें बंद किए खड़े नायक ने जैसे होयसलराज को चुनौती देते हुए कहा, कौन विजयी और कौन पराजित है, बल्लाव देव, पराजित तो यह ध्रती हो रही है। तुरुष्कों के एक के बाद एक आक्रमण हमारी इस मातृभूमि पर हो रहे हैं और अभी तक हम व्यक्तिगत स्वार्थों में ही डूबे हुए हैं, घोर आश्चर्य है।फ़िर संगमराय को संबोधित करते हुए सोमैया नायक ने कहा - फ्वीरवर संगम, इस पूरी सभा में दर्शनीय व्यक्ति एक तू ही है। जा, मेरी चिन्ता मत कर, मेरे भले-बुरे का दायित्व महाकाल पर है, तुझ पर नहीं।संगमराय ने यह सुना तो होयसलराज से कहा - महाराज सोमैया नायक के अपमान का दुष्परिणाम कर्णाटक को भुगतना होगा इसके बाद वे सभा भवन से चल दिए। बल्लाल देव को सोमैया नायक तथा संगमराय की बातों से क्रोध् आ रहा था। रोष में आकर उन्होंने संगमराय को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के पावन अवसर पर कुछ अनहोनी होने लगी थी। जैसे ही कुछ सैनिक संगमराय को बन्दी बनाने के लिए आगे बढ़े, सभा-भवन में मजबूत कदकाठी वाला एक तेजस्वी नौजवान प्रकट हुआ। नागिन की तरह लपलपाती एक विकराल तलवार भी उसके हाथ में थी। पूरी राजसभा संगमराय के पुत्र उस तेजस्वी नवयुवक हरिहर को देखकर स्तब्ध् रह गई। सभा में सिंह-गर्जना करते हुए उसने कहा - सावधन होयसलराज। कुछ करने से पहले उसके परिणामों पर भी विचार कर लीजिए। तुरुष्कों ने हमारे देश के उत्तरी भाग को पद-दलित कर दिया है। दक्षिण पर भी उनके आक्रमण फ़िर से प्रारंभ हो गए हैं। हम यूं ही आपस में लड़ते रहे तो पूरा देश पराधीन हो जाएगा। हमारी संस्कृति को यदि जीवित रखना है तो हमें वीरों का सम्मान करना सीखना होगा।
हरिहर का चुनौतीपूर्ण स्वर सुनकर बल्लाल देव और क्रोधित हो गए। क्रोध् में होंठ चबाते हुए उन्होंने कहा, कौन हो तुम ? कैसे इस सभा-भवन में आ गए ? क्या तुम्हें राज-सभा के व्यवहार का तनिक भी ज्ञान नहीं है ? मैं संगमराय का पुत्र हरिहर हूँ, महाराज। जाति से कुरुब (गड़रिया) हूँ इसलिए राजसभाओं के नियमों को क्या जानूँ। पर आप यादव वंश के सूर्य हैं, बल्लाव देव, इसलिए विनती कर रहा हूँ कि सोमैया नायक को वीरोचित सम्मान के साथ मुक्त कर दें और अपनी तलवार के जौहर तुरुष्कों के विरुद्ध दिखाएं, नौजवान ने उत्तर दिया। तनिक-सा रुक कर हरिहर ने फ़िर कहा - आपको वारंगल ही चाहिए था चक्रवर्ती बनने के लिए, कृष्णा जी नायक आपके लिए वारंगल ले आए हैं। यह कहकर हरिहर ने अपने पीछे खड़े कृष्णा जी को संकेत किया। कृष्णा जी के एक हाथ में तलवार और दूसरे में एक गठरी थी। सभाभवन में आगे आकर उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर किए तो उनकी तलवार से मानों बिजली-सी कौंधने लगी।
होयसलराज मैं आपके लिए वारंगल ले आया हूँ। जानते हैं इस गठरी में क्या है ? देखिए और जरा सावधनी से देखिए, यह कहते हुए उन्होंने तलवार से कपड़ा हटाया तो कृष्णाजी के हाथ में एक कटा हुआ मस्तक दिखाई दिया। सारी राजसभा एकदम से अचंभित और भयग्रस्त हो गई। ऐसी शांति छा गई कि एक सूई भी गिरे तो उसकी आवाज सुनाई दे। कृष्णा जी ने फ़िर कहना शुरु किया - होयसलराज ! यह मस्तक वारंगल के महाराज प्रतापरुद्र का है। तुरुष्कों ने वारंगल को मिट्टी में मिला दिया है। जानते हैं कि यह मस्तक किसने काटा है ? वारंगल की राजमाता रुद्रमाम्बा ने। उनके बूढ़े हाथ अपने पुत्र का मस्तक काटने में जरा भी नहीं काँपे। वारंगल के ध्वस्त होने के पहले राजमाता ने मुझे बुलाया। राजभवन में महाराज प्रतापरुद्र बैठे थे। पास में राजमाता हाथ में तलवार लिए खड़ी थीं। बल्लाव देव! जानते हैं राजमाता ने क्या कहा ?
राजसभा में उस समय उत्तर देने की स्थिति में तो कोई था ही नहीं। सभी पत्थर की मूर्ति बने कृष्णाजी नायक की अद्भुत गाथा को सुन रहे थे। कृष्णा जी ने कहना जारी रखा। राजमाता रुद्रमाम्ब ने मुझसे कहा - श्रीकृष्ण जी, तुरुष्कों से लड़ते हुए हमारे सभी सैनिक मारे गए, कभी भी वारंगल का पतन हो सकता है, जानता है मैंने तुझे क्यों बचा रखा है, इसलिए कि तू अब वारंगल से निकल सके। जा बेटा तूपफान की गति से जाकर होयसलराज को मेरा संदेश दे देना यह कहकर राजमाता ने महाराज प्रतापरुद्र की ओर देखा। महाराज ने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया। तब राजमाता ने तलवार के एक वार से महाराज का मस्तक काट लिया और मुझे देते हुए कहा - यादव कुल बसंत बल्लाल को यह मस्तक देना और कहना कि भारत माता के ऋण को उतारने का समय आ गया है, माताएं जिसके लिए पुत्रा को जन्म देती हैं वह उद्देश्य पूरा करने का समय भी अब आ गया है। उनसे कहना कि प्रतापरुद्र का मस्तक प्राप्त कर चक्रवर्ती बनने की इच्छा तो उनकी पूरी हो गई पर विदेशी तुरुष्कों के विरुद्ध एकजुट होने में अब देर न करें। अतः होयसलराज ... कृष्णाजी ने अपना संदेश आगे बढ़ाते हुए कहा, .....यह राजमाता का संदेश मैं आपके लिए लाया हूँ। अब भी आप इस संदेश को नहीं समझेंगे तो दुनिया की कोई शक्ति आपको कुछ नहीं समझा सकती।
होयसलराज वीर बल्लाल ने यह संदेश समझ लिया। उस समय के श्रेष्ठ तपस्वी कालमुख विद्यारण्य महाराज के प्रयत्नों से तुरुष्कों की आंधी को रोकने का एक महान्‌ अभियान दक्षिण में चल रहा था। संगमराय, उनका पुत्रा हरिहर, सोमैया नायक, महाराज प्रतापरुद्र, कृष्णाजी नायक जैसे सेनानी पूरे दक्षिणपथ को संगठित करने में लगे हुए थे। राजमाता रुद्रमाम्बा का विलक्षण संदेश मिलने के बाद बल्लाल देव भी इस अभियान में सम्मिलित हो गए। इसी के परिणामस्वरूप विजयधर्म और विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। राय हरिहर इसके पहले महामण्डलेश्वर बने।

Thursday, October 28, 2010

कुछ भूले विसरे पन्ने से:हिंदुत्व के वे योद्धा जिन्हें हम भूल गए.-२

जैसा की मैंने आपको अपने पिछले पोस्ट में हिंदुत्व के तीन महान योद्धावों/वीरांगनाओं की जानकारी दी.उसी सीरीज का यह दूसरा पोस्ट उन असंख्य कारसेवकों को समर्पित जो अपने राष्ट्र की पुरातन परम्पराओं को जीवीत रखने के लिए अपना सब कुछ स्वाहा कर दिए और करने को तैयार हैं...



पालीताणा की हुतात्मा -डॉ. रामसनेही लाल शर्मा


गुजरात का छठवां सुल्तान महमूद बेगड़ा बड़ा क्रूर, निर्दय, धर्म द्रोही और दुर्दान्त शासक था। वह भयंकर हिन्दू विरोधी था। इसने अपने राज्य का बड़ा विस्तार किया। यह ऐसा भोजन भट्ट था कि इसके खाने की मात्रा को लेकर पूरे देश में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हो गई थीं। प्रसिद्ध उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा के अनुसार वह १५० केले, एक सेर मक्खन और एक सेर शहद तो जलपान में ही लेता था और पूरे दिन में लगभग एक मन अन्न खाता था। इसी महमूद बेगड़ा ने पावागढ़ और जूनागढ़ के किले जीत लिए। इन दोनों स्थानों और अपनी सेना के मार्ग में पड़ने वाले हिन्दू मंदिरों को उसने तोड़ डाला। निर्ममतापूर्वक हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया और फिर उसकी सेना पालीताणा की ओर बढ़ने लगी। पालीताणा में जैनों का प्रसिद्ध तीर्थराज शत्रुंजय स्थित है। बेगड़ा उसी विशाल मंदिर को तोड़ने आ रहा था। पालीताणा के लोगों तक यह समाचार पहुँचा तो वे काँप गए। जैनों की एक बड़ी सभा हुई। शत्रुंजय को बचाने के उपाय सोचने लगे परन्तु उस दुर्दान्त आततायी के हाथों मंदिर को बचाने का कोई उपाय समझ में नहीं आया। जैन समाज किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। किसी बुद्धिमान जैन सज्जन ने कहा कि अब तक इस संकटकाल में शत्रुंजय की रक्षा केवल पालीताणा के ब्रह्मभट्ट ही कर सकते हैं। पालीताणा के ब्रह्मभट्ट बड़े धर्मप्राण, विद्वान्‌, संघर्षशील और हठी के रूप में प्रसिद्ध थे। जैन समाज के सभी संभ्रान्त जनों ने ब्रह्मभट्टों की शरण ली और उनसे अपने तीर्थराज को बचाने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि इस आततायी सुल्तान की सेना के सम्मुख हम जैन असहाय हैं। आप जैसे विद्वान्‌ और धर्मरक्षक हमारे तीर्थ की रक्षा कीजिए। ब्रह्मभट्टों ने उन्हें शत्रुजय की रक्षा का वचन दिया और सबसे वृद्ध ब्रह्मभट्ट ने उन्हें धर्म पर अपना बलिदान करने को प्रेरित किया। अहिंसक विरोध के द्वारा तीर्थराज की रक्षा का निश्चय हुआ क्योंकि रक्तलोलुप, धर्मद्रोही, क्रूर सेना का सशस्त्रु विरोध कोई अर्थ नहीं रखता था।
दूसरे दिन निश्चित समय पर पालीताणा के एक हजार ब्रह्मभट्ट शत्रुंजय की तलहटी में एकत्रु हुए। प्रत्येक बलिदानी ब्रह्मभट्ट श्वेत अंगरखा पहले चंदन चर्चित भाल और गले में रुद्राक्ष की माला धारण किए था। सबकी कटि में कटारें थीं। सुल्तान बेगड़ा को इन दृढ़ निश्चयी ब्रह्मभट्टों के तलहटी में एकत्रु होने का समाचार मिल गया। अब बिना मंदिर तोडे आगे बढ़ना उसे अपना अपमान लगा। वह सेना सहित तलहटी में पहुँचा। सबसे आगे घोड़े पर सवार बेगड़ा मंदिर की सीढ़ियों के नीचे तक चला आया। सर्वाधिक वृद्ध ब्रह्मभट्ट ने आगे बढ़कर उसकी प्रशंसा की और उससे ब्रह्मभट्टों के सम्मान की रक्षा का आग्रह किया परन्तु धर्मद्रोही बेगड़ा इसे सुनकर और अधिक क्रोधित हो गया। उसने सैनिकों को उस वृद्ध को घसीट कर रास्ते से हटाने का आदेश दे दिया। सिपाही आगे बढ़े परन्तु जब तक वे उस पवित्र वृद्ध का शरीर छूते उसने ÷जय अम्बे' का वज्रघोष किया और कमर से कटार निकालकर अपने पेट में घोंप ली। रक्त का फव्वारा फूट पड़ा और खून की कुछ बूंदे सुल्तान के चेहरे पर भी पड़ीं। उस हुतात्मा के मृत शरीर को बगल में छोड़कर सुल्तान आगे बढ़ने को तत्पर हुआ तभी अगली सीढ़ी पर खड़े दूसरे ब्रह्मभट्ट ने 'जय अम्बे' का प्रचण्ड उद्घोष कर कटार निकाल कर अपने पेट में घोंप ली। सुल्तान एक बार तो हतप्रभ रह गया और उसकी गति रुक गई। वजीर ने उसे ब्रह्मभट्टों की धर्मप्राणता और हठधर्मिता के विषय में समझाया। परन्तु अपने मुल्ला-मौलवियों का रुख देखकर सुल्तान मानने को तैयार नहीं हुआ। उसका अनुमान था कि दो-चार लोगों के मरने पर ब्रह्मभट्ट भयभीत होकर वहाँ से चले जाएंगे। वह आगे बढ़ा परन्तु तीसरी सीढ़ी पर एक कोमल कमनीय काया, कामदेव के सौन्दर्य को अपनी सुन्दरता लजाने वाला हँसता हुआ दृढ़ निश्चयी षोडष वर्षीय किशोर खड़ा था। सुल्तान जब तक उसके पास पहुँचे उसने 'जय अम्बे' का उद्घोष किया और कटार पेट में घोंप ली। उसके गर्म रक्त से सुल्तान सिर से पाँव तक नहा गया।
यह अकल्पनीय दृश्य देखकर सुल्तान महमूद बेगड़ा का कलेजा हिल गया। वह भीतर तक काँप गया। इन हुतात्माओं की आत्माहुति ने उसे झकझोर दिया। वह पीछे लौटा और उसने अपने सरदारों को आदेश दिया कि मार्ग में खड़े सभी ब्रह्मभट्टों को कैद कर लिया जाए। सुल्तान का आदेश का पालन करने के लिए उसका सरदार खुदाबन्द खान जैसे ही आगे बढ़ा कि एक सत्तर वर्षीय वृद्ध ने कटार से अपना पेट चीर डाला और अपनी आँतों की माला खुदाबन्द खान के गले में डाल दी। बौखलाकर सरदार ने माला अपने गले से उतार दी और अगली सीढ़ी पर खड़े जवान को पकड़ने को आगे बढ़ा। जब तक खुदा बन्दखान उसके पास पहुँचे कि उसने वज्रनिनाद में ÷जय अम्बे' का घोष किया और कटार अपने पेट में घोंप ली। अब स्थिति यह हो गई कि ज्यों ज्यों बौखलाकर खुदाबन्द खान अगली सीढ़ी की ओर बढ़ता कि वहाँ खड़ा ब्रह्मभट्ट कटार से अपनी आत्माहुति दे देता था। इस तरह ८ लोगों ने बलिदान कर दिया। ब्रह्मभट्टों के इस रोमांचकारी अकल्पनीय आत्म बलिदान को देखकर खुदाबन्द खान भी काँप गया। वह पीछे लौटा और उसने सुल्तान बेगड़ा से लौट चलने की प्रार्थना की। क्रोधित और दिग्भ्रमित सुल्तान ने अपने खूंखार, निर्दयी और पाशविक वृत्तियों वाले सैनिकों को छाँटकर सभी ब्रह्मभट्टों को मारने का आदेश दिया। अब शत्रुजय की सीढ़ियों पर 'भूतो न भविष्यति' जैसा महान्‌ दृश्य था। महमूद के सैनिक जिस सीढ़ी के पास पहुँचते उसी पर खड़ा ब्रह्मभट्ट 'जय अम्बे' का तुमुलनाद कर आत्माहुति दे देता। इन वीर हुतात्माओं के इतने शव देखकर सुल्तान बेगड़ा घबरा गया। उसी समय एक ग्यारह वर्षीय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति वहाँ आई और उसने सुल्तान बेगड़ा की भर्त्सना करते हुए उसे धिक्कारा। उसने कहा! दुरात्मा महमूद तू तो गुजरात का पालक था फिर तू ही घातक कैसे बन बैठा। तूने अपनी धर्मप्राण जनता के खून से अपना कुल कलंकित कर लिया। यदि अभी भी तेरी प्यास नहीं बुझी तो देख एक हजार पालीताणा के और हजारों की संख्या नीचे तलहटी में खड़े ब्रह्मभट्ट अपना बलिदान देने को तत्पर खड़े हैं। ऐसा कहते-कहते उस बालिका ने 'जय अम्बे' का जयघोष करके अपने हाथों से अपना मस्तक उतार कर फेंक दिया। इस असीम साहस की प्रतिमूर्ति नन्हीं बालिका की आत्माहुति देखकर सुल्तान काँप गया। उसके साहस ने जवाब दे दिया। उसने काँपते कण्ठ से अल्लाह से अपने अपराध की क्षमा याचना की और सेना को लौट चलने का हुक्म दिया। उसी दिन से महमूद बेगड़ा ने अपने राज्य मे किसी भी धर्म के धार्मिक स्थल को नष्ट करने पर प्रतिबंध लगा दिया।
शत्रुंजय तीर्थराज में १०७ ब्रह्मभट्टों और एक कुमारी ने स्वेच्छा से आत्माहुति दी थी। उसी दिन से जैन समाज ने शत्रुजय की फरोहिती पालीताणा के ब्रह्मभट्टों को सौंप दी। शत्रुंजय का यह तीर्थराज आज भी हुतात्मा ब्रह्मभट्टों की जयकथा कह रहा है।



वीर छत्रसाल की मां लालकुवरि



भाभी भाभी । अरे देखो तो । कोई अश्वारोही इधर ही तेजी से घोड़ा दौड़ाता चला आ रहा है । भैय्‌या तो हो नहीं सकते । इतनी जल्दी लौटकर आ भी कैसे सकते है? हो न हो कोई शत्रु हो । सैनिकों को सावधान करना होगा । भाभी का हाथ अपनी ओर खीचते हुए उसकी नंनद बोली । स्त्री का रोम रोम सिहर उठा । अब क्या होगा ? लाली । हांफती हुई वह बोली ।

नाहक घबराती हो, भाभी। होगा क्या? मैं तो हूं ही लालकुंवरी ने उसको ढाढस बंधाया । टपटपटपट पट् खट् खट् अश्व के टापों की आवाज समीप आती स्पष्ट सुनाई देने लगी थी । काया का धुंधला धुंधला सा चेहरा भी दिखई पड़ने लगा था ।शीतला ने दूर दूर तक आंखो गढ़ाकर अपनी दृष्टि दौड़ाई यकायक उसक मुरझाया हुआ मुखड़ा खिल उठा । अरी नही री । ये तो वहे ही हैं तेरे भैय्‌या । उतावली में शीतला अपनी नन्द से बोलीं ।
संभवतः सन १६३५ में किसी शाम का वह किस्सा है । गढ़ी के बुर्ज पर दोनो स्त्रियां खड़ी शत्रु की गविधियों की टोह ले रही थीं यह गढ़ी ओरछा के राज्य के अन्तर्गत थी । यहां का गढ़पति था अनरुद्ध । लालकुंवरी का भाई । शीतला थी अनिरुद्ध की पत्नी वह हाल में वधू बन कर आई थी । शीतला से यही कोई दो तीन साल छोटी लालकुवरी रही होगी । समवयस्क होने के नाते ननद भाभी में सहेलियो जैसा अपनापा बन गया था । शीतला स्वभाव से कुछ भीरु और रसिक थी । इसके विपरीत लालकुंवरि निर्भीक औरसाहसी थी । बचपन से ही भाई के साथ उसे तलवारबाजी और भाला चलाने का अभ्यसास कराया गया था । भाई और बहिन में अतिशय प्रेम था । उस समय देश में मुसलमानों का राज्य था ।उनका बुंदेलखंड पर पूर्णरूप से अधिकार हो चुका था । फिर भी उसको स्वतंत्र कराने का प्रयास चल रहे थे । मुगलों के विरुद्ध ऐसे ही एक मोरचे पर अनिरुद्ध युद्ध करने को गया था । अपनी अनुपस्थिति में गढ़ की सुरक्षा का भार वह बहिन को सौंप गया था ।शीतला और अनिरुद्ध का नया नया विवाह हुआ था । उसके हाथों की मेंहदी अभी सूख भी नहीं पायी थी कि पति को युद्ध में जाने का न्यौता मिला था ।वह उद्धिग्न हो उठी उसने पति को प्रेमपाश में बांधनाचाहा था ।नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी । बड़ी बड़ी सुंदर आंख से झरते अरु बिंदुओं को देख अनिरुद्ध का मन भी अंदर अंदर कच्चा पड़ने लगा था ।
पता नही युद्ध का क्या परिणाम हो ? विवाह का सुख क्या होता है । यह उसने अभी जाना भी न था । यद्यपि युद्ध में मरने मारने की घुट्टी क्षत्रियों को घूंटी में ही पिलाई जाती है । राजपूत सैनिकों के जीवन और मृत्यु के बची का फासला बहुत कम होता है ।उसके सामने एक ओर था प्रणय और दूसरी ओर कर्तव्य । दुविधा में फंसा था उसका मन । भाई की दुर्बल मनःस्थिति को बहिन ताड़ गयी । लाल कुंवरि ने कहा भैयया इसी दिन के लिए ही तो क्षत्राणियां पुत्रों को जन्म देती हैं बहने । भाइयों को राखी बांध कर हंस हंस कर रण भूमि के लिए विदा करती हैं क्या क्षणिक मोह में पड़कर मेरा भाई कर्तव्य से विमुख हो जाएगा ।? नहीं भइया नहीं । तुम जाओं देष की धरती तमुमको पुकार रही ह। चिंता न करो । मैं और भभ्ी गढ़ को सम्हाल लेंगी । राजपूतनियां अपना अंतिम कर्त्रव्य भी अच्छी प्रकार से निबाहना जानती हैं । मेरे जीवित रहते शत्रु गढ़ी में प्रवेश नहीं करेगा । आप निष्चिन्त रहे । लालकुंवरि यद्यपि शीतला से थी तो छोटी ही पर उसके विचारों में आयु से अधिक परिपक्वता और प्रौढ़ता आ गयी थी । बहिन की ओजस्वी वाणी को सुनकर भाई की भुजाएं फड़क उठी । गर्व से सीना फूल गा । मन पर पड़ा क्षणिक मोह का अवरण काई के समान फट गया । रणबांकुरा युद्ध के मोरचे पर चल पड़ा ।
शीतला नेत्र सके पति को युद्ध भूमि में जाने के लिए प्रेरित करने पर ननद को खरी खोटी सुनाई थी तभी से वह लाली से चिढ़ी हुई थीं भाभी के हृदय को बीधने वाले वाक्यों को लाली ने हंसते हंसते पी लिया था । दोनो जल्दी जल्दी बुर्ज से नीचे उतरी । गढ़ी के दरवाजे पर जा पहुंची । तब तक घुड़सवार फाटक पर आ पहुंचा था । वह अनिरुद्ध ही था । उसमें उत्साह की झलक न देख बहिन का माथा ठनका । भैयया थोड़ा रुको मैं अभी आरती लेकर आती हूं । आप युद्ध में विजयी हाकर लौटे हैं वह भाई से बोली । सहोदरा की बात सुन अरिरुद्ध का मुख स्याह पड़ गया । गर्दन नीचे को झुक गयी । लज्जित हो वह बोला नहीं बहिन मैं किसी तरह से शत्रुओं से बच भागकर यहां आया हूं । वह भयभीत होकर रण भूमि से भाग निकला है यह सुन लालकुंवरि को जैसे सहस्रों बिच्छुऒं ने उंक मार दिया धिक्कार हैं तुम्हें । शत्रु को रण में पीठ दिखाकर भागने से तो अच्छा है कि मेरा भाई कर्तव्य की वेदी पर लड़ते लड़ते बलि चढ़ जाता । मां के दूध को लजानेमे तुम्हें शर्म नहीं आई । तुम कोई और हो मेरे भाई तो तुम कदापि नहीं हो सकते ।वह तो शूरवीर है । कायर नहीं । उसके वेश में अवश्य को छद्मवेषी है । तुम्हारे लिएदुर्ग का द्वार नहीं खुल सकता । बहिन भाई पर क्रुद्ध सर्पिणी सी शब्द बाण ले टूटपड़ी थी । पहरेदारों को उसे आदेश दिया ।किले का दरवाजा मत खोलों इस समय इसकी रक्षा का दायित्व मेंरे उपर है । मेरी आग्या का पालन हो । बहिन की प्रताड़ना सुन अनिरुद्ध पानी पानी हो गया थ । वह उसी समय वापिस लौटपड़ा । शीतला ननद पर क्रोध से बिफर पड़ी तूने यह अच्छा नहीं किया लाली । कितने थके थे वे ? अगर तेरे पति होता तू इतना उपदेश नहीं देती । दौड़ कर उसे अपने अंक में छिपा लेती । किसी को उसकी हवा भी न लगने देती । भगवान न करे वह दिन आए । यदि मेरा पति इस प्रकार से भीरुता दिखा, भाग कर छिपने को आता तो सच कहती हूं भाभी। तेरी सौगंध मैं उसकी छाती में कटार ही भोंक देती । और फिर उसके साथ ही अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर डालती । लाकुंवरी ने अति शांत स्वर में प्रत्युत्तर में कहा । वातावरण बड़ा गंभीर हो गया था। कुछ समय पष्चात वह फिर बोली भाभी क्षमा करो । आप के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने वाली मैं कौन हूं किन्तु क्या करूं मुझे ऐसी ही शिक्षा और संस्कार भैय्या ने दिए हैं उनकी ही बात मैने उनको स्मरण करा दिया था । हम दोनों ईश्वर से प्रार्थना करें वे विजयी होकर सकुशल घर वापिस लौटें उसने स्नेह से भाभी का हाथ पकड़ लिया ।
लालकुंवरी क्या जानती थी विधाता एक दिन उसकी इसी प्रकार परीक्षा लेगा । बहिन की प्रताड़ना और उलाहना अनरुद्ध के कानों में बार बार गूंजने लगी । उसे वीर मन पर दुर्बलता की पड़ी राख झड़ चुकी थ दहकतेअंगारे समान उ सका पौरुष दहक उठा था । उ सने पुनःपुनः अपनी सेना ऐकत्रित की । चोट खाए घायल सिंह के समान शत्रु सैनिको पर टूटपड़ा । शत्रुओं को मुंह की खानी पड़ी । वीर की भांति विजयी होकर वह घर वापसी लौटा । भाई की विजय का समाचार सुन लालकुवरि कर रोम रोम पुलतित और हर्षित हो उठा था । सर्वत्र अनिरुद्ध की जयजयकार हो रही थी । विजय के डके बज उठे थे । जनता विजय का श्रेय उसको देती तो अनिरुद्ध कहता नहीं भाई इसकी वास्तविक अधिकारी है मेरी यह छोटी बहिन। बहिन ने द्वारपर विजयी भाई की आरती उतारी अपने द्वारा प्रयोग किए गए तीखे शब्दों पर उसने भाई से क्षमा मांगी । अनिरुद्ध मुसकराया औ हल्की से बहिन को चपत लगाई बोला बहिन तूने ठीक किया थ । उस समय तो सचमुच तूने मेरी मां का उत्तरदायित्व ही निभाया । मैंधान्य हो गया तुझ सी छोटी बहिन पाकर । अच्छा चलचल बड़ी बड़ी भूख लगी है पहले जलपान ला । प्रमुदित मन से भागी लाली । भैय्या प्रसन्नता में यह तो मैं भूल ही गयी थी । कितना अच्छा भाई था उसका । किसी को भी ईर्ष्या होती उस पर उसने बहिन को उठा लिया । सिर पर हाथ फेरा । तत्पश्चात स्वयं बहिन के पैर छू लिए । असे भैय्‌या । यह क्या उल्टी गंगा बहा रहे हो लाली बोली चुप । शैतान की बच्चीकी अब जल्दी मुझे तेरे पैर पूजन है तुझे यहां से खदेड़ना है । पति के घर । अनिरुद्ध की रस भरी बाते सुन लाली बोली , हूं बड़े आए भेजने वाले शर्म से आंख नीचे कर वह भागी । कुछ समय बाद ही लालकुंवरि का चम्पतराय से विवाह हो गया । भाई ने बड़ी धूमधाम से बहिन को पति गृह के लिए विदा किया था वह वह पतिगृह महोबा आई ।
बुदेलखंड और मालवा में अनेकों छोटे छोटे राज रजवाड़े थे । बुंदेले आपस में लड़ते । मुस्लिम आक्रान्ताऒं केआधीन भयग्रस्त और आतंकित हिन्दू राजाओं को संगठित करने और मुगलों से देष की धरती को मुक्त कराने को वीरांगना लालकुंवरि पति को सदा प्रेरित करती रहती । वह भी स्वयं युद्ध में पति केसाथ जाती । बड़ी अच्छी जोड़ी थी दोनों की । स्वाधीनता के इन परवानों की । हिन्दू समाज को शक्ति सम्पन्न बनाने का महान लक्ष्य थाउनके सामने । उ न्होंने ओरछा का मुक्त कराने में स्वर्गीय वीर सिंह का पूरा सहयोग दिया था ।
शाहजहां के स्थान पर औरंगजेब शासनरूढ़ हुआ । हिन्दू शक्ति को कैसे सहन करता ? चम्पतराय को जिंदा या मुर्दापकड़ने की उसेन घोषणा की थी । लोगों को बड़े बड़े पुरस्कार देने के लिए प्रलोभन दिए गए थे । चम्पतराय कभी जय तो कभी पराजय के बीच झूल रहे थे । इतने बड़े साम्राजय से टक्करक वे ले रहे थे ।यह कोई सरल काम नहींथा । बड़ा पुत्र सारवाहन तो स्वतंत्रता की बलिवेदी पर पहले ही बलि चढ़ गया था । उस समय छत्रसाल की आयु केवल ६ वर्ष की थी । अनवरत घोड़े की पीठ पर संघर्ष करते करते उनका शरीर पूरी तरह से टूट चुका था । उनकी शक्ति भी क्षीण हो गयी थी अपने भी पराये बन गए थे । पर वाह रे भारत मों के सपूत । तूने शत्रुओं के सामने घुटनेनहीं टेके । इसीलिए इतिहास में तू अमर हो गया । देश भक्तों को प्रेरणा स्रोत बन गए । मुगल सेना लगातार पीछा कर रही थीं औरंगजेब ने सभी रजवाड़ों को धमकी दे रखी थी कियदि किसी ने भी चम्पतराय को शरण दी तो उसको नेस्तानाबूत कर दिया जाएगा । जिनके लिए उन्होंने पूरा जीवन दिय वे ही उसकी जान के पीछे पड़ गए । ओरछा के सुजना शुभकरण आदि मुगल फौजदार नामदार खां के साथ उनको जीवित या मुर्दा पकड़ कर मुगलों को सौंप कर पुरस्कार पाने की आशा में जी जान से लगे थे । मालवा में सहरा नामाका एक छोटा सा राज्य था वहां का राजा था इन्द्रमणि धंधेरा । वह चम्पतराय का मित्र था । चम्पतराय को तीव्र ज्वर चल रहा था । कई दिनों से पीछा नहीं छोड़ रहा था । उन्होंने सोचा कि किसी गुप्त स्थान पर कुछ दिन रहकर विश्राम करू । शक्ति का संचय कर पुनः शत्रु पर टूट पड़ूं इन्द्रमणि किसी युद्ध में बाहर गया हुआ था या पता नहीं उसका न मिलना संयोग था या जानबूझ कर ही वह वहां से निकल गया थाबात चाहे जो भी हो। उसे सहायक साहबराय धंधेरा ने चम्पतराय का बड़ा स्वागत सत्कार किया । वे अभी टिक भी नहीं पाए थे कि गुप्तचरों से संदेश मिला कि सुजान सिंह बुंदेला मुगल सेना के साथ पीछा करता बढ़ा चला आ रहा है । कुछ धंधेरों और सैनिको के संरक्षा में वे मोरन गांव की ओर चल पड़े । उनको अष्व पर चलन कठिन हो रहा था ।अतः पलंगपर लिटा कर उन्हें ले जाया गया । लालकुवरि अष्व पर सवार हो नंगी तलवार लिए पति की सुरक्षा के लिए साथ साथ चल रही थी। साहबराय कदाचित सुजानसिंह ओर मुगलो की धमकी में आ गया था । उसने कुछ धंधेरो को मार्ग में ही चम्पतराय की हत्या करने का संकेत कर दिया था । धंधेरे सैनिक भयभीत हो गए । यद्यपि इस जघन्य कृत्य करने का उनक मन नही कह रहा था । पर हाय रे । विष्वासघात । उन में से कुछ निकल ही आए । मुगलों ओर ओरछा का कोपभाजन कौन बने ? वे धोखा देकर चम्पतराय को मारने को लपके । कौन कहता है कि स्त्री अबला होती है । विष्वास घाती धंधेरे सैनिकों अबला अतिबला बनकर टूट पड़ी । उनके मुंह धरतीपर गिर पड़े । रानीके साथ निष्ठावान बुदेंले सैनिक थे । बचेखुचे धंधेरे उनको अकेला छोड़ भाग निकले । कई बुंदेले वीर शहीद भी हो गए । तब तक मुगल सैनिक भी आ चुके थे । बड़ी कठिन परीक्षा की घड़ी उपस्थित हुई केवल बस एक ही मार्ग शेष था आत्मसमर्पण या आत्तमर्पण का । चम्पताराय नेआत्मार्पण क निश्चय किया । शत्रुओ से पूरी तरह से अपने को घिरा हुआ देख वेसमझ चुके थे कि अब उनके जीवन क खेल खत्म हो चुका है । उनका शरीर इतना अशक्त था कि हाथ उठाने की क्षमता भी उनके शेष नहीं बची । अति क्षीण स्वर में वे पत्नी से बोले , लाली । तूने एकसहधर्मिणी के समान जीवन भर मेरा साथ दिय । अब क्या इस अंतिम बेला में ये विधर्मी मेरे शरीर को भ्रष्ट करेंगें स्वतंत्रता के लिए जीवन पर्यन्त लड़ने वाला अब क्या जंजीरों में बांध कर दिल्ली की सड़को पर घुमाया जाएगा ? मैं स्वतंत्र हूं स्वतंत्र ही रह कर ही मरना चाहता हूं । ओ । बड़ा दुस्सह होगा वह क्षण । उठाओं खंजर भोंक दो । मेरे सीन में । विलम्ब नहीं करो । पति की बात सुन लाकुंवरि विचलित हो गयीं । हे विधाता कैसी अग्नि परीक्षा है अब क्या अंतिम क्षणों में पतिहंता भी बनना पड़ेगा । मन में तूफान का वेग उमड़ पड़ा था चम्पतराय पत्नि के मन की दशा को समझ गए । किसी भी सती साध्वी पतिव्रता नारी के लिए अपने पति की हत्या करना बड़ा कठिन होता है । लाली तू वीर पत्नी है । सिंह पुत्रों की मां अब सोचने का समय नही है दूसरा कोई चारा नहीं जल्दी उठा खंजर । उखड़ते स्वर में वे बोले थे ।
लालकुंवरि को भाभी के ताने स्मरण हो आए थे । भाभी को कहे गए अपनेशब्द याद आएं अगर मेरा पति कायरता दिखातो तो सचमुच उसके सीन में कटार चुभो देती । पर वह कायर तो नहीं । नर श्रेष्ठ है वीर पुंगव क्या करें ? रानी के हाथों में कटार चमकी । पति के वक्षस्थल की ओर बढ़ी । तभी भगवान ने उसे पतिहंता के पाप से उबार लिया ।पत्नी की असमंजसता को देख चम्पतराय के अशक्त हाथों में अकस्मात न जाने कैसे एक विचित्र शक्ति आ गयी थी ।रानी का खंजर उनके सीन में चुभे कि उसके पूर्व ही उनकी स्वयं की कटार वक्षस्थाल में समा गयी । बिजली की गति से लाल कुवरि ने अपना बढ़ा खंजर स्वयं अपने सीने में उतार दिया । उसका शरीर निर्जीव होकर पति के चरणोमे गिर पड़ा । दोनो चिर निद्रा में मग्न हो गए थे मुगल आंख फाड़े इस अनोखे बलिदान को देख रहे थे । अवाक और स्तब्ध । आकाश में दो सितारे टूटे । क्षितिज में एक सिसे से दूसरे सिरे तक चमक कर लुप्त हो गए । उसके साथ हीदो सवीर आत्माए भी अनंत आकाश में विलीन हो गयी०। ६ नवम्बर १६६९ का वह दिन था ।चम्पतराय आरे लालकुवरि के हृदयों मे स्वतंत्रता का जो दीप जल रहा था उससे अंसख्य दीप ज्योतित हो उठे । वह दहका गयी बुंदेलों के हदयों मे तीव्र ज्वाला को । छत्रसाल के रूप में वह दावानल बन कर बह निकली प्राणनाथा प्रभु उसका सही राह पकड़ाई कालान्तर में उसकी तुफान में ध्वस्त हो गया मुगल साम्राज्य ।

Wednesday, October 27, 2010

कुछ भूले विसरे पन्ने से:हिंदुत्व के वे योद्धा जिन्हें हम भूल गए.-१

इस जानकारीपरक लेखमाला की कड़ी में मै आपलोगों को हिंदुत्व के कुछ ऐसे योद्धाओं से परीचित कराने की कोशिश करूँगा जिन्होंने हिंदुत्व की रक्षा के लिए अपना सबकुछ अर्पण कर दिया और आज धर्मनिरपेक्ष इतिहास के पन्नों में ये गायब होने की कगार पर पहुच गए हैं. इस कड़ी में टोटल तीन पोस्ट मै आपके सामने लाऊंगा.पहला भाग सादर समर्पित उन असंख्यो हिंदुत्व के रखवालों को जो राष्ट्र और धर्म के हित में सबकुछ छोड़ने को तैयार हैं-


वीर हकीकत राय

पंजाब के सियालकोट मे सन् 1719 मे जन्‍में वीर हकीकत राय जन्‍म से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। यह बालक 4-5 वर्ष की आयु मे ही इतिहास तथा संस्‍कृत आदि विषय का पर्याप्‍त अध्‍ययन कर लिया था। 10 वर्ष की आयु मे फारसी पढ़ने के लिये मौलबी के पास मज्जित मे भेजा गया, वहॉं के मुसलमान छात्र हिन्‍दू बालको तथा हिन्‍दू देवी देवताओं को अपशब्‍द कहते थे। बालक हकीकत उन सब के कुतर्को का प्रतिवाद करता और उन मुस्लिम छात्रों को वाद-विवाद मे पराजित कर देता। एक दिन मौलवी की अनुपस्तिथी मे मुस्लिम छात्रों ने हकीकत राय को खूब मारा पीटा। बाद मे मौलवी के आने पर उन्‍होने हकीकत की शियतक कर दी कि इसने बीबी फातिमा* को गाली दिया है। यह बाद सुन कर मौलवी बहुत नाराज हुऐ और हकीकत राय को शहर के काजी के सामने प्रस्‍तुत किया। बालक के परिजनो के द्वारा लाख सही बात बताने के बाद भी काजी ने एक न सुनी और निर्णय सुनाया कि शरह** के अनुसार इसके लिये सजा-ए-मौत है या बालक मुसलमान बन जाये। माता पिता व सगे सम्‍बन्धियों के कहने के यह कहने के बाद की मेरे लाल मुसलमान बन जा तू कम कम जिन्‍दा ता रहेगा। किन्‍तु वह बालक आने निश्‍चय पर अडि़ग रहा और बंसत पंचमी सन 1734 करे जल्‍लादों ने, एक गाली के कारण उसे फॉंसी दे दी, वह गाली जो मुस्लिम छात्रो ने खुद ही बीबी फातिमा को दिया था न कि वीर हकीकत राय ने। इस प्राकर एक 10 वर्ष का बालक अपने धर्म और देश के लिये शहीद हो गया।


जितेन्द्रिय वीर छ्त्रसाल


वीर बुंदेलेछत्रसाल युवा थे । बात उस समय की है । उनका कद लम्बा था । शरीर के एक एक अवयव अति सुगठित और सुडौल थे । नेत्रों में अनोखा की आकर्षण । मुख्मंडल तेजस्वी आभा से युक्त था ।उनका गौरवर्ण का मुखड़ा किसी के भी मन को मोह लेता । लोगों की आखें बरबस उनकी ओर खिंची चली जातीं वृद्ध एवं वृद्धाएं उनमें अपने पुत्र की छवि निहारतीं युवक उनको अपने सुहृद के रूप में पाते । सैनिक अपने नेता की दृष्टि से देखते । उनके एक संकेतपर मर मिटने को सदा तत्पर रहते ।

कुमारियां मन ही मन अपने इष्टदेव से प्राथ्रना करती कि भगवन मुझे भी छत्रसाल ऐसा ही वीर और तेजस्वी पति दो । बच्चे तो उनको चाचा चाचा कह कर घेर लेते । वे भी उनको रोचक कहानिंया सुनाते । उनकी बोली में एक ऐसी मिटास थी कि सभी उस पर लट्टू हो जाते । सारे बुदेलखंड में वे इतने लोकप्रिय हो गए थे कि सभी के आशा के केन्द्र न गए । जन जन उनको अपने नेता के रूप में देखता ।ऐसा आकर्षक था उनका व्यक्त्तिव । यदि किसी की धन सम्पदा नष्ट हो जाती है तो वह कुछ भी नहीं खोता । क्योंकि उसका अर्जन पुनः किया जा सकता है । स्वास्थ्य में अगर घुन लग गया तो अवष्य कुछ हानि होती है । शरीर में ही तो स्वस्थ मन और मस्तिष्क रह सकता है । शरीरमाद्यंखलु धर्म साधनम । ध्येय साधना का वही तो अनुपम साधन है । माध्यम । किन्तु यदि चरित्र ही नष्ट हो गया तो उसको कोई भी नहीं बचा सकता । वह सर्वस्व से हाथ धो बैठता है । पतन की ओर उन्मुख हो जाता है मन का गुलाम बन जाता है ।वीर छत्रसाल धन, स्वास्थ्य और शील इन तीनों गुणों के धनी थे ।
दुपहरिया का समय था ।ग्रीष्म ऋतु का । उन दिनों बुंदेखण्ड में धरती जल उठती है । संपूर्ण पठारी क्षेत्र भंयकर लू की चपेट में झुमस रह था । रात अवश्य ही कुछ ठंडी और सुहावनी हो जाती है ।दिन में तो सूर्य की गर्मी से दग्ध पत्थर तो जैसे आग ही उगलने लगते हैं । ऐससे ही समय में छत्रसाल अश्व पर सवार होकर कही जा हरे थे, यदा कदा वे स्वयं भी शत्रु की खोज खबर लेने को निकला करते थे । बिल्कुल अकेले थे । सारा शरीर पसीने से लथपथ था । बहुत थके हुए थे । उनके भव्य भाल पर पसीना चुहचुहाकर बह निकला था ।बीच बीच ममें वे अपने साफे के एक छोर से श्रम बिंदुओं को पोंछते जाते । कहाँ विश्राम करें ? आस पास कही कोई छायादार वृक्ष नहीं दीखा । बेमन से टप्‌ टप्‌ टप्‌ घोड़े को दौड़ाते आगे ही बढ़ते चले गए । एक ग्राम के निकट पहुंचे । वही पर उनको फलकदार एवं छायादार वृक्षों का एक छोटा सा बगीचा दीखा । यहीपर उन्होंने थोड़ी देर तक विश्राम करने का मन बनाया । अश्व भी वही बुरी तरह से हांफ रहा था । उसकी स्थिति को देखकर उनको तरस आ गया । उसकी छाती धौंकनी ऐसी धौक रही थी । नथुने फूल रहे थे । वे उस से उतर पड़े । एक पेड़ी की छाँव में उसको बांध दिया । कमर से फेंटा खोला । धरतीपर उसका बिछा दिया । मस्तक पर सेपगड़ी उतारी । उसका ही सिरहाना लगा वृक्ष की छाया मं लेट गए । उनको न जाने कब नींद आ गयी ।
आंखे खुली । विस्मय से हैरान रह गए । देखा एक रूपवती युवती सामने खड़ी है, वह विमुगधा सी उनको एकटक निहारे जा रही थी । समझ में न आया । वह यहाँ पर क्यों आयी है । उनका माथा घूम गया । कही यह कोई जादूगरनी तो नहीं है ।जादू टोना करने को आई हो । उन दिनो में जादू टोना बड़ा प्रचलित था ।वे हड़बड़ा कर उठ बैठे ।
हे देवी आप कौन हैं ? यहां पर क्या कर रही हैं ? क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ । छत्रसाल ने समझाथा कि यह नवयौवना सचमुच ही किसी संकट में है। अपनी आप बीती , दुखड़ा उनको सुनाने को आयी है ।उनके लिए यह कोई नयी बात नहीं थी साधारणतया इसी प्रकार के लोग प्रायः उनकेपास आते रहते थे । अपनी कष्ट कथा सुनाते । यथाशक्ति वे उनकी सहायता भी करते । अतः बड़ी सहजता से वे उससे उक्त प्रश्न पूंछ बैठे थे । युवती की दृष्टि नीचे की ओर गढ़ी हुई थी । वह अपने पेर के नख से धरती को कुरेद रही थी । सम्भवतः लज्जा ने उसको आ घेरा था ।वह बोलने में सकुचा रही था सोच रही थी सोच रही थी कि ऐसी बात कहे या नहीं । विवके और अविवेक में विपुल युद्ध छिड़ा हुआ था ।उसका मन इसी झूले में पेंगे मार रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
बहिन । निसंकोच रूप से कहो क्या बात है छत्रसाल ने उससे पूछा । बहिन यह शब्द सुनते ही उसका चेहरा फक पड़ गया था । उसने साहस जुटाया । छत्रसाल से जो कुछ कहना था एक झटके में ही कह डाला । उसकी अभिलाषा को सुन छत्रसाल तो एक क्षण को संज्ञा शून्य से हो गए । दंग ओर अवाक । यह उनका पहला अनुभव था । उसको क्या उत्तर दें ? असमंजसता में पड़ गए थे । तुरंत कुछ उत्तर नहीं सूझा । वासना की इन्द्रियां जब शिथिल हो जाती है तब तो उन पर नियंत्रण कर पाना सरल हो जाता है किन्तु यौवन जब अपनी पूर्णता व चरम सीमा पर होताहै तब मन मस्तिष्क और वासनेद्रियों को अपेक्षाकृत काबू में रख पाना कठिन होता है और वह भी ब सुनसान एकांत स्थान हो । कोइ सोदर्यवती युवती सामने खड़ी हो और स्वेच्छा से प्रणयदान की याचना कर रही हो । ऐसे क्षणों में भी जो अडिग रहता हैवही इन्द्रियजयी , जितेन्द्रिय कहलाता है ऐसे क्षणों में बड़े बड़े साधक और तपस्वी की भी परहीक्षा हो जाती है ।
छत्रसाल को लगा कियह युवती उनकी परीक्षा ही लेने को आई है उस दृष्य को दख उन्होंने आंखो मुदं ली । युवती पर काम का मद सवार था । उसके गात थर थर कांप रहे । ।उसकी कामेंनद्रियां प्रदीप्त हो उठी थीं चेहरा लाल हो गया था । उसने छत्रसाल से बड़ी निर्लज्जता सेप्रणय निवेदन किया था कि वीर पुगंव मेंरी उत्कट अभिलाषा है कि तुम मुझे अपने अंक में समेट लो मुझको अपना लो । मैं आपके संसर्ग से एक संतान चाहती हूं । तुम जैसा ही वीरपुत्र मेरी कोख से जन्में । काम पीड़ा सेआहत उसका चेहरा तमतमा उठा था ।छत्रसाल की तोसिट्टी पिट्टी ही गुम हो गयी थी । उनकी बोलती बंद थी । दोनो के लिए परीक्षाकी घड़ी आ उपस्थित हुई थी । छत्रसाल की जितेन्द्रियता की और युवमी सदविवेक की । महर्षि विश्वामित्र के सामने मेनका भी ऐसे ही खड़ी रही होगी । वे तो क्षणिक आवेश में फिसल पड़ी थे किन्तु वह वीर चरित्र की कसौटी पर खरा उतरा था। कुछ ही क्षणामें में वे स्वस्थ हो गए । उनका चित्त स्थिर हो गया था । बाई जी मैं। हौं छत्ता । तौरो लरका ( हे माता । मैं छत्रसाल हूं तेरा पुत्र ) उन्होंने उससे कहा था ।उनके इस वाक्य ने ही उसको पानी पानी कर डाला था ।उसकी वासना की अग्नि पर शीतल जल की फुहार पड़ गयी । उसकी क्षणिक उत्तेजना शांत हो गयी । जिस माहेजाल में वह जा फंस थी वह कट चुका था ।उसका विचलित मन ठिकाने आ लगा था ।उसमें से निकल आयी थीं ऐ वात्सल्यमय जननी । उसके मन ने कहा धरती मैय्‌या तू फट जा । मैं पापिनी उसे समा जाऊँ । तू कैसी है री ? प्रणयकी याचना वह भी अपने पुत्र से हीं ओह यह मैने क्या कर डाला ? यह तो घोर पाप है । अनर्थ हैं उसकी अन्तरात्मा ने उसको कुरेदा और झकझोर डाला ।
वह शर्म से डूब गयी थी उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकल ।पश्चाताप की गंगा में अवगाहन कर उसका मन शुद्ध और निर्मल हो चुका था ।यदि उस समय छत्रसाल उसको सम्हाल न लेते तो शायद वह आत्महत्या ही कर डालती । उन्होंने उसके मन की अवस्था को भांप लिया था । उसने छत्रसाल को सच्चे मन से अपना पुत्र स्वीकार कर लिया था । व्यक्ति के जीवन में बहुत बार ऐसे क्षण आते ह। यह अस्वाभाविक नहीं शरीर धर्म की मानव सहज दुर्बलता न्यूनाधिक मात्रा मे सबमें होती है । छत्रसाल ने भी एक निष्ठवान पुत्र के समान उसको मां का सम्मान प्रदान किया था । पता नहीं उसने विवाह किया या नहीं । इतिहास इसपर मौन है । कालान्तर में उसके धर्म पुत्र छत्रसाल ने अपनी इस मुंहबोली माता के लिए एक हवेली का निर्माण करवाया था । पन्ना से थोड़ी दूरपर यह स्थित है। बंऊआ जू की हवेली । ( माता जी की हवेली ) के नाम से आज ये प्रसिद्ध है । दोनो जब तक जीवित रहे मां बेटे का धर्म निभाया । बंऊआ जी पुत्र की स्मृति में जीवन पर्यन्त वहीं पर रहीं थी ।
अब नतो बंऊआ जू हैं और नही छत्ता । लेकिन आज भी खड़ी है वह हवेली । इतिहास की वह पंक्ति । छत्रसाल के इन्द्रियनिग्रही जीवन तथा उनके निर्मल वा उज्ज्वल चरित्र की कीर्ति की गाथा गा रही है ।



रानी हाड़ी



सुबह का दिन था । सूर्य देवता आकाश में दो हाथ ऊपर को चढ़ आए थे । हाड़ा सरदार गहरी निद्रा में था । उसके विवाह को हुए अभी एक सपताह भी नहीं बीता था ।हाथ में कंगन भी नहीं खुले थे । रानी स्वयं पति को जगाने आई थी । सज धजकर वह सामन खड़ी थी । हाड़ा सरदार जगा । उसके चहरे पर छायी नींद की खुमारी अभी भी नहीं उतरी थी । पति पत्नी में किसी बात पर हंसी ठिठोली चल पड़ी तभी दरवान ने आकर सूचना दी कि महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा हुआ है । वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहता है । आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना जरूरी है ऐसा वह कहता है ।

असमय में दूत मे आगमन का समाचार । वह हक्का बक्का सा रह गया । वह सोचने लगा कि अवश्य कोई विशेष बात होगी । राणा को पता है कि वह अभी ही व्याह कर के लौटा है । आपात की घड़ी ही हो सकती है । उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा । मेवा । दूत का तुंरत लाकर बैठक में बिठाओ । मैं नित्यकर्म से शीघ्र ही निपटकर आता हू । हाड़ा सरदार दरबान से बोला जह जल्दी जल्दी में निवृत्त होकर बाहर आया । सहसा बैठक में बैठै राणा के दूत पर उसकी निगाह जा पड़ी । जोहार बंदगी हुई । अरे शार्दूल तु । इतने प्रातः कैसे ? क्या भाभी ने घर से खदेड़ दिया है ? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया । तेरी लई भाभी अवश्य तुम पर नाराज होकर अंदर गयी होगी । नई नई है न । इसलिए बेचारी कुछ नहीं बोली । अम्मा चार । ऐसी क्या आफत आ पड़ी था । दो दिन तो चैन की बंसी बजा लेने देते । मियां बीबी के बीच में दालात में मूसलचंद बनकर आ बैठै । । अच्छा बोलो राणा ने मुझे क्यों० याद किया है ? वह ठहाका मारकर हंस पड़ा । दोनों में गहरी दोस्ती थी । सामान्य दिन अगर होते तो वह भी हंसी में उत्तर दूता । शार्दूल स्वयं भी बड़ा हंसोड़ था । वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह सकता था किन्तु वह बड़ा गंभीर था । दोस्त हंसी छोड़ो । सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ पहुंची है मुझे भी तुंरंत इन्ही पैरों से वापिस लौटना है । यह कहकर सहसा वह चुप हो गया अपने इस मित्र के विवाह हम में बाराती बनकर गाया था । उसके चेहरे पर छायी गंभीरता की रेखाओं को देखकर हाड़ा सरदार का मन आंशकित हो उठा ।सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयी । दूत सकुचा रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं हाड़ा सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश वह लाया था । उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे । हाड़ा के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थो । नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी तो अभी सूखी नहोगी । पति पत्नी ने एक दूसरे कोठी से देखा पहचाना नही होगा । कितना दुखदायी होगा उनका बिछोह ? यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा । पता नहीं युद्ध में क्या हो ? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता है । अंत में जी कड़ा करके उसने हाड़ा सरदार कके हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया । राणा का उसके लिए संदेष था ।
वीरवर । अविलम्ब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब की सेना को रोको । मुसलमान सेना उसकी सहायता को आगे बढ़ रही है । इस समय बादशाह संकट में फंसा है ।मैं उसे घेरे हुए हूं । उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझाकर रखना है ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके तब तक मैं पूरा काम निपट लेता हूं । तुम इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर सकते हो । यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है ।प्राण की बाजी भी लगानी पड़ सकती है । मुझे तुम पर भरोसा है । हाड़ा सरदार के लिए यह परीक्षा की खड़ी थी । एक ओर मुगलों की विपुल सेना और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प । राणा राजसिंह ने मेवाड़ के छिने हुए क्षेत्रों को पुनः मुगलों के चंगुल से मुक्त करा लिया था । औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी ऐड़ी चोटी की ताकत लगा दी थी । वह चुप होकर बैठ गया था । अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी । राणा से चारूमति के विवाह ने उसकी द्वेषाग्नि को और भी भड़का दिया था । इसी बीच में एक बात और हो गयी थी जिसने राजसिंह और औरंगजेब को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया यह सम्पूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था । इस्लाम को कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दण्ड भगतो । इसी निमित्त हिन्दुओं पर यह कहकर उसने दण्डस्वरूप जजिया लगाया था ।
राणा राजसिंह ने इसका डटकर विरोध किया था । उनका हिन्दू मन इसे सहन नहीं कर सका । इसका परिणाम यह हुआ कइ अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपनेयहां लागू करने में आनाकानी की । उनका साहस बढ़ गया था । गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मुंद पड़ गयी थी पुनः प्रज्ज्वलित हो गयी थी । दक्षिण में शिवाजी बुंदेलखण्ड में छत्रसाल, पंजाब में गुरू गोविंदसिंह मरवाड़ में राठौर वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत के विरूद्ध उठ खड़े हुए था । यहां तक कि आमेर के मिर्जा राजा जयसिं और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगलसल्तनत के दो प्रमुख स्तम्भ थे । उनमें भी स्वतंत्रता प्रेमियों के प्रति सहानुभूमि उत्पन्न हो गयी थी ।
घर का भेदी लंका ढाए । औरंगजेब का सगा बेटा ही उसके लिए काल बन गया था ।मुगल सल्तनत का अस्तित्त्व ही दांव पर लग गया था ।अतः करो या मरोके अतिरिक्त उसके सामने कोई चारा न बचा । अतः एक बड़ी सेना लेकर उ सने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए थं । मुगल सेनाके अरावली में न घुसने देने का दायित्व अपने बेटे जयसिंह को सौपा था । अजमेर की ओर से बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का काम दूसरे बेटे भीमसिंह का था । वे स्वयं अकबर और दुर्गादास राठौर के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े थे । सभी मोर्चो पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी ।बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय काकेशियन बेगम बंदी बना ली गयी थी । बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण बचाकर निकल सका था ।मेवाड़ के महाराणा की यह जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी औरंगजेब उनके विरूद्ध सिंर न उठा सका था । यह बात अलग है कि औरंगजेब के जाली पत्र से भ्रमित होकर राजपूत अकबर का साथ छोड़ गए थे ।
किन्दु क्या इस विजय का श्रेय केवल राणा को था । या और को भी ? हाड़ा रानी और हाड़ा सरदार को किसी भी प्रकार से कम नहीं था । मुगल बादशाह जब चारों ओर राजपूतों से घिर गया था । उसकी जान के भी लाले पड़े थे । उसका बचकर निकलना दुष्कर हो गया था तब उसने दिल्ली से अपनी सहायताकों अतिरिक्त सेना बुलवाई थी । राणा को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था । उन्होंने मुगलो सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करनके लिए हाड़ा सरदार को पत्र लिखा थां ।वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र के पास पहुंचा था । एकक्षण का भी विलम्ब न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था । अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था ।
केसरिया बाना पहने युद्धवेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचम्भित थी । कहां चले स्वामी ? इतनी जल्दी । अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह महीनों के लिए युद्धसे फुरसत मिली हैआराम से कटेगी यह क्या ? आष्चर्य मिश्रित शब्दों में हाड़ी रानी पति से बोती । प्रिय । पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती हे। । वह शुभ घड़ी अभी ही आ गयी ।देष के शत्रुओं से दो दो हाथ होने का अवसर मिला है । मुझे यहां से अविलम्ब निकलना है। हंसते हंसते विदा दो । पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो हाड़ा सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा । हाड़ा सरदार का मन आंशकित था ।सचमुच ही यदि न लौटा तो । मेरी इस अर्द्धागिनी नवविवाहिता का क्या होगां ? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह । इसी अन्तर्द्वन्द्व में उसका मन फंसा था । उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी । विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी राजी की तेज आंखो से छिपा न रह सका । यद्यपि हाड़ा सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की । हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है । उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रण भूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर । इसका पति विजयश्री प्राप्त करे अतः उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी । वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए । मैं अभी आई । वह दौड़ी दौड़ी अंदर गयी । आरती थाल सजाया । पति के मस्तक पर टीका लगाया उसकी आरती उतारी । वह पति से बोली । मैं धन्य धन्य हो गयी ऐसा वीर पति पाकर । हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं अप जाएं । मै विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी ।उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था । पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी । चलते चलते पति उससे बोला प्रिय । मैं तुमको कोइ सुख न सका बस इसका ही दुख है मुझे भुला तो नही जाओगी ? यदि मैं न रहा तो ............ । उसके वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके मुख पर हथेली रख दी । नाना स्वामी । ऐसी अशुभ बातें न बोलो । मैं वीर राजपूतनी हूं , फिर वीर की पत्नि भी हूं । अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निष्चिंत होकर प्रयाण करें । देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें । यही मेरी प्रार्थना है ।
हाड़ा सरदार ने घोड़े को ऐड़ लगायी । रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया । उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखो से बह निकला । हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था । किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कही सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दे ? वह मन को समझाता पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता । अंत में उससे रहा न गया । उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिको के रानी के पास भेजा । उसको पुनः स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत । मैं अवष्य लौटूंगा । संदेषवाहक को आष्वस्त कर रानी न लौटाया । दूसर दिन एक और वाहक आया ।
फिर वही बात । तीसरे दिन फिर एक आया । इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र लाया था । प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं । अंगद के समना पैर जमारक उनको रोक दिया है ।मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं । यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है॥ पत्रवाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवष्य भेज देना । उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करूगा । हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयी । युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे । विजय श्री का वरण कैसे करेंगे ? उसके मन में एक विचार कौंधा । वह सैनिक से बोली वीर ? मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं । इसे ले जाकर उ न्हें दे देना । थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना । किन्तु इसे कोई और न देखे । वे ही खोल कर देखें । साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना । हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था प्रिय । मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं । तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं । अब बेफिक्र होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली ............ स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी ।
पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल , एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया । वह धरती पर लुढ़क पड़ा । सिपाही के नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली । कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्णथाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया । सुहाग के चूनर से उसको ढका । भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा । उसको देखकर हाड़ा सरदार स्तब्ध रह गया उसे समझ में न आया कि उसके नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है ? धीरे से वह बोला क्यों यदुसिंह । रानी की निषानी ले आए ? यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया । हाड़ा सरदार फटी आंखो से पत्नी का सिर देखता रह गया । उसके मुख से केवल इतना निकला उफ्‌ हाय रानी । तुमने यह क्या कर डाला । संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर । मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं ।
हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे । वह शत्रु पर टूट पड़ा । इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है । जीवन की आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा । औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नही ही बढ़ने दिया , जब तक मुसगल बादषाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था ।इस विजय को श्रेय किसको ? राणा राजसिंहि को या हाड़ा सरदार को । या हाड़ी रानी को अथवा उसकी इस अनोखी निशानी को ?

Tuesday, October 26, 2010

तौबा तेरे सोलह साल




अल्हड़ नदी की धवल धार सी
अविरल जब तू मुस्काती है
बात-बात में गुस्सा करती
चलती-चलती इठलाती है
देख रूप सौंदर्य तुम्हारा
जग सारा हो गया निहाल
तौबा तेरे सोलह साल
मोती जैसे दांत तुम्हारे
कोयल जैसी बोली
रंग विरंगे वासन तुम्हारे
जैसे हो रंगोली
मृगनयनी तेरी चितवन से
कामदेव भी हुए बेहाल
तौबा तेरे सोलह साल
लट ऊँगली में जब उलझाती
लगे मेघ क्रीड़ा विमग्न हो
केशो में ही उलझ गए हों
पवन वेग से व्याकुल होकर
आतुर हैं स्वछन्द विचरण को
रोक रहे माया से बाल
तौबा तेरे सोलह साल
तेरी हर एक अदा निराली
मृग्सवाक सी आँखे काली
हिमकण जैसा रंग तुम्हारा
भानुसुता सी पहने बाली
जब पायल खनकाती पैरों में
ढोल-गीटार भी लगे बेताल
तौबा तेरे सोलह साल
हंससुता सी गर्दन तेरी
रति के जैसा चितवन
खुश होती तो ऐसे लगता
खुश हैं जग के कड़-कड़
उपमा किससे करूँ तुम्हारी
तुम ही तुम हो,सरे ब्याल
तौबा तेरे सोलह साल
हे विश्वसुन्दरी राहुल को
सपने में दरस दिखा जाना
पूरे जीवन के योग्य नहीं
पल दो पल साथ बीता जाना
कह देना मित्र हिमांशु से
योगी का क्या हो गया हाल
तौबा तेरे सोलह साल


-राहुल पंडित

(ये काब्य विशेष रूप से मेरे एक मित्र हिमांशु मोंगा(एफर्ट बीपीओ लिमिटेड) के मांग पर...उनको समर्पित.)

Monday, October 25, 2010

क्या कहती गंगा धारा






यह कल कल छल छल बहती ,
क्या कहती गंगा धारा
युग-युग से बहता आया
यह पुण्य प्रवाह हमारा ।।
हम इसके लघुतम जलकण ,
बनते मिटते हैं क्षण- क्षण
अपना अस्तित्त्च मिटाकर
तन मन धन करते अर्पण
बढ़ते जाने का शुभ प्रण ,
प्राणों से हमको प्यारा
यह पुण्य प्रवाह हमारा ।।
इस धारा में घुल मिलकर ,
वीरों की राख बही है ।।
इस धारा की कितने ही
ऋषियों ने शरण गही है
इस धारा की गोदी में ,
खेला इतिहास हमारा
यह पुण्य प्रवाह हमारा ।।
यह अविरल तप का फल है ,
यह राष्ट प्रवाह प्रबल है
शुभ संस्कृति का परिचायक ,
भारत मा का आचल है यह
शाश्वत है चिर जीवन
मर्यादा धर्म सहारा ।
यह पुण्य प्रवाह हमारा ।।
क्या इसको रोक सकेंगें
मिटने वाले मिट जाएं
कंकड़ पत्थर की हस्ती क्या
बाधा बनकर आएं ढह जाएगें
गिरि पर्वत कांपे भूमण्डल
सारा यह पुण्य प्रवाह हमारा ।।

Friday, October 22, 2010

इमाम बुखारी के लिए इमान से बड़ा है दीन-तब कैसे हो दोस्ती?



अयोध्या- खसरा-खतौनी में झगड़े वाली जमीन वर्ष 1528 से राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है – इस सवाल पर- शाही इमाम ने की पत्रकार की जमकर पिटाई की

दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी तथा उनके समर्थकों ने अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ के गत 30 सितंबर के फैसले के बारे में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में एक पत्रकार की जमकर पिटाई की।यह घटना उस समय हुई जब एक उर्दू अखबार के पत्रकार मोहम्मद अब्दुल वाहिद चिश्ती ने बुखारी से अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर सवाल पूछा और इस बात पर उनका रुख जानना चाहा कि खसरा-खतौनी में झगड़े वाली जमीन वर्ष 1528 से राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है और उसके बाद वहां बाबरी मस्जिद बनी है। शुरुआत में तो शाही इमाम ने सवाल को टालने की कोशिश की लेकिन पत्रकार के बार-बार पूछने पर बुखारी और उनके समर्थक आपा खो बैठे और पत्रकार पर झपट पड़े।बुखारी ने चिल्लाते हुए कहा कि इस आदमी को प्रेस कांफ्रेंस से बाहर ले जाओ यह कांग्रेस का एजेंट है। उन्होंने पत्रकार से कहा कि बेहतर होगा कि तुम अपना मुंह बंद रखो। तुम्हारे जैसे गद्दारों की वजह से ही मुसलमानों का अपमान हुआ है।बाद में, चिश्ती ने आरोप लगाया कि बुखारी अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद अपने भड़काऊ बयानों से सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने इल्जाम लगाया कि मैंने सिर्फ वर्ष 1528 के भू अभिलेखों में विवादित जमीन के राजा दशरथ के नाम पर दर्ज होने के बारे में बुखारी की राय जाननी चाही थी लेकिन इस पर वह आपा खो बैठे और उन्होंने तथा उनके समर्थकों ने मुझे पीटा।चिश्ती ने कहा कि हाई कोर्ट के फैसले से ऐन पहले तक बुखारी यह कह रहे थे कि अदालत का निर्णय सभी को स्वीकार्य होगा लेकिन फैसला आने के बाद उनके सुर बदल गए और उन्होंने निर्णय के खिलाफ भड़काऊ बयान देना शुरू कर दिया। वह देश में अमन-चैन कायम नहीं रहने देना चाहते। वह मुल्क में दंगे भड़काना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि देश की एकता और सौहार्द के लिए जरूरी है कि अगर वह जमीन राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है तो उसे हिंदुओं को सौंप दिया जाए।इसके पूर्व, बुखारी ने संवाददाताओं से कहा कि अयोध्या मामले पर हाई कोर्ट का फैसला पूरी तरह आस्था पर आधारित है और मुसलमान कौम उसे मंजूर नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि अदालत ने संविधान, कानून और इंसाफ के दायरे से बाहर जाकर वह फैसला दिया है।शाही इमाम ने कहा कि शरई नुक्तेनजर से इस मसले का बातचीत के जरिए हल निकलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है।बुखारी ने दावा किया कि शरीयत के मुताबिक किसी मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिए बातचीत करना या आमराय बनाना हराम है। उन्होंने कहा कि बातचीत के जरिए अयोध्या मसले का हल नहीं निकलेगा और इस मुकदमे से जुड़े मुसलमानों के पक्ष में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए।अयोध्या विवाद के मुद्दई हाशिम अंसारी द्वारा बातचीत के जरिए मसले की हल की कोशिश किए जाने पर बुखारी ने कहा कि वह अंसारी को गम्भीरता से नहीं लेते क्योंकि वह बार-बार अपने बयान बदलते हैं।शाही इमाम ने अयोध्या विवाद का बातचीत के जरिए हल निकालने की वकालत कर रहे उलेमा को भी आड़े हाथ लिया।लखनऊ। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी तथा उनके समर्थकों ने गुरुवार को अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ के गत 30 सितंबर के फैसले के बारे में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में एक पत्रकार की जमकर पिटाई की। यह घटना उस समय हुई जब एक उर्दू अखबार के पत्रकार मोहम्मद अब्दुल वाहिद चिश्ती ने बुखारी से अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर सवाल पूछा और इस बात पर उनका रुख जानना चाहा कि खसरा-खतौनी में झगड़े वाली जमीन वर्ष 1528 से राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है और उसके बाद वहां बाबरी मस्जिद बनी है। शुरुआत में तो शाही इमाम ने सवाल को टालने की कोशिश की लेकिन पत्रकार के बार-बार पूछने पर बुखारी और उनके समर्थक आपा खो बैठे और पत्रकार पर झपट पड़े। बुखारी ने चिल्लाते हुए कहा कि इस आदमी को प्रेस कांफ्रेंस से बाहर ले जाओ यह कांग्रेस का एजेंट है। उन्होंने पत्रकार से कहा कि बेहतर होगा कि तुम अपना मुंह बंद रखो। तुम्हारे जैसे गद्दारों की वजह से ही मुसलमानों का अपमान हुआ है। बाद में, चिश्ती ने आरोप लगाया कि बुखारी अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद अपने भड़काऊ बयानों से सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने इल्जाम लगाया कि मैंने सिर्फ वर्ष 1528 के भू अभिलेखों में विवादित जमीन के राजा दशरथ के नाम पर दर्ज होने के बारे में बुखारी की राय जाननी चाही थी लेकिन इस पर वह आपा खो बैठे और उन्होंने तथा उनके समर्थकों ने मुझे पीटा। चिश्ती ने कहा कि हाई कोर्ट के फैसले से ऐन पहले तक बुखारी यह कह रहे थे कि अदालत का निर्णय सभी को स्वीकार्य होगा लेकिन फैसला आने के बाद उनके सुर बदल गए और उन्होंने निर्णय के खिलाफ भड़काऊ बयान देना शुरू कर दिया। वह देश में अमन-चैन कायम नहीं रहने देना चाहते। वह मुल्क में दंगे भड़काना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि देश की एकता और सौहार्द के लिए जरूरी है कि अगर वह जमीन राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है तो उसे हिंदुओं को सौंप दिया जाए। इसके पूर्व, बुखारी ने संवाददाताओं से कहा कि अयोध्या मामले पर हाई कोर्ट का फैसला पूरी तरह आस्था पर आधारित है और मुसलमान कौम उसे मंजूर नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि अदालत ने संविधान, कानून और इंसाफ के दायरे से बाहर जाकर वह फैसला दिया है। शाही इमाम ने कहा कि शरई नुक्तेनजर से इस मसले का बातचीत के जरिए हल निकलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। बुखारी ने दावा किया कि शरीयत के मुताबिक किसी मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिए बातचीत करना या आमराय बनाना हराम है। उन्होंने कहा कि बातचीत के जरिए अयोध्या मसले का हल नहीं निकलेगा और इस मुकदमे से जुड़े मुसलमानों के पक्ष में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए। अयोध्या विवाद के मुद्दई हाशिम अंसारी द्वारा बातचीत के जरिए मसले की हल की कोशिश किए जाने पर बुखारी ने कहा कि वह अंसारी को गम्भीरता से नहीं लेते क्योंकि वह बार-बार अपने बयान बदलते हैं। शाही इमाम ने अयोध्या विवाद का बातचीत के जरिए हल निकालने की वकालत कर रहे उलेमा को भी आड़े हाथ लिया। लखनऊ। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी तथा उनके समर्थकों ने गुरुवार को अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ के गत 30 सितंबर के फैसले के बारे में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में एक पत्रकार की जमकर पिटाई की। यह घटना उस समय हुई जब एक उर्दू अखबार के पत्रकार मोहम्मद अब्दुल वाहिद चिश्ती ने बुखारी से अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर सवाल पूछा और इस बात पर उनका रुख जानना चाहा कि खसरा-खतौनी में झगड़े वाली जमीन वर्ष 1528 से राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है और उसके बाद वहां बाबरी मस्जिद बनी है। शुरुआत में तो शाही इमाम ने सवाल को टालने की कोशिश की लेकिन पत्रकार के बार-बार पूछने पर बुखारी और उनके समर्थक आपा खो बैठे और पत्रकार पर झपट पड़े। बुखारी ने चिल्लाते हुए कहा कि इस आदमी को प्रेस कांफ्रेंस से बाहर ले जाओ यह कांग्रेस का एजेंट है। उन्होंने पत्रकार से कहा कि बेहतर होगा कि तुम अपना मुंह बंद रखो। तुम्हारे जैसे गद्दारों की वजह से ही मुसलमानों का अपमान हुआ है। बाद में, चिश्ती ने आरोप लगाया कि बुखारी अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद अपने भड़काऊ बयानों से सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने इल्जाम लगाया कि मैंने सिर्फ वर्ष 1528 के भू अभिलेखों में विवादित जमीन के राजा दशरथ के नाम पर दर्ज होने के बारे में बुखारी की राय जाननी चाही थी लेकिन इस पर वह आपा खो बैठे और उन्होंने तथा उनके समर्थकों ने मुझे पीटा। चिश्ती ने कहा कि हाई कोर्ट के फैसले से ऐन पहले तक बुखारी यह कह रहे थे कि अदालत का निर्णय सभी को स्वीकार्य होगा लेकिन फैसला आने के बाद उनके सुर बदल गए और उन्होंने निर्णय के खिलाफ भड़काऊ बयान देना शुरू कर दिया। वह देश में अमन-चैन कायम नहीं रहने देना चाहते। वह मुल्क में दंगे भड़काना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि देश की एकता और सौहार्द के लिए जरूरी है कि अगर वह जमीन राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है तो उसे हिंदुओं को सौंप दिया जाए। इसके पूर्व, बुखारी ने संवाददाताओं से कहा कि अयोध्या मामले पर हाई कोर्ट का फैसला पूरी तरह आस्था पर आधारित है और मुसलमान कौम उसे मंजूर नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि अदालत ने संविधान, कानून और इंसाफ के दायरे से बाहर जाकर वह फैसला दिया है। शाही इमाम ने कहा कि शरई नुक्तेनजर से इस मसले का बातचीत के जरिए हल निकलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। बुखारी ने दावा किया कि शरीयत के मुताबिक किसी मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिए बातचीत करना या आमराय बनाना हराम है। उन्होंने कहा कि बातचीत के जरिए अयोध्या मसले का हल नहीं निकलेगा और इस मुकदमे से जुड़े मुसलमानों के पक्ष में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए। अयोध्या विवाद के मुद्दई हाशिम अंसारी द्वारा बातचीत के जरिए मसले की हल की कोशिश किए जाने पर बुखारी ने कहा कि वह अंसारी को गम्भीरता से नहीं लेते क्योंकि वह बार-बार अपने बयान बदलते हैं। शाही इमाम ने अयोध्या विवाद का बातचीत के जरिए हल निकालने की वकालत कर रहे उलेमा को भी आड़े हाथ लिया।

Wednesday, October 20, 2010

ये आतंकवाद की आग बुझाएंगे या भड़काएंगे ?




देवबन्द में पिछले दिनों तथाकथित उलेमाओं की बहुचर्चित गोष्ठी द्वारा आतंकवाद को गैर-इस्लामिक घोषित करना कितना खोखला है, यह उनकी घोषणा के वाक्यों से ही स्पष्ट है। जेल में बन्द मसुलमानों को अविलम्ब छोड़ने की मांग न केवल आतंकवादियों को समर्थन देती हुई दिखाई देती है अपितु भारतीय न्यायव्यवस्था व कार्यपालिका में उनके अविश्वास को भी दर्शाती है। सेक्युलर बिरादरी के कुछ पत्रकारों और राजनीतिज्ञों ने इस घोषणा का पुरजोर स्वागत किया और ऐसा दिखाया कि मानो अब आतंकवाद के दिन गिनती के बचे हैं। परन्तु जो प्रबुद्ध वर्ग शब्दों के छलावे में न आकर उनकी करनी को देखता है, उन्हें इन घोषणाओं की यथार्थता पर आशंका थी जिसको बाद के घटनाक्रम ने सही सिद्ध कर दिया। क्या उन्होंने एक भी आतंकवादी को इस्लाम के बाहर किया? क्या उन्होंने एक भी आतंकवादी को गैर इस्लामिक घोषित किया? क्या कश्मीर में तथा अन्य आतंकी घटनाओं के शिकार हिन्दुओं के प्रति कोई संवेदना प्रकट की गई ? वास्तव में जेहाद शब्द की असलियत आम जनता के सामने परत-दर-परत खुलती जा रही है। इस्लामिक दर्शन के प्रति सभी वर्गों में एक आशंका निर्माण होती जा रही है। शायद इसलिए इस सम्मेलन का आयोजन किया गया जिससे इस्लाम के प्रति और नफरत न फैले तथा आतंकवादियों को समर्थन देने की कीमत न चुकानी पड़े। इस्लाम के जानकार इस प्रयास को जेहाद का ही एक प्रकार बताते हुए इसे जेहाद-बिल-कलम' का नाम देते हैं, जिसके अंतर्गत छद्मवेश में जेहाद के प्रति समर्थन निर्माण किया जाता है और इसका विरोध् करने वालों को ही कटघरे में खड़ा किया जाता है।
'जेहाद-बिल-कलम' की आग की तपिश के लेखक को उर्दू प्रैस क्लब, द्वारा प्रेस क्लब नई दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में जाकर महसूस हुई। २८ पफरवरी २००८ को तारिक नामक एक व्यक्ति ने माननीय विष्णुहरि डालमिया जैसे बड़े नामों का उल्लेख करते हुए २ मार्च २००८ को आयोजित इस कथित सेमिनार में आने का निमंत्रण दिया। इसका विषय बताया गया फासिज्म और आतंकवाद - एक सिक्के के दो पहलू ? भारतीय राजनीति में कुछ शब्दों का प्रयोग मनमाने अर्थों में होने लगा है। वामपंथी इस कला के हमेशा माहिर रहे हैं। फासिज्म शब्द भी ऐसा ही है जिसे जानबूझ कर वामपंथी अपने विरोधियों विशेषतया हिन्दू संगठनों के लिए प्रयोग करते हैं। विषय सुनकर ध्यान में आ गया था कि इस तथाकथित गोष्ठी में आतंकवाद को हिन्दुओं के कार्यों की प्रतिक्रिया रूप में प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया जाएगा। परन्तु प्रैस क्लब, नई दिल्ली का स्थान व माननीय डालमिया जी जैसों का नाम, इससे ऐसा लगा कि इस कार्यक्रम में कुछ प्रबुद्ध लोग भी होंगे। परन्तु इस कार्यक्रम में जाकर महसूस हुआ कि यह कार्यक्रम मेरी आशंका के अनुरूप ही था। दर्शकों में अधिकांश मुस्लिम समाज के ही लोग थे। उनकी वेशभूषा व तेवर देखकर उनके इरादे समझ में आने लगे थे। डालमिया जी स्वास्थ्य अनुकूल न होने की वजह से नहीं आ सके। बाद के घटनाक्रम ने सिद्ध कर दिया कि उनका न आना अच्छा ही रहा। मैं थोड़ा विलंब से पहुँचा था परन्तु वहाँ जाकर मालूम चला कि पूर्व वक्ताओं ने हिन्दू संगठनों के विरुद्ध विषवमन ही किया। मेरे वहाँ पहँचते ही तथाकथित मानवाधिकारवादी लेखिका अरुन्धति राय को बोलने के लिए निमंत्रिात किया गया। कभी तस्लीमा नसरीन के पक्ष में बोलने वाली अरुन्धति ने वहाँ पर मुस्लिम समाज को सलाह दी कि वे तस्लीमा पर अपना समय बर्बाद न करें, उसका कोई असर नहीं है। इसके बाद श्रोताओं का मूड भाँपकर उन्होंने अफजल गुरु मामले पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय पर निशाने साधने शुरू कर दिए। उनके अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उनके पास अपफजल गुरु को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं है। इसके बावजूद समाज में व्याप्त धारणा के आधर पर उसकी फांसी की सजा बरकरार रखी जाती है। यह सब जानते हैं कि उनका यह कथन पूर्ण असत्य था। इसके बावजूद आयोजकों ने टोका नहीं, अपितु श्रोताओं ने ताली बजाकर उनके इस कथन का स्वागत किया। तभी मंच से एक आवाज आई, शेम ! शेम!!'। किस पर शर्म आ रही थी? तभी गिलानी नामक व्यक्ति को, जो संसद पर हमले में आरोपी था और सबूतों के अभाव में माननीय न्यायालय ने संदेह का लाभ देकर उसे छोड़ दिया था, आमंत्रित किया गया। भरपूर तालियों से उसका स्वागत किया गया। उसके भाषण का सार भी यही था कि भारत में न तो कोई कानून है और न कोई प्रजातंत्र। यहाँ हमेशा से मुस्लिम समाज का शोषण हुआ है और अगर कुछ युवक हताश होकर हथियार उठाते हैं तो इसमें क्या गलत है? प्रैस क्लब जैसे स्थान पर माननीय सुप्रीम कोर्ट, संसद, प्रजातंत्र, कार्यपालिका, मीडिया सब पर इस प्रकार प्रहार होंगे और आतंकवाद को उचित ठहराया जाएगा तथा इसका कोई विरोध् भी नहीं करेगा, यह सोचा नहीं जा सकता। इसके बाद प्रसिद्ध पत्राकार मनोज रघुवंशी को निमंत्रित किया गया। उन्होंने आतंकवाद को उचित ठहराने के प्रयास की जैसे ही निन्दा की श्रोताओं ने शोर मचाना शुरू कर दिया। बड़ी मुश्किल से वह ये बात कह पाए कि जेहाद के समर्थकों को यह सोचना चाहिए कि यह उनके ही खिलाफ जाएगा। वे अत्याचारों की झूठी कहानियों के आधर पर आतंकवाद को उचित ठहरा रहे हैं तो आतंकवादियों द्वारा मारे गए व्यक्तियों के परिवार को हथियार उठाने से कोन रोक सकेगा और इसके क्या परिणाम होंगे।
अब किन्हीं हुसैन साहब को बोलने के लिए बुलाया गया। उन्होंने आते ही हिन्दुओं के पवित्रा ग्रंथ महाभारत और रामायण पर हमले बोलने शुरू कर दिए। आयोजकों द्वारा न रोकने और श्रोताओं द्वारा उत्साहित करने पर अब उन्होंने भगवान राम पर आक्रमण किया और अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए एक भड़काने वाला और हिन्दुओं की धर्मिक आस्थाओं पर आघात करने वाला भाषण दिया। उन्होंने कहा, रावण का अपराध् यही था कि उसने राम की सीता का अपहरण किया। यह किसी ने नहीं देखा कि उसने सीता के साथ कुछ किया या नहीं। इसके बावजूद एक सेना का, यहां तक कि बन्दरों की सेना का भी गठन किया और लंका पर चढ़ाई कर मासूम लंकावासियों को मारा तथा लंका जला दी। राम भी एक युद्ध प्रेमी व्यक्ति थे। उनके भाषण के अंत में भी किसी ने कुछ नहीं बोला। तब मुझे बोलने के लिए बहुत ही हल्के ढंग से आमंत्रित किया गया। अब तक अरुन्धति राय को समझ में आ गया था कि मेरे बोलते ही क्या हो सकता है। इसलिए वह प्रैस क्लब छोड़कर चल दी। मैं जैसे ही बोलने के लिए खड़ा हुआ श्रोतओं ने शोर मचाना शुरू कर दिया। मैंने माननीय न्यायपालिका, भारतीय प्रजातंत्रा, भारतीय संसद पर हमला करने व आतंकवाद का समर्थन करने का प्रतिवाद किया और कहा कि जिस प्रकार के शब्द भगवान्‌ राम के प्रति प्रयोग किए गए अगर वैसे ही मोहम्मद पैगम्बर साहब के बारे में बोले जाएंगे तो उन्हें कैसा लगेगा। रंगीला रसूल नामक पुस्तक की अगर एक भी घटना कोई रख देगा तो क्या वे बर्दाश्त कर पाएंगे? इतना सुनते ही श्रोता व मंच दोनों ही भड़क गए। १५-२० आदमी मेरे को मारने को लपके, ३ व्यक्तियों ने मुझे जान से मारने की धमकी दी। एक व्यक्ति ने यहाँ तक कहा, वह ६ दिसम्बर के बाद १० हिन्दू मार चुका है, ११वां नम्बर अब तेरा है। तब वहाँ पर उपस्थित एक हिन्दू पत्रकार ने मुझे ही लानत भेजनी शुरू कर दी और वहाँ की जेहादी भीड़ को खुश करने के लिए मेरे व हिन्दू संगठनों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। तब तक वहाँ पुलिस बुला ली गई और कापफी मुश्किल के बाद मैं सुरक्षित बाहर आ सका। इस गोष्ठी में फासिज्म और आतंकवाद पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई। परन्तु दोनों क्या हैं, यह वहाँ पर उपस्थित व्यक्तियों को समझ में आ गया होगा। दोनों का नंगा रूप वहाँ देखने को मिला। दोनों में ही असहमति को कुचला जाता है। पफासीवाद में सत्ता का आतंक होता है जबकि आतंकवाद में कुछ संगठनों का। यहाँ पर ' सत्तासीन ' आयोजकों और जेहादी जनता का आतंकवाद खुलकर देखने को मिला।
मैं बाहर तो आ गया परन्तु कुछ यक्ष प्रश्न मेरे सामने खड़े हो गए :-
१. यह एक गोष्ठी थी या जेहादियों का जमावड़ा?
२. क्या इसी को 'जेहादी-बिल-कलम' कहते हैं?
३. क्या संपूर्ण भारत में मानवाधिकारवादियों व सेक्युलरवादियों का आतंकवादियों के साथ इसी प्रकार का गठजोड़ है जैसा यहाँ देखने को मिला?
४. क्या प्रैस क्लब जैसे महत्वूपर्ण स्थान को आतंकवादियों के समर्थन व सर्वोच्च न्यायालय पर हमले के लिए दुरुपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए ?
५. क्या केवल मुस्लिम समाज की आस्थाएं ही महत्त्वपूर्ण हैं जो केवल एक पुस्तक का नाम लेने से आहत हो जाती हैं और वे मारने पर उतारू हो जाते हैं ?
६. क्या हिन्दू समाज की आस्था महत्त्वपूर्ण नहीं है और भगवान राम व माता सीता के प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करने पर कोई कार्यवाही नहीं होनी चाहिए?
७. राम के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करने व न्यायपालिका पर प्रहारों पर कथित इतिहासकार पत्रकार को केवल एक पुस्तक का नाम लेने पर अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने का अधि कार होना चाहिए?
८. क्या हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार करने पर मौन रहना परन्तु इन प्रहारों का हल्का सा प्रतिवाद करने पर भी हमला बोलना क्या यही भारत में प्रगतिशील व पंथनिरपेक्ष कहलाने की एकमात्र कसौटी है ?
९. प्रैस क्लब जैसे स्थान के एक कक्ष में बहुमत होने के कारण वे अपने विपरीत विचार रखने वाले व्यक्ति को मारने का प्रयास कर सकते हैं तो अगर प्रजातांत्रिक विवशता के कारण दुर्भाग्य से उनकी संख्या अध्कि हो जाती तो क्या वे गैर- मुसलमानों का वही हाल नहीं करेंगे जो पाकिस्तान, बंग्लादेश, इंडोनेशिया तथा मलयेशिया में हो रहा है?
ऐसे और कई यक्ष प्रश्न मेरे सामने हैं जिनका जवाब मैं नहीं ढूंढ पा रहा हूँ। अब मैं इन यक्ष प्रश्नों को भारत की प्रबुद्ध जनता के समक्ष प्रस्तुत करता हूँ।

Monday, October 18, 2010

........और वो कहते हैं की हम आतंकवादी हैं


हमने तो अपना पूरा जीवन ही अपने देश को समर्पित कर दिया है....और जब हम पूछते हैं की हमारे देश की यह दुर्दशा क्यों कर रहे हो तुम....
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की हिन्दुस्तान तो हमारा भी देश है...हम भी यहाँ रहते हैं तो हज के ऊपर छूट और अमरनाथ और वैष्णव देवी की यात्रा पर हमसे (जजिया)कर क्यों लेते हो?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की कश्मीर में पाकिस्तान की तरफ से हिंदुस्तान के विरुद्ध बगावत करने वाले आतंकवादिओं को मरने पर उनको ५ लाख रूपए देते हो तो अमरनाथ आन्दोलन में मरने वालों को भी कुछ क्यूँ नहीं देते?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की हमारे प्रधानमंत्री क्यूँ कहते हैं की देश की सुविधाओं पर पहला अधिकार मुसलमानों का है...क्या हम हिन्दू यहाँ पर नहीं रहते हैं?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की जब वरुण गाँधी कहते हैं- "जो हाथ हिन्दुओं के विरुद्ध उठेगा,उसे वरुण काट डालेगा." तब तुम क्यूँ चिल्लाते हो...क्या तुम हिन्दुओं के विरुद्ध हाथ उठाने की साजिश रच रहे हो?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की अफज़ल गुरु को सुप्रीम कोर्ट से फंसी की सजा मिलने के बाद भी दो साल से दामाद की तरह क्यूँ पालते हो और साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बिना अपराध सिद्ध हुए तीन साल से जेल में क्यूँ रखे हो?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की आर.एस.एस. की तुलना सिमी से करते हो...क्या सिमी भी बाढ़ राहत,भूकंप राहत और आपातकाल में देश की सेवा में जी जान से लग जाती है?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की एक तरफ नक्सालिओं के विरुद्ध सेना और अर्धसैनिक बल लगाये हो तो दूसरी तरफ तुम्हारा इटेलियन युवराज नक्साली नेताओं के साथ उड़ीसा में सभाओं को संबोधित करता है ...क्या यह नक्सल के खिलाफ जंग का तरीका है....
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की आतंकवाद का रंग भगवा बताते हो तो कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हल साल ब्लास्टों में सैकणों लोग मरे जा रहे हैं...उस आतंकवाद का भ रंग तो बताओ?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.


जब हम पूछते हैं की अयोध्या पर फैसला आने से पूर्व तो कार्ट और लोकतंत्र की दुहाई दे रहे थे और कह रहे थे की सब को फैसले का सम्मान करना चाहिए तो फिर अब क्यूँ ज्कः रहे हो की फैसला मुसलमानों के विरुद्ध आया है.
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.

जब हम पूछते हैं की "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं." कहने पर हमें आतंकवादी कहते हो.तो अहमद बुखारी जो सीधे कहता है की कौम से बड़ा कुछ भी नहीं(देश भी नहीं) उसे क्या कहोगे?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.

जब हम पूछेत है की क्या बंदेमातरम का विरोध करने वाले देशभक्त हैं?
और तब वो कहते हैं की चुप हो जा
तुम आतंकवादी हो.

Friday, October 15, 2010

हे आर्यपुत्र फिर से जग जा





हे आर्यपुत्र फिर से जग जा,
अपनी अवनी चीत्कार रही
हे वीर पुत्र कोदंड उठा,
धरती माता पुकार रही
बन खंडपरशु ,बन भृगुनंदन,
ले परशु हाथ,आ चल रण में
संधान दुबारा वह नराच,
दुश्मन जिससे थर-थर कापे
दे त्याग विदेहन की इच्छा,
शिव से वह उत्तमगाथ मांग
जिससे तम मिट जाये जग का,
विमलापति से वह हास मांग
फिर छेड़ समर भारत भू पर,
असुरों को मार भगा दे तू
भारत!भारत को भारत कर,
रावन लंका पंहुचा दे तू
तू अर्जुन बन गांडीव उठा,
दिखला दे इस कौरव दल को
पूरा भारत कुरुक्षेत्र बना,
सिखला दे इस राक्षस बल को
बन वीर शिवाजी मुगलों को,
अतीत की झलक दिखा दे तू
बन भगत सिंह बन्दूक उठा,
खुद की पहचान बता दे तू
तू रामचन्द्र,तू ही शंकर,
तू अन्धकार को तरनी है
तू सत्य सनातन का रक्षक,
ये भारत तेरी जननी है
तुझपर इसके अहसान बड़े,
हे आर्य पुत्र तू समझ इसे
इसकी रक्षा से रक्षा है,
हे वीर पुत्र अब रण कर दे

-राहुल पंडित

Tuesday, October 12, 2010

ऋषि से बने योद्घा


ऋग्वेद और पुराण की कथा में भृगुवंश का कई स्थान पर वर्णन किया गया है। इन्हीं के वंशज थे परशुराम। वेदऋषिजमदग्निइनके पिता और माता थीं रेणुका। वैशाख शुक्ल तृतीया, यानी अक्षय तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में [जो इस बार16मई को है] भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में जन्म लिया। उन्होंने अपने पिता से वेदशास्त्रऔर धनुर्विद्या की दक्षता प्राप्त कर ली। आगे कविकुलचायमानसे मल्लयुद्ध सीखा। वे शिवजी को प्रसन्न करने के लिए गंधमादनपर्वत पर तपस्या करने चले गए। अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दिव्यास्त्रों की दीक्षा के साथ परशु और त्रयम्बकदंड भी प्रदान किया और असुरों से मुक्त करने का आशीर्वाद भी। भृगुवंशीव हैहयवंशीक्षत्रियों के बीच पीढियों से शत्रुता थी। हैहयवंशमें ही सहस्रबाहुअर्जुन का जन्म हुआ, जिसकी वीरता की चर्चा चारों ओर थी। ; युद्ध विद्या में पारंगत होने के बाद शिवजी ने परशुराम की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। कई दिनों तक चले द्वन्द्वयुद्ध के दौरान एक दिन त्रिशूल का वार बचाते हुए परशुराम ने शिव के मस्तक पर फरसे से प्रहार कर दिया। शिष्य के इस युद्ध कौशल से गद्गद होकर गुरु शंकर ने परशुराम को गले लगा लिया। इसके बाद शिवजी के अनन्त नामों में एक नाम खंडपरशु भी जुड गया। इधर, सहस्रबाहुअर्जुन के अत्याचार और उत्पीडन से प्रजा त्रस्त हो रही थी। एक दिन वह परशुराम की खोज में जमदग्निऋषि के आश्रम पहुंच गया। परशुराम की अनुपस्थिति में सहस्रबाहुने संपूर्ण आश्रम को जला दिया और वहां बंधी कामधेनु गाय को अपने साथ राजमहल ले गया। यह गाय ऋषि को इंद्र से मिली थी। जब परशुराम आश्रम लौटे, तो उसके नृशंस कृत्य से अवगत हुए। वे अकेले ही महिष्मतीनगरी की ओर चल दिए। परशुराम ने राजमहल के भीतर घुसकर उन्होंने अपने फरसे से सहस्रबाहुअर्जुन की सहस्रभुजाएं काट डाली। कुछ ही समय बाद सहस्रबाहुके पुत्रों, पौत्रों और कई अहंकारी क्षत्रिय राजाओं ने मिलकर जमदग्निआश्रम पर फिर से हमला बोल दिया और उनका वध कर दिया। सांयकालजब परशुराम आश्रम लौटे, तो पिता का शव देखा। वे तुरंत महिष्मतीकी ओर चल पडे। उनके कंधे पर पिता का शव था, तो पीछे थीं विलाप करती हुईं उनकी माता रेणुका। उन्होंने क्रोधित होकर क्षत्रियों का समूल नाश कर दिया। इसके बाद उन्होंने पितृ तर्पण और श्राद्ध क्रिया की। पितरोंकी आज्ञानुसार परशुराम ने अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया। इसके बाद वे दक्षिण समुद्र तट की ओर चले गए। यहीं सह्याद्रिपर्वत पर उन्होंने समुद्र में अपना परशु फेंककर भडौंचसे कन्या- कुमारी तक का संपूर्ण समुद्रगतप्रदेश समुद्र से
दान भेंट में प्राप्त किया।

Monday, October 11, 2010

उठाकर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का





बने हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठाकर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
गले में शील की माला,पहन कर ज्ञान की कफनी
पकड़कर त्याग का झन्डा,रखेंगे मान भारत का
बने हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठाकर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का

जलाकर कष्ट की होली,उठाकर इष्ट की झोली
बनाकर संत की टोली,करे उत्थान भारत का
बने हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठाकर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
स्वरों में तान भारत की,है मुख में आन भारत की
रगों में रक्त भारत का,नयन में मूर्ति भारत की
बने हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठाकर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का

हमारा जन्म हो सार्थक,हमारे मृत्यु का कारण
हमारे स्वर्ग का साधन,यही उत्थान भारत का
बने हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठाकर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का

वन्देमातरम