
रात की खामोशियों को चीरती हुई
एक आवाजहीन धमाके की आवाज़
जिसमे न कोई शब्द है न शोर
हिला देती है दिल की दीवारों को मिलो तक
कुछ यादें व्यतीत से,कुछ अनबीते व्यतीत से
पूछती हैं मुझसे अकेले में
क्या होगा कल?
सोचा है कभी तुमने
कुछ सपने जो पाले थे खुद ने खुद के लिए
अपनों के कुछ,कुछ अपनों के अपनों को
उनका क्या होगा?सोचा है सपने भी?
सपने ही सपनो को सपने बनाते हैं
सोचो इन यादों के हिलते विरानो में
क्या होगा कल,सोचा है कभी तुमने?
सोचो,न सोचोगे ये सोची बातें
तो सोचे भी,सोचों में ही बदल जाएगी
वो सपने,वो अपने,वो अपनों के सपने
नींद खुलते ही विस्तार में सिमट जाएँगी.
फिर क्या होगा?
कहाँ किस तरह रहोगे?
क्या होगा कल,
सोचा है कभी तुमने?
-राहुल पंडित
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