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अगरहो प्यार के मौसम तो हमभी प्यार लिखेगें,खनकतीरेशमी पाजेबकी झंकारलिखेंगे

मगर जब खून से खेले मजहबीताकतें तब हम,पिलाकर लेखनीको खून हम अंगारलिखेगें

Sunday, February 14, 2010

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत: महर्षि दयानंद सरस्वती


महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1975)को गिरगांवबम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणीमात्रके कल्याण के लिए हैं- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वास और रूढियों-बुराइयोंको दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूलवर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धारके पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मांड का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवादके समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूलथे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं तथा फल भोगने में परतंत्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय 1878में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमरग्रंथसत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षणरथे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रांति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा संबंधी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूलहै। महर्षि दयानंद समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्तमें राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति,मिथ्याभाषावादि,कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्षतथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृतिऔर स्वदेशोन्नतिका वह अग्रदूत सन् 1883में दीपावली के दिन इस असार संसार से चला गया तथा अपने पीछे छोड गया एक सिद्धांत, कृष्णवंतोंविश्वमार्यम्सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ उनके अन्तिम शब्द थे-प्रभु तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।
डा. धर्मपाल आर्य महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1975)को गिरगांवबम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणीमात्रके कल्याण के लिए हैं- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वास और रूढियों-बुराइयोंको दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूलवर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धारके पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मांड का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवादके समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूलथे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं तथा फल भोगने में परतंत्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय 1878में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमरग्रंथसत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षणरथे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रांति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा संबंधी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूलहै। महर्षि दयानंद समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्तमें राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति,मिथ्याभाषावादि,कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्षतथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृतिऔर स्वदेशोन्नतिका वह अग्रदूत सन् 1883में दीपावली के दिन इस असार संसार से चला गया तथा अपने पीछे छोड गया एक सिद्धांत, कृष्णवंतोंविश्वमार्यम्सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ उनके अन्तिम शब्द थे-प्रभु तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।
डा. धर्मपाल आर्य महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1975)को गिरगांवबम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणीमात्रके कल्याण के लिए हैं- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वास और रूढियों-बुराइयोंको दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूलवर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धारके पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मांड का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवादके समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूलथे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं तथा फल भोगने में परतंत्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय 1878में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमरग्रंथसत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षणरथे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रांति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा संबंधी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूलहै। महर्षि दयानंद समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्तमें राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति,मिथ्याभाषावादि,कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्षतथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृतिऔर स्वदेशोन्नतिका वह अग्रदूत सन् 1883में दीपावली के दिन इस असार संसार से चला गया तथा अपने पीछे छोड गया एक सिद्धांत, कृष्णवंतोंविश्वमार्यम्सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ उनके अन्तिम शब्द थे-प्रभु तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।
(डा. धर्मपाल आर्य द्वारा साभार)

2 comments:

  1. uncle Ap sunaoge ham vedon ke mantra dikhaynge ya padhwayenge,

    edon men vigyan
    वेंदों में विज्ञान

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  2. मित्र इसमें आपका कोई दोष नहीं,पता है जिस चीज़ को जानने के लिए हमारे महा रिशिओं ने हजारो साल तक सबकुछ छोड़ दिया और उस को तुम अपने विज्ञानं से तौल रहे हो.वाही विज्ञानं जिसके पास आज भी कोई.....छोडो तैलंग स्वामी का नाम सुना है.खोजने की कोशिश करना.जन्म हुआ था १६०७ में और निर्वाण १८८७ में.ये इतिहास की बात नहीं वास्तविकता है. तुम्हारे हिसाब से कोई २८० साल जी भी नहीं सकता न.जिस चीज़ को आप जानना चाहते ह....

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