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अगरहो प्यार के मौसम तो हमभी प्यार लिखेगें,खनकतीरेशमी पाजेबकी झंकारलिखेंगे

मगर जब खून से खेले मजहबीताकतें तब हम,पिलाकर लेखनीको खून हम अंगारलिखेगें

Tuesday, February 9, 2010

सच्चा आध्यात्मिक नायक स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के एक क्रांतिकारी संत हुए हैं। 12जनवरी, 1863को कलकत्ता में जन्मे इस युवा संन्यासी के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था। इन्होंने अपने बचपन में ही परमात्मा को जानने की तीव्र जिज्ञासावशतलाश आरंभ कर दी। इसी क्रम में सन् 1881में प्रथम बार रामकृष्ण परमहंस से भेंट की और उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया तथा अध्यात्म-यात्रा पर चल पडे। काली मां के अनन्य भक्त स्वामी विवेकानंद ने आगे चलकर अद्वैत वेदांत के आधार पर सारे जगत को आत्म-रूप जताया और कहा कि आत्मा को हम देख नहीं सकते किंतु अनुभव कर सकते हैं। यह आत्मा जगत के सर्वाश में व्याप्त है। सारे जगत का जन्म उसी से होता है, फिर वह उसी में विलीन हो जाता है। उन्होंने धर्म को मनुष्य, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए स्वीकार किया और कहा कि धर्म मनुष्य के लिए है,मनुष्य धर्म के लिए नहीं। भारतीय जन के लिए, विशेषकर युवाओं के लिए उन का नारा था -उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक रुको मत।

31मई, 1883को वह अमेरिका गए।

11सितंबर, 1883में शिकागोके विश्व धर्म सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने संबोधन में सबको भाइयो और बहनोकह कर संबोधित किया।

इस आत्मीय संबोधन पर मुग्ध होकर सब बडी देर तक तालियां बजाते रहे। वहीं उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का डंका बजाया, उनका कहना था कि आत्मा से पृथक करके जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करते हैं, तो उसका फल शोक या दु:ख होता है।

अत:हमें सभी वस्तुओं का उपयोग उन्हें आत्मा के अंतर्गत मान कर करना चाहिए या आत्म-स्वरूप मान कर करना चाहिए ताकि हमें कष्ट या दु:ख न हो। अमेरिका में चार वर्ष रहकर वह धर्म-प्रचार करते रहे तथा 1887में भारत लौट आए। फिर बाद में 18नवंबर,1896 को लंदन में अपने एक व्याख्यान में कहा था, मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है।

उनका स्पष्ट संकेत अंग्रेजों के लिए था, किंतु आज यह कथन भारतीय समाज के लिए भी कितना अधिक सत्य सिद्ध हो रहा है? स्वामी विवेकानंद ने धर्म को मात्र कर्मकांड की निर्जीव क्रियाओं से निकाल कर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में लगाने पर बल दिया। वह सच्चे मानवतावादी संत थे। अत:उन्होंने मनुष्य और उसके उत्थान और कल्याण को सर्वोपरि माना। इस धरातल पर सभी मानवों और उनके विश्वासों का महत्व देते हुए धार्मिक जड सिद्धांतों तथा सांप्रदायिक भेदभाव को मिटाने के आग्रह किए।

युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो ताकि स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों में बताए आदर्शो में आचरण कर सको। आज जरूरत है ताकत और आत्म विश्वास की, आप में होनी चाहिए फौलादी शक्ति और अदम्य मनोबल।

विवेकानंद ने शिक्षा को अध्यात्म से जोड कर कहा कि जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र बने, मानसिक बल बढे, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खडा हो सके।

पराधीन भारतीय समाज को उन्होंने स्वार्थ, प्रमाद व कायरता की नींद से झकझोर कर जगाया और कहा कि मैं एक हजार बार सहर्ष नरक में जाने को तैयार हूं यदि इससे अपने देशवासियों का जीवन-स्तर थोडा-सा भी उठा सकूं।

इस प्रकार एक सच्चे भारतीय संत की मर्यादा के अनुरूप स्वामी विवेकानंद ने अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी तथा भूख से लडने के लिए अपने समाज को तैयार किया तो राष्ट्रीय चेतना जगाने, सांप्रदायिकता मिटाने, मानवतावादी संवेदनशील समाज बनाने की एक आध्यात्मिक नायक की भूमिका निभाते हुए 4जुलाई सन् 1902में कुल 39वर्ष की आयु में अपनी इहलीला समाप्त की।

(डा. बलदेव वंशी द्वारा साभार)

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