आज स्वर्ग को देखा मैंने
अपनी कल्पनाओ से एकदम विपरीत
अस्तित्व के लिए तड़पते हुए
स्वर्ग
धरती का स्वर्ग
कश्मीर कहतें हैं जिसको
पढ़ा था पुस्तकों में जिसको
जिसकी अनंत सुन्दरता को
देखा उसको मैंने आज
नज़दीक से छूकर
वर्फ आज भी थी
वह पिघ्हल कर अशुओं की तरह बह रही थी
पुस्तकों में पढ़े हुए वाही शेब के बाग
पर उनमे वो मिठास कहाँ?
वाही डल-झेलम के सिकरे
पर वो भी डर-डर कर चल रहे थे
फूलों में सुगंध आज भी थी
पर बारूद की
स्वर्ग को देखा मैंने
जो स्वर्गत्व को छोड़कर मुर्दों की तरह खड़ा था.
पुराने दिनों को सोचकर रोना उसकी जिन्दगी बन गई.
-राहुल पंडित
No comments:
Post a Comment