Friday, March 19, 2010
एक सिक्का
रोड पर बैठे हुए,
हाथ में खाली कटोरा
बन दया का पात्र जग में,
वह धूप में बैठा हुआ था.
रास्ते पर चहल कदमी,
कम नहीं तो अधिक भी ना.
मई की उस तीक्ष्ण गर्मी में,
था मैंने उसको देखा.
देख कर पहली नज़र में,
आदमी कहना कठिन था.
बना ढाचा अस्थिओं का,
मार्गिओं को देखता वह.
लोग आते,लोग जाते.
पर न कोई देखता था.
वह करून चीत्कार करता.
पर न कोई सोचता था.
जब कोई गुजरा बगल से,
आशनाई साथ आई.
पर क्षणों को बितने पर,
आँख में आई रुलाई.
मैभी गुजरा उस डगर से,
ढक बदन को बासनो से.
सेख उसको दया आई.
फेक दिया एक रुपिया.
पर मुड़कर दुबारा,
उसकी तरफ मैंने न देखा.
पैसा उठाया न उठाया,
इसकी मुझे चिंता नहीं थी.
चला आया घर पर अपने,
मुह धो पंखा चलाया.
ले मजा शीतल पवन का ,
खाना खाकर सो गया मै.
शाम को जब नींद टूटी,
घडी ने रहा पांच बजाया.
शाम का अख़बार लेकर,
द्वार से हाकर पुकारा.
लिए पेपर बढ़ चला मै.
सरसरी नज़रों से देखा.
पढ़ खबर मृत भिखारी की.
दिल में मेरे हलचल मची थी.
एक रूपए फेककर मै,
मार्ग में आगे बढा था.
लुढ़ककर वह काल सिक्का,
सड़क के था मध्य पंहुचा.
सिक्के की लालच,
सड़क पर उसे खीच लाई.
कुछ क्षणों के बाद में ही,
तेज़ गति मोटर तब आई.
मार दी टक्कर उस,
वह की जंग जीता.
पर ये घटना आज भी मेरे,
उर को शालती है..
-राहुल पंडित
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ReplyDeleteमार्मिक!!
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