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मगर जब खून से खेले मजहबीताकतें तब हम,पिलाकर लेखनीको खून हम अंगारलिखेगें

Thursday, October 28, 2010

कुछ भूले विसरे पन्ने से:हिंदुत्व के वे योद्धा जिन्हें हम भूल गए.-२

जैसा की मैंने आपको अपने पिछले पोस्ट में हिंदुत्व के तीन महान योद्धावों/वीरांगनाओं की जानकारी दी.उसी सीरीज का यह दूसरा पोस्ट उन असंख्य कारसेवकों को समर्पित जो अपने राष्ट्र की पुरातन परम्पराओं को जीवीत रखने के लिए अपना सब कुछ स्वाहा कर दिए और करने को तैयार हैं...



पालीताणा की हुतात्मा -डॉ. रामसनेही लाल शर्मा


गुजरात का छठवां सुल्तान महमूद बेगड़ा बड़ा क्रूर, निर्दय, धर्म द्रोही और दुर्दान्त शासक था। वह भयंकर हिन्दू विरोधी था। इसने अपने राज्य का बड़ा विस्तार किया। यह ऐसा भोजन भट्ट था कि इसके खाने की मात्रा को लेकर पूरे देश में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हो गई थीं। प्रसिद्ध उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा के अनुसार वह १५० केले, एक सेर मक्खन और एक सेर शहद तो जलपान में ही लेता था और पूरे दिन में लगभग एक मन अन्न खाता था। इसी महमूद बेगड़ा ने पावागढ़ और जूनागढ़ के किले जीत लिए। इन दोनों स्थानों और अपनी सेना के मार्ग में पड़ने वाले हिन्दू मंदिरों को उसने तोड़ डाला। निर्ममतापूर्वक हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया और फिर उसकी सेना पालीताणा की ओर बढ़ने लगी। पालीताणा में जैनों का प्रसिद्ध तीर्थराज शत्रुंजय स्थित है। बेगड़ा उसी विशाल मंदिर को तोड़ने आ रहा था। पालीताणा के लोगों तक यह समाचार पहुँचा तो वे काँप गए। जैनों की एक बड़ी सभा हुई। शत्रुंजय को बचाने के उपाय सोचने लगे परन्तु उस दुर्दान्त आततायी के हाथों मंदिर को बचाने का कोई उपाय समझ में नहीं आया। जैन समाज किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। किसी बुद्धिमान जैन सज्जन ने कहा कि अब तक इस संकटकाल में शत्रुंजय की रक्षा केवल पालीताणा के ब्रह्मभट्ट ही कर सकते हैं। पालीताणा के ब्रह्मभट्ट बड़े धर्मप्राण, विद्वान्‌, संघर्षशील और हठी के रूप में प्रसिद्ध थे। जैन समाज के सभी संभ्रान्त जनों ने ब्रह्मभट्टों की शरण ली और उनसे अपने तीर्थराज को बचाने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि इस आततायी सुल्तान की सेना के सम्मुख हम जैन असहाय हैं। आप जैसे विद्वान्‌ और धर्मरक्षक हमारे तीर्थ की रक्षा कीजिए। ब्रह्मभट्टों ने उन्हें शत्रुजय की रक्षा का वचन दिया और सबसे वृद्ध ब्रह्मभट्ट ने उन्हें धर्म पर अपना बलिदान करने को प्रेरित किया। अहिंसक विरोध के द्वारा तीर्थराज की रक्षा का निश्चय हुआ क्योंकि रक्तलोलुप, धर्मद्रोही, क्रूर सेना का सशस्त्रु विरोध कोई अर्थ नहीं रखता था।
दूसरे दिन निश्चित समय पर पालीताणा के एक हजार ब्रह्मभट्ट शत्रुंजय की तलहटी में एकत्रु हुए। प्रत्येक बलिदानी ब्रह्मभट्ट श्वेत अंगरखा पहले चंदन चर्चित भाल और गले में रुद्राक्ष की माला धारण किए था। सबकी कटि में कटारें थीं। सुल्तान बेगड़ा को इन दृढ़ निश्चयी ब्रह्मभट्टों के तलहटी में एकत्रु होने का समाचार मिल गया। अब बिना मंदिर तोडे आगे बढ़ना उसे अपना अपमान लगा। वह सेना सहित तलहटी में पहुँचा। सबसे आगे घोड़े पर सवार बेगड़ा मंदिर की सीढ़ियों के नीचे तक चला आया। सर्वाधिक वृद्ध ब्रह्मभट्ट ने आगे बढ़कर उसकी प्रशंसा की और उससे ब्रह्मभट्टों के सम्मान की रक्षा का आग्रह किया परन्तु धर्मद्रोही बेगड़ा इसे सुनकर और अधिक क्रोधित हो गया। उसने सैनिकों को उस वृद्ध को घसीट कर रास्ते से हटाने का आदेश दे दिया। सिपाही आगे बढ़े परन्तु जब तक वे उस पवित्र वृद्ध का शरीर छूते उसने ÷जय अम्बे' का वज्रघोष किया और कमर से कटार निकालकर अपने पेट में घोंप ली। रक्त का फव्वारा फूट पड़ा और खून की कुछ बूंदे सुल्तान के चेहरे पर भी पड़ीं। उस हुतात्मा के मृत शरीर को बगल में छोड़कर सुल्तान आगे बढ़ने को तत्पर हुआ तभी अगली सीढ़ी पर खड़े दूसरे ब्रह्मभट्ट ने 'जय अम्बे' का प्रचण्ड उद्घोष कर कटार निकाल कर अपने पेट में घोंप ली। सुल्तान एक बार तो हतप्रभ रह गया और उसकी गति रुक गई। वजीर ने उसे ब्रह्मभट्टों की धर्मप्राणता और हठधर्मिता के विषय में समझाया। परन्तु अपने मुल्ला-मौलवियों का रुख देखकर सुल्तान मानने को तैयार नहीं हुआ। उसका अनुमान था कि दो-चार लोगों के मरने पर ब्रह्मभट्ट भयभीत होकर वहाँ से चले जाएंगे। वह आगे बढ़ा परन्तु तीसरी सीढ़ी पर एक कोमल कमनीय काया, कामदेव के सौन्दर्य को अपनी सुन्दरता लजाने वाला हँसता हुआ दृढ़ निश्चयी षोडष वर्षीय किशोर खड़ा था। सुल्तान जब तक उसके पास पहुँचे उसने 'जय अम्बे' का उद्घोष किया और कटार पेट में घोंप ली। उसके गर्म रक्त से सुल्तान सिर से पाँव तक नहा गया।
यह अकल्पनीय दृश्य देखकर सुल्तान महमूद बेगड़ा का कलेजा हिल गया। वह भीतर तक काँप गया। इन हुतात्माओं की आत्माहुति ने उसे झकझोर दिया। वह पीछे लौटा और उसने अपने सरदारों को आदेश दिया कि मार्ग में खड़े सभी ब्रह्मभट्टों को कैद कर लिया जाए। सुल्तान का आदेश का पालन करने के लिए उसका सरदार खुदाबन्द खान जैसे ही आगे बढ़ा कि एक सत्तर वर्षीय वृद्ध ने कटार से अपना पेट चीर डाला और अपनी आँतों की माला खुदाबन्द खान के गले में डाल दी। बौखलाकर सरदार ने माला अपने गले से उतार दी और अगली सीढ़ी पर खड़े जवान को पकड़ने को आगे बढ़ा। जब तक खुदा बन्दखान उसके पास पहुँचे कि उसने वज्रनिनाद में ÷जय अम्बे' का घोष किया और कटार अपने पेट में घोंप ली। अब स्थिति यह हो गई कि ज्यों ज्यों बौखलाकर खुदाबन्द खान अगली सीढ़ी की ओर बढ़ता कि वहाँ खड़ा ब्रह्मभट्ट कटार से अपनी आत्माहुति दे देता था। इस तरह ८ लोगों ने बलिदान कर दिया। ब्रह्मभट्टों के इस रोमांचकारी अकल्पनीय आत्म बलिदान को देखकर खुदाबन्द खान भी काँप गया। वह पीछे लौटा और उसने सुल्तान बेगड़ा से लौट चलने की प्रार्थना की। क्रोधित और दिग्भ्रमित सुल्तान ने अपने खूंखार, निर्दयी और पाशविक वृत्तियों वाले सैनिकों को छाँटकर सभी ब्रह्मभट्टों को मारने का आदेश दिया। अब शत्रुजय की सीढ़ियों पर 'भूतो न भविष्यति' जैसा महान्‌ दृश्य था। महमूद के सैनिक जिस सीढ़ी के पास पहुँचते उसी पर खड़ा ब्रह्मभट्ट 'जय अम्बे' का तुमुलनाद कर आत्माहुति दे देता। इन वीर हुतात्माओं के इतने शव देखकर सुल्तान बेगड़ा घबरा गया। उसी समय एक ग्यारह वर्षीय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति वहाँ आई और उसने सुल्तान बेगड़ा की भर्त्सना करते हुए उसे धिक्कारा। उसने कहा! दुरात्मा महमूद तू तो गुजरात का पालक था फिर तू ही घातक कैसे बन बैठा। तूने अपनी धर्मप्राण जनता के खून से अपना कुल कलंकित कर लिया। यदि अभी भी तेरी प्यास नहीं बुझी तो देख एक हजार पालीताणा के और हजारों की संख्या नीचे तलहटी में खड़े ब्रह्मभट्ट अपना बलिदान देने को तत्पर खड़े हैं। ऐसा कहते-कहते उस बालिका ने 'जय अम्बे' का जयघोष करके अपने हाथों से अपना मस्तक उतार कर फेंक दिया। इस असीम साहस की प्रतिमूर्ति नन्हीं बालिका की आत्माहुति देखकर सुल्तान काँप गया। उसके साहस ने जवाब दे दिया। उसने काँपते कण्ठ से अल्लाह से अपने अपराध की क्षमा याचना की और सेना को लौट चलने का हुक्म दिया। उसी दिन से महमूद बेगड़ा ने अपने राज्य मे किसी भी धर्म के धार्मिक स्थल को नष्ट करने पर प्रतिबंध लगा दिया।
शत्रुंजय तीर्थराज में १०७ ब्रह्मभट्टों और एक कुमारी ने स्वेच्छा से आत्माहुति दी थी। उसी दिन से जैन समाज ने शत्रुजय की फरोहिती पालीताणा के ब्रह्मभट्टों को सौंप दी। शत्रुंजय का यह तीर्थराज आज भी हुतात्मा ब्रह्मभट्टों की जयकथा कह रहा है।



वीर छत्रसाल की मां लालकुवरि



भाभी भाभी । अरे देखो तो । कोई अश्वारोही इधर ही तेजी से घोड़ा दौड़ाता चला आ रहा है । भैय्‌या तो हो नहीं सकते । इतनी जल्दी लौटकर आ भी कैसे सकते है? हो न हो कोई शत्रु हो । सैनिकों को सावधान करना होगा । भाभी का हाथ अपनी ओर खीचते हुए उसकी नंनद बोली । स्त्री का रोम रोम सिहर उठा । अब क्या होगा ? लाली । हांफती हुई वह बोली ।

नाहक घबराती हो, भाभी। होगा क्या? मैं तो हूं ही लालकुंवरी ने उसको ढाढस बंधाया । टपटपटपट पट् खट् खट् अश्व के टापों की आवाज समीप आती स्पष्ट सुनाई देने लगी थी । काया का धुंधला धुंधला सा चेहरा भी दिखई पड़ने लगा था ।शीतला ने दूर दूर तक आंखो गढ़ाकर अपनी दृष्टि दौड़ाई यकायक उसक मुरझाया हुआ मुखड़ा खिल उठा । अरी नही री । ये तो वहे ही हैं तेरे भैय्‌या । उतावली में शीतला अपनी नन्द से बोलीं ।
संभवतः सन १६३५ में किसी शाम का वह किस्सा है । गढ़ी के बुर्ज पर दोनो स्त्रियां खड़ी शत्रु की गविधियों की टोह ले रही थीं यह गढ़ी ओरछा के राज्य के अन्तर्गत थी । यहां का गढ़पति था अनरुद्ध । लालकुंवरी का भाई । शीतला थी अनिरुद्ध की पत्नी वह हाल में वधू बन कर आई थी । शीतला से यही कोई दो तीन साल छोटी लालकुवरी रही होगी । समवयस्क होने के नाते ननद भाभी में सहेलियो जैसा अपनापा बन गया था । शीतला स्वभाव से कुछ भीरु और रसिक थी । इसके विपरीत लालकुंवरि निर्भीक औरसाहसी थी । बचपन से ही भाई के साथ उसे तलवारबाजी और भाला चलाने का अभ्यसास कराया गया था । भाई और बहिन में अतिशय प्रेम था । उस समय देश में मुसलमानों का राज्य था ।उनका बुंदेलखंड पर पूर्णरूप से अधिकार हो चुका था । फिर भी उसको स्वतंत्र कराने का प्रयास चल रहे थे । मुगलों के विरुद्ध ऐसे ही एक मोरचे पर अनिरुद्ध युद्ध करने को गया था । अपनी अनुपस्थिति में गढ़ की सुरक्षा का भार वह बहिन को सौंप गया था ।शीतला और अनिरुद्ध का नया नया विवाह हुआ था । उसके हाथों की मेंहदी अभी सूख भी नहीं पायी थी कि पति को युद्ध में जाने का न्यौता मिला था ।वह उद्धिग्न हो उठी उसने पति को प्रेमपाश में बांधनाचाहा था ।नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी । बड़ी बड़ी सुंदर आंख से झरते अरु बिंदुओं को देख अनिरुद्ध का मन भी अंदर अंदर कच्चा पड़ने लगा था ।
पता नही युद्ध का क्या परिणाम हो ? विवाह का सुख क्या होता है । यह उसने अभी जाना भी न था । यद्यपि युद्ध में मरने मारने की घुट्टी क्षत्रियों को घूंटी में ही पिलाई जाती है । राजपूत सैनिकों के जीवन और मृत्यु के बची का फासला बहुत कम होता है ।उसके सामने एक ओर था प्रणय और दूसरी ओर कर्तव्य । दुविधा में फंसा था उसका मन । भाई की दुर्बल मनःस्थिति को बहिन ताड़ गयी । लाल कुंवरि ने कहा भैयया इसी दिन के लिए ही तो क्षत्राणियां पुत्रों को जन्म देती हैं बहने । भाइयों को राखी बांध कर हंस हंस कर रण भूमि के लिए विदा करती हैं क्या क्षणिक मोह में पड़कर मेरा भाई कर्तव्य से विमुख हो जाएगा ।? नहीं भइया नहीं । तुम जाओं देष की धरती तमुमको पुकार रही ह। चिंता न करो । मैं और भभ्ी गढ़ को सम्हाल लेंगी । राजपूतनियां अपना अंतिम कर्त्रव्य भी अच्छी प्रकार से निबाहना जानती हैं । मेरे जीवित रहते शत्रु गढ़ी में प्रवेश नहीं करेगा । आप निष्चिन्त रहे । लालकुंवरि यद्यपि शीतला से थी तो छोटी ही पर उसके विचारों में आयु से अधिक परिपक्वता और प्रौढ़ता आ गयी थी । बहिन की ओजस्वी वाणी को सुनकर भाई की भुजाएं फड़क उठी । गर्व से सीना फूल गा । मन पर पड़ा क्षणिक मोह का अवरण काई के समान फट गया । रणबांकुरा युद्ध के मोरचे पर चल पड़ा ।
शीतला नेत्र सके पति को युद्ध भूमि में जाने के लिए प्रेरित करने पर ननद को खरी खोटी सुनाई थी तभी से वह लाली से चिढ़ी हुई थीं भाभी के हृदय को बीधने वाले वाक्यों को लाली ने हंसते हंसते पी लिया था । दोनो जल्दी जल्दी बुर्ज से नीचे उतरी । गढ़ी के दरवाजे पर जा पहुंची । तब तक घुड़सवार फाटक पर आ पहुंचा था । वह अनिरुद्ध ही था । उसमें उत्साह की झलक न देख बहिन का माथा ठनका । भैयया थोड़ा रुको मैं अभी आरती लेकर आती हूं । आप युद्ध में विजयी हाकर लौटे हैं वह भाई से बोली । सहोदरा की बात सुन अरिरुद्ध का मुख स्याह पड़ गया । गर्दन नीचे को झुक गयी । लज्जित हो वह बोला नहीं बहिन मैं किसी तरह से शत्रुओं से बच भागकर यहां आया हूं । वह भयभीत होकर रण भूमि से भाग निकला है यह सुन लालकुंवरि को जैसे सहस्रों बिच्छुऒं ने उंक मार दिया धिक्कार हैं तुम्हें । शत्रु को रण में पीठ दिखाकर भागने से तो अच्छा है कि मेरा भाई कर्तव्य की वेदी पर लड़ते लड़ते बलि चढ़ जाता । मां के दूध को लजानेमे तुम्हें शर्म नहीं आई । तुम कोई और हो मेरे भाई तो तुम कदापि नहीं हो सकते ।वह तो शूरवीर है । कायर नहीं । उसके वेश में अवश्य को छद्मवेषी है । तुम्हारे लिएदुर्ग का द्वार नहीं खुल सकता । बहिन भाई पर क्रुद्ध सर्पिणी सी शब्द बाण ले टूटपड़ी थी । पहरेदारों को उसे आदेश दिया ।किले का दरवाजा मत खोलों इस समय इसकी रक्षा का दायित्व मेंरे उपर है । मेरी आग्या का पालन हो । बहिन की प्रताड़ना सुन अनिरुद्ध पानी पानी हो गया थ । वह उसी समय वापिस लौटपड़ा । शीतला ननद पर क्रोध से बिफर पड़ी तूने यह अच्छा नहीं किया लाली । कितने थके थे वे ? अगर तेरे पति होता तू इतना उपदेश नहीं देती । दौड़ कर उसे अपने अंक में छिपा लेती । किसी को उसकी हवा भी न लगने देती । भगवान न करे वह दिन आए । यदि मेरा पति इस प्रकार से भीरुता दिखा, भाग कर छिपने को आता तो सच कहती हूं भाभी। तेरी सौगंध मैं उसकी छाती में कटार ही भोंक देती । और फिर उसके साथ ही अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर डालती । लाकुंवरी ने अति शांत स्वर में प्रत्युत्तर में कहा । वातावरण बड़ा गंभीर हो गया था। कुछ समय पष्चात वह फिर बोली भाभी क्षमा करो । आप के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने वाली मैं कौन हूं किन्तु क्या करूं मुझे ऐसी ही शिक्षा और संस्कार भैय्या ने दिए हैं उनकी ही बात मैने उनको स्मरण करा दिया था । हम दोनों ईश्वर से प्रार्थना करें वे विजयी होकर सकुशल घर वापिस लौटें उसने स्नेह से भाभी का हाथ पकड़ लिया ।
लालकुंवरी क्या जानती थी विधाता एक दिन उसकी इसी प्रकार परीक्षा लेगा । बहिन की प्रताड़ना और उलाहना अनरुद्ध के कानों में बार बार गूंजने लगी । उसे वीर मन पर दुर्बलता की पड़ी राख झड़ चुकी थ दहकतेअंगारे समान उ सका पौरुष दहक उठा था । उ सने पुनःपुनः अपनी सेना ऐकत्रित की । चोट खाए घायल सिंह के समान शत्रु सैनिको पर टूटपड़ा । शत्रुओं को मुंह की खानी पड़ी । वीर की भांति विजयी होकर वह घर वापसी लौटा । भाई की विजय का समाचार सुन लालकुवरि कर रोम रोम पुलतित और हर्षित हो उठा था । सर्वत्र अनिरुद्ध की जयजयकार हो रही थी । विजय के डके बज उठे थे । जनता विजय का श्रेय उसको देती तो अनिरुद्ध कहता नहीं भाई इसकी वास्तविक अधिकारी है मेरी यह छोटी बहिन। बहिन ने द्वारपर विजयी भाई की आरती उतारी अपने द्वारा प्रयोग किए गए तीखे शब्दों पर उसने भाई से क्षमा मांगी । अनिरुद्ध मुसकराया औ हल्की से बहिन को चपत लगाई बोला बहिन तूने ठीक किया थ । उस समय तो सचमुच तूने मेरी मां का उत्तरदायित्व ही निभाया । मैंधान्य हो गया तुझ सी छोटी बहिन पाकर । अच्छा चलचल बड़ी बड़ी भूख लगी है पहले जलपान ला । प्रमुदित मन से भागी लाली । भैय्या प्रसन्नता में यह तो मैं भूल ही गयी थी । कितना अच्छा भाई था उसका । किसी को भी ईर्ष्या होती उस पर उसने बहिन को उठा लिया । सिर पर हाथ फेरा । तत्पश्चात स्वयं बहिन के पैर छू लिए । असे भैय्‌या । यह क्या उल्टी गंगा बहा रहे हो लाली बोली चुप । शैतान की बच्चीकी अब जल्दी मुझे तेरे पैर पूजन है तुझे यहां से खदेड़ना है । पति के घर । अनिरुद्ध की रस भरी बाते सुन लाली बोली , हूं बड़े आए भेजने वाले शर्म से आंख नीचे कर वह भागी । कुछ समय बाद ही लालकुंवरि का चम्पतराय से विवाह हो गया । भाई ने बड़ी धूमधाम से बहिन को पति गृह के लिए विदा किया था वह वह पतिगृह महोबा आई ।
बुदेलखंड और मालवा में अनेकों छोटे छोटे राज रजवाड़े थे । बुंदेले आपस में लड़ते । मुस्लिम आक्रान्ताऒं केआधीन भयग्रस्त और आतंकित हिन्दू राजाओं को संगठित करने और मुगलों से देष की धरती को मुक्त कराने को वीरांगना लालकुंवरि पति को सदा प्रेरित करती रहती । वह भी स्वयं युद्ध में पति केसाथ जाती । बड़ी अच्छी जोड़ी थी दोनों की । स्वाधीनता के इन परवानों की । हिन्दू समाज को शक्ति सम्पन्न बनाने का महान लक्ष्य थाउनके सामने । उ न्होंने ओरछा का मुक्त कराने में स्वर्गीय वीर सिंह का पूरा सहयोग दिया था ।
शाहजहां के स्थान पर औरंगजेब शासनरूढ़ हुआ । हिन्दू शक्ति को कैसे सहन करता ? चम्पतराय को जिंदा या मुर्दापकड़ने की उसेन घोषणा की थी । लोगों को बड़े बड़े पुरस्कार देने के लिए प्रलोभन दिए गए थे । चम्पतराय कभी जय तो कभी पराजय के बीच झूल रहे थे । इतने बड़े साम्राजय से टक्करक वे ले रहे थे ।यह कोई सरल काम नहींथा । बड़ा पुत्र सारवाहन तो स्वतंत्रता की बलिवेदी पर पहले ही बलि चढ़ गया था । उस समय छत्रसाल की आयु केवल ६ वर्ष की थी । अनवरत घोड़े की पीठ पर संघर्ष करते करते उनका शरीर पूरी तरह से टूट चुका था । उनकी शक्ति भी क्षीण हो गयी थी अपने भी पराये बन गए थे । पर वाह रे भारत मों के सपूत । तूने शत्रुओं के सामने घुटनेनहीं टेके । इसीलिए इतिहास में तू अमर हो गया । देश भक्तों को प्रेरणा स्रोत बन गए । मुगल सेना लगातार पीछा कर रही थीं औरंगजेब ने सभी रजवाड़ों को धमकी दे रखी थी कियदि किसी ने भी चम्पतराय को शरण दी तो उसको नेस्तानाबूत कर दिया जाएगा । जिनके लिए उन्होंने पूरा जीवन दिय वे ही उसकी जान के पीछे पड़ गए । ओरछा के सुजना शुभकरण आदि मुगल फौजदार नामदार खां के साथ उनको जीवित या मुर्दा पकड़ कर मुगलों को सौंप कर पुरस्कार पाने की आशा में जी जान से लगे थे । मालवा में सहरा नामाका एक छोटा सा राज्य था वहां का राजा था इन्द्रमणि धंधेरा । वह चम्पतराय का मित्र था । चम्पतराय को तीव्र ज्वर चल रहा था । कई दिनों से पीछा नहीं छोड़ रहा था । उन्होंने सोचा कि किसी गुप्त स्थान पर कुछ दिन रहकर विश्राम करू । शक्ति का संचय कर पुनः शत्रु पर टूट पड़ूं इन्द्रमणि किसी युद्ध में बाहर गया हुआ था या पता नहीं उसका न मिलना संयोग था या जानबूझ कर ही वह वहां से निकल गया थाबात चाहे जो भी हो। उसे सहायक साहबराय धंधेरा ने चम्पतराय का बड़ा स्वागत सत्कार किया । वे अभी टिक भी नहीं पाए थे कि गुप्तचरों से संदेश मिला कि सुजान सिंह बुंदेला मुगल सेना के साथ पीछा करता बढ़ा चला आ रहा है । कुछ धंधेरों और सैनिको के संरक्षा में वे मोरन गांव की ओर चल पड़े । उनको अष्व पर चलन कठिन हो रहा था ।अतः पलंगपर लिटा कर उन्हें ले जाया गया । लालकुवरि अष्व पर सवार हो नंगी तलवार लिए पति की सुरक्षा के लिए साथ साथ चल रही थी। साहबराय कदाचित सुजानसिंह ओर मुगलो की धमकी में आ गया था । उसने कुछ धंधेरो को मार्ग में ही चम्पतराय की हत्या करने का संकेत कर दिया था । धंधेरे सैनिक भयभीत हो गए । यद्यपि इस जघन्य कृत्य करने का उनक मन नही कह रहा था । पर हाय रे । विष्वासघात । उन में से कुछ निकल ही आए । मुगलों ओर ओरछा का कोपभाजन कौन बने ? वे धोखा देकर चम्पतराय को मारने को लपके । कौन कहता है कि स्त्री अबला होती है । विष्वास घाती धंधेरे सैनिकों अबला अतिबला बनकर टूट पड़ी । उनके मुंह धरतीपर गिर पड़े । रानीके साथ निष्ठावान बुदेंले सैनिक थे । बचेखुचे धंधेरे उनको अकेला छोड़ भाग निकले । कई बुंदेले वीर शहीद भी हो गए । तब तक मुगल सैनिक भी आ चुके थे । बड़ी कठिन परीक्षा की घड़ी उपस्थित हुई केवल बस एक ही मार्ग शेष था आत्मसमर्पण या आत्तमर्पण का । चम्पताराय नेआत्मार्पण क निश्चय किया । शत्रुओ से पूरी तरह से अपने को घिरा हुआ देख वेसमझ चुके थे कि अब उनके जीवन क खेल खत्म हो चुका है । उनका शरीर इतना अशक्त था कि हाथ उठाने की क्षमता भी उनके शेष नहीं बची । अति क्षीण स्वर में वे पत्नी से बोले , लाली । तूने एकसहधर्मिणी के समान जीवन भर मेरा साथ दिय । अब क्या इस अंतिम बेला में ये विधर्मी मेरे शरीर को भ्रष्ट करेंगें स्वतंत्रता के लिए जीवन पर्यन्त लड़ने वाला अब क्या जंजीरों में बांध कर दिल्ली की सड़को पर घुमाया जाएगा ? मैं स्वतंत्र हूं स्वतंत्र ही रह कर ही मरना चाहता हूं । ओ । बड़ा दुस्सह होगा वह क्षण । उठाओं खंजर भोंक दो । मेरे सीन में । विलम्ब नहीं करो । पति की बात सुन लाकुंवरि विचलित हो गयीं । हे विधाता कैसी अग्नि परीक्षा है अब क्या अंतिम क्षणों में पतिहंता भी बनना पड़ेगा । मन में तूफान का वेग उमड़ पड़ा था चम्पतराय पत्नि के मन की दशा को समझ गए । किसी भी सती साध्वी पतिव्रता नारी के लिए अपने पति की हत्या करना बड़ा कठिन होता है । लाली तू वीर पत्नी है । सिंह पुत्रों की मां अब सोचने का समय नही है दूसरा कोई चारा नहीं जल्दी उठा खंजर । उखड़ते स्वर में वे बोले थे ।
लालकुंवरि को भाभी के ताने स्मरण हो आए थे । भाभी को कहे गए अपनेशब्द याद आएं अगर मेरा पति कायरता दिखातो तो सचमुच उसके सीन में कटार चुभो देती । पर वह कायर तो नहीं । नर श्रेष्ठ है वीर पुंगव क्या करें ? रानी के हाथों में कटार चमकी । पति के वक्षस्थल की ओर बढ़ी । तभी भगवान ने उसे पतिहंता के पाप से उबार लिया ।पत्नी की असमंजसता को देख चम्पतराय के अशक्त हाथों में अकस्मात न जाने कैसे एक विचित्र शक्ति आ गयी थी ।रानी का खंजर उनके सीन में चुभे कि उसके पूर्व ही उनकी स्वयं की कटार वक्षस्थाल में समा गयी । बिजली की गति से लाल कुवरि ने अपना बढ़ा खंजर स्वयं अपने सीने में उतार दिया । उसका शरीर निर्जीव होकर पति के चरणोमे गिर पड़ा । दोनो चिर निद्रा में मग्न हो गए थे मुगल आंख फाड़े इस अनोखे बलिदान को देख रहे थे । अवाक और स्तब्ध । आकाश में दो सितारे टूटे । क्षितिज में एक सिसे से दूसरे सिरे तक चमक कर लुप्त हो गए । उसके साथ हीदो सवीर आत्माए भी अनंत आकाश में विलीन हो गयी०। ६ नवम्बर १६६९ का वह दिन था ।चम्पतराय आरे लालकुवरि के हृदयों मे स्वतंत्रता का जो दीप जल रहा था उससे अंसख्य दीप ज्योतित हो उठे । वह दहका गयी बुंदेलों के हदयों मे तीव्र ज्वाला को । छत्रसाल के रूप में वह दावानल बन कर बह निकली प्राणनाथा प्रभु उसका सही राह पकड़ाई कालान्तर में उसकी तुफान में ध्वस्त हो गया मुगल साम्राज्य ।

2 comments:

  1. अच्छे दृष्टान्त हैं, लेकिन आतताईयों को मारने के स्थान पर खुद प्राण न्यौछावर करना शायद उचित नहीं था.

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  2. अच्छी पोस्ट',
    ऐसे बहुत से उद्दहरण है जहा पर शत्रु को मार मार कर भगा दिया या वीरतापूर्वक बलिदान हो गए .
    राजा सुहलदेव के बारे में कितने लोग जानते है ????????
    लखनऊ के पास बाराबंकी में में एक बड़ी प्रसिद्द मजार है जहा हर वर्ष बहुत से मुर्ख हिन्दू मन्नत मागने जाते है .उन को बताया जाता है की ये एक बड़े पीर थे . उसी शहर में राजा सुहलदेव का मंदिर है jise बहुत kam लोग जानते है
    बाराबंकी में पहले सूरजकुंड नामक बड़ा धार्मिक स्थल था जिस में प्रतिवर्ष लाखो श्रद्धालु स्नान करते थे .अरब के शाशक का सेनापति भारत एक बड़ी सेना के साथ आया . वे भारत में ४ भागो में बात कर मार कट करने निकल गए. सेनापति हजाज पहले ही कह चुका था की एक बड़े काफिरों का केंद्र जब तक नष्ट न कर लू मुझे चैन नही आएगा .वह अपनी सैन्य टुकड़ी (करीब १०००००
    ) के साथ बाराबंकी की तरफ बढ़ने लगा .अब तक उसे कही पर भी प्रतिरोध का सामना नही करना पड़ा था .उस का मानना था की औरो की तरह छोटी सी सेना होने के कारण वहा का राजा सुहलदेव जान बचा कर भाग जायेगा .पर सुहलदेव के हिन्दू सैनिक ने म्रत्यु तक लड़ने का प्राण किया . बेफिक्र हज्जाज अपने सैनिको के साथ जब बाराबंकी के निकट पंहुचा अचानक सुहलदेव की सेना ने इतना जोरदार आक्रमण किया की सेना में भगदड़ मच गयी .उन को प्रतिरोध की आशा न थी .अधिकांश आक्रमणकारी मारे गए .और बचे हुए जाकर अपनी सेना से गुहार लगाये .
    अब चारो भाग मिल कर फिर से एक हो गए और आगे बढ़ने लगे .राका सुहलदेव भी हार मानने वाले नही थे . उन्हों ने राजाओ का एक संघ बनाया और के सेना संगठित की .जब आक्रमणकारी कोई प्रतिरोध न देख उत्साहित हो कर काफी अन्दर आ गए तो हिन्दू सेना ने चारो तरफ से घेर कर पूरी सेना साफ कर दी .एक भी सैनिक जिन्दा न बचा गुहार लगाने के लिए .
    तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार लिखते है की '' इन मरदूदो ने एक भी मोमिन न छोड़ा'' .और भी बहुत सी गालिया प्रयोग की थी .
    जब मुस्लिम शाशन आया तो क्यों की वह इस्लाम के लिए शहीद हुआ था अतः उस पीर घोषित कर उस की मजार बनवा दी गयी .
    विना इतिहास जाने मुर्ख लोग उस दुष्ट की मजार पर मन्नत मागने जाते है

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