इस जानकारीपरक लेखमाला की कड़ी में मै आपलोगों को हिंदुत्व के कुछ ऐसे योद्धाओं से परीचित कराने की कोशिश करूँगा जिन्होंने हिंदुत्व की रक्षा के लिए अपना सबकुछ अर्पण कर दिया और आज धर्मनिरपेक्ष इतिहास के पन्नों में ये गायब होने की कगार पर पहुच गए हैं. इस कड़ी में टोटल तीन पोस्ट मै आपके सामने लाऊंगा.पहला भाग सादर समर्पित उन असंख्यो हिंदुत्व के रखवालों को जो राष्ट्र और धर्म के हित में सबकुछ छोड़ने को तैयार हैं-
वीर हकीकत राय
पंजाब के सियालकोट मे सन् 1719 मे जन्में वीर हकीकत राय जन्म से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। यह बालक 4-5 वर्ष की आयु मे ही इतिहास तथा संस्कृत आदि विषय का पर्याप्त अध्ययन कर लिया था। 10 वर्ष की आयु मे फारसी पढ़ने के लिये मौलबी के पास मज्जित मे भेजा गया, वहॉं के मुसलमान छात्र हिन्दू बालको तथा हिन्दू देवी देवताओं को अपशब्द कहते थे। बालक हकीकत उन सब के कुतर्को का प्रतिवाद करता और उन मुस्लिम छात्रों को वाद-विवाद मे पराजित कर देता। एक दिन मौलवी की अनुपस्तिथी मे मुस्लिम छात्रों ने हकीकत राय को खूब मारा पीटा। बाद मे मौलवी के आने पर उन्होने हकीकत की शियतक कर दी कि इसने बीबी फातिमा* को गाली दिया है। यह बाद सुन कर मौलवी बहुत नाराज हुऐ और हकीकत राय को शहर के काजी के सामने प्रस्तुत किया। बालक के परिजनो के द्वारा लाख सही बात बताने के बाद भी काजी ने एक न सुनी और निर्णय सुनाया कि शरह** के अनुसार इसके लिये सजा-ए-मौत है या बालक मुसलमान बन जाये। माता पिता व सगे सम्बन्धियों के कहने के यह कहने के बाद की मेरे लाल मुसलमान बन जा तू कम कम जिन्दा ता रहेगा। किन्तु वह बालक आने निश्चय पर अडि़ग रहा और बंसत पंचमी सन 1734 करे जल्लादों ने, एक गाली के कारण उसे फॉंसी दे दी, वह गाली जो मुस्लिम छात्रो ने खुद ही बीबी फातिमा को दिया था न कि वीर हकीकत राय ने। इस प्राकर एक 10 वर्ष का बालक अपने धर्म और देश के लिये शहीद हो गया।
जितेन्द्रिय वीर छ्त्रसाल
वीर बुंदेलेछत्रसाल युवा थे । बात उस समय की है । उनका कद लम्बा था । शरीर के एक एक अवयव अति सुगठित और सुडौल थे । नेत्रों में अनोखा की आकर्षण । मुख्मंडल तेजस्वी आभा से युक्त था ।उनका गौरवर्ण का मुखड़ा किसी के भी मन को मोह लेता । लोगों की आखें बरबस उनकी ओर खिंची चली जातीं वृद्ध एवं वृद्धाएं उनमें अपने पुत्र की छवि निहारतीं युवक उनको अपने सुहृद के रूप में पाते । सैनिक अपने नेता की दृष्टि से देखते । उनके एक संकेतपर मर मिटने को सदा तत्पर रहते ।
कुमारियां मन ही मन अपने इष्टदेव से प्राथ्रना करती कि भगवन मुझे भी छत्रसाल ऐसा ही वीर और तेजस्वी पति दो । बच्चे तो उनको चाचा चाचा कह कर घेर लेते । वे भी उनको रोचक कहानिंया सुनाते । उनकी बोली में एक ऐसी मिटास थी कि सभी उस पर लट्टू हो जाते । सारे बुदेलखंड में वे इतने लोकप्रिय हो गए थे कि सभी के आशा के केन्द्र न गए । जन जन उनको अपने नेता के रूप में देखता ।ऐसा आकर्षक था उनका व्यक्त्तिव । यदि किसी की धन सम्पदा नष्ट हो जाती है तो वह कुछ भी नहीं खोता । क्योंकि उसका अर्जन पुनः किया जा सकता है । स्वास्थ्य में अगर घुन लग गया तो अवष्य कुछ हानि होती है । शरीर में ही तो स्वस्थ मन और मस्तिष्क रह सकता है । शरीरमाद्यंखलु धर्म साधनम । ध्येय साधना का वही तो अनुपम साधन है । माध्यम । किन्तु यदि चरित्र ही नष्ट हो गया तो उसको कोई भी नहीं बचा सकता । वह सर्वस्व से हाथ धो बैठता है । पतन की ओर उन्मुख हो जाता है मन का गुलाम बन जाता है ।वीर छत्रसाल धन, स्वास्थ्य और शील इन तीनों गुणों के धनी थे ।
दुपहरिया का समय था ।ग्रीष्म ऋतु का । उन दिनों बुंदेखण्ड में धरती जल उठती है । संपूर्ण पठारी क्षेत्र भंयकर लू की चपेट में झुमस रह था । रात अवश्य ही कुछ ठंडी और सुहावनी हो जाती है ।दिन में तो सूर्य की गर्मी से दग्ध पत्थर तो जैसे आग ही उगलने लगते हैं । ऐससे ही समय में छत्रसाल अश्व पर सवार होकर कही जा हरे थे, यदा कदा वे स्वयं भी शत्रु की खोज खबर लेने को निकला करते थे । बिल्कुल अकेले थे । सारा शरीर पसीने से लथपथ था । बहुत थके हुए थे । उनके भव्य भाल पर पसीना चुहचुहाकर बह निकला था ।बीच बीच ममें वे अपने साफे के एक छोर से श्रम बिंदुओं को पोंछते जाते । कहाँ विश्राम करें ? आस पास कही कोई छायादार वृक्ष नहीं दीखा । बेमन से टप् टप् टप् घोड़े को दौड़ाते आगे ही बढ़ते चले गए । एक ग्राम के निकट पहुंचे । वही पर उनको फलकदार एवं छायादार वृक्षों का एक छोटा सा बगीचा दीखा । यहीपर उन्होंने थोड़ी देर तक विश्राम करने का मन बनाया । अश्व भी वही बुरी तरह से हांफ रहा था । उसकी स्थिति को देखकर उनको तरस आ गया । उसकी छाती धौंकनी ऐसी धौक रही थी । नथुने फूल रहे थे । वे उस से उतर पड़े । एक पेड़ी की छाँव में उसको बांध दिया । कमर से फेंटा खोला । धरतीपर उसका बिछा दिया । मस्तक पर सेपगड़ी उतारी । उसका ही सिरहाना लगा वृक्ष की छाया मं लेट गए । उनको न जाने कब नींद आ गयी ।
आंखे खुली । विस्मय से हैरान रह गए । देखा एक रूपवती युवती सामने खड़ी है, वह विमुगधा सी उनको एकटक निहारे जा रही थी । समझ में न आया । वह यहाँ पर क्यों आयी है । उनका माथा घूम गया । कही यह कोई जादूगरनी तो नहीं है ।जादू टोना करने को आई हो । उन दिनो में जादू टोना बड़ा प्रचलित था ।वे हड़बड़ा कर उठ बैठे ।
हे देवी आप कौन हैं ? यहां पर क्या कर रही हैं ? क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ । छत्रसाल ने समझाथा कि यह नवयौवना सचमुच ही किसी संकट में है। अपनी आप बीती , दुखड़ा उनको सुनाने को आयी है ।उनके लिए यह कोई नयी बात नहीं थी साधारणतया इसी प्रकार के लोग प्रायः उनकेपास आते रहते थे । अपनी कष्ट कथा सुनाते । यथाशक्ति वे उनकी सहायता भी करते । अतः बड़ी सहजता से वे उससे उक्त प्रश्न पूंछ बैठे थे । युवती की दृष्टि नीचे की ओर गढ़ी हुई थी । वह अपने पेर के नख से धरती को कुरेद रही थी । सम्भवतः लज्जा ने उसको आ घेरा था ।वह बोलने में सकुचा रही था सोच रही थी सोच रही थी कि ऐसी बात कहे या नहीं । विवके और अविवेक में विपुल युद्ध छिड़ा हुआ था ।उसका मन इसी झूले में पेंगे मार रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
बहिन । निसंकोच रूप से कहो क्या बात है छत्रसाल ने उससे पूछा । बहिन यह शब्द सुनते ही उसका चेहरा फक पड़ गया था । उसने साहस जुटाया । छत्रसाल से जो कुछ कहना था एक झटके में ही कह डाला । उसकी अभिलाषा को सुन छत्रसाल तो एक क्षण को संज्ञा शून्य से हो गए । दंग ओर अवाक । यह उनका पहला अनुभव था । उसको क्या उत्तर दें ? असमंजसता में पड़ गए थे । तुरंत कुछ उत्तर नहीं सूझा । वासना की इन्द्रियां जब शिथिल हो जाती है तब तो उन पर नियंत्रण कर पाना सरल हो जाता है किन्तु यौवन जब अपनी पूर्णता व चरम सीमा पर होताहै तब मन मस्तिष्क और वासनेद्रियों को अपेक्षाकृत काबू में रख पाना कठिन होता है और वह भी ब सुनसान एकांत स्थान हो । कोइ सोदर्यवती युवती सामने खड़ी हो और स्वेच्छा से प्रणयदान की याचना कर रही हो । ऐसे क्षणों में भी जो अडिग रहता हैवही इन्द्रियजयी , जितेन्द्रिय कहलाता है ऐसे क्षणों में बड़े बड़े साधक और तपस्वी की भी परहीक्षा हो जाती है ।
छत्रसाल को लगा कियह युवती उनकी परीक्षा ही लेने को आई है उस दृष्य को दख उन्होंने आंखो मुदं ली । युवती पर काम का मद सवार था । उसके गात थर थर कांप रहे । ।उसकी कामेंनद्रियां प्रदीप्त हो उठी थीं चेहरा लाल हो गया था । उसने छत्रसाल से बड़ी निर्लज्जता सेप्रणय निवेदन किया था कि वीर पुगंव मेंरी उत्कट अभिलाषा है कि तुम मुझे अपने अंक में समेट लो मुझको अपना लो । मैं आपके संसर्ग से एक संतान चाहती हूं । तुम जैसा ही वीरपुत्र मेरी कोख से जन्में । काम पीड़ा सेआहत उसका चेहरा तमतमा उठा था ।छत्रसाल की तोसिट्टी पिट्टी ही गुम हो गयी थी । उनकी बोलती बंद थी । दोनो के लिए परीक्षाकी घड़ी आ उपस्थित हुई थी । छत्रसाल की जितेन्द्रियता की और युवमी सदविवेक की । महर्षि विश्वामित्र के सामने मेनका भी ऐसे ही खड़ी रही होगी । वे तो क्षणिक आवेश में फिसल पड़ी थे किन्तु वह वीर चरित्र की कसौटी पर खरा उतरा था। कुछ ही क्षणामें में वे स्वस्थ हो गए । उनका चित्त स्थिर हो गया था । बाई जी मैं। हौं छत्ता । तौरो लरका ( हे माता । मैं छत्रसाल हूं तेरा पुत्र ) उन्होंने उससे कहा था ।उनके इस वाक्य ने ही उसको पानी पानी कर डाला था ।उसकी वासना की अग्नि पर शीतल जल की फुहार पड़ गयी । उसकी क्षणिक उत्तेजना शांत हो गयी । जिस माहेजाल में वह जा फंस थी वह कट चुका था ।उसका विचलित मन ठिकाने आ लगा था ।उसमें से निकल आयी थीं ऐ वात्सल्यमय जननी । उसके मन ने कहा धरती मैय्या तू फट जा । मैं पापिनी उसे समा जाऊँ । तू कैसी है री ? प्रणयकी याचना वह भी अपने पुत्र से हीं ओह यह मैने क्या कर डाला ? यह तो घोर पाप है । अनर्थ हैं उसकी अन्तरात्मा ने उसको कुरेदा और झकझोर डाला ।
वह शर्म से डूब गयी थी उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकल ।पश्चाताप की गंगा में अवगाहन कर उसका मन शुद्ध और निर्मल हो चुका था ।यदि उस समय छत्रसाल उसको सम्हाल न लेते तो शायद वह आत्महत्या ही कर डालती । उन्होंने उसके मन की अवस्था को भांप लिया था । उसने छत्रसाल को सच्चे मन से अपना पुत्र स्वीकार कर लिया था । व्यक्ति के जीवन में बहुत बार ऐसे क्षण आते ह। यह अस्वाभाविक नहीं शरीर धर्म की मानव सहज दुर्बलता न्यूनाधिक मात्रा मे सबमें होती है । छत्रसाल ने भी एक निष्ठवान पुत्र के समान उसको मां का सम्मान प्रदान किया था । पता नहीं उसने विवाह किया या नहीं । इतिहास इसपर मौन है । कालान्तर में उसके धर्म पुत्र छत्रसाल ने अपनी इस मुंहबोली माता के लिए एक हवेली का निर्माण करवाया था । पन्ना से थोड़ी दूरपर यह स्थित है। बंऊआ जू की हवेली । ( माता जी की हवेली ) के नाम से आज ये प्रसिद्ध है । दोनो जब तक जीवित रहे मां बेटे का धर्म निभाया । बंऊआ जी पुत्र की स्मृति में जीवन पर्यन्त वहीं पर रहीं थी ।
अब नतो बंऊआ जू हैं और नही छत्ता । लेकिन आज भी खड़ी है वह हवेली । इतिहास की वह पंक्ति । छत्रसाल के इन्द्रियनिग्रही जीवन तथा उनके निर्मल वा उज्ज्वल चरित्र की कीर्ति की गाथा गा रही है ।
रानी हाड़ी
सुबह का दिन था । सूर्य देवता आकाश में दो हाथ ऊपर को चढ़ आए थे । हाड़ा सरदार गहरी निद्रा में था । उसके विवाह को हुए अभी एक सपताह भी नहीं बीता था ।हाथ में कंगन भी नहीं खुले थे । रानी स्वयं पति को जगाने आई थी । सज धजकर वह सामन खड़ी थी । हाड़ा सरदार जगा । उसके चहरे पर छायी नींद की खुमारी अभी भी नहीं उतरी थी । पति पत्नी में किसी बात पर हंसी ठिठोली चल पड़ी तभी दरवान ने आकर सूचना दी कि महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा हुआ है । वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहता है । आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना जरूरी है ऐसा वह कहता है ।
असमय में दूत मे आगमन का समाचार । वह हक्का बक्का सा रह गया । वह सोचने लगा कि अवश्य कोई विशेष बात होगी । राणा को पता है कि वह अभी ही व्याह कर के लौटा है । आपात की घड़ी ही हो सकती है । उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा । मेवा । दूत का तुंरत लाकर बैठक में बिठाओ । मैं नित्यकर्म से शीघ्र ही निपटकर आता हू । हाड़ा सरदार दरबान से बोला जह जल्दी जल्दी में निवृत्त होकर बाहर आया । सहसा बैठक में बैठै राणा के दूत पर उसकी निगाह जा पड़ी । जोहार बंदगी हुई । अरे शार्दूल तु । इतने प्रातः कैसे ? क्या भाभी ने घर से खदेड़ दिया है ? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया । तेरी लई भाभी अवश्य तुम पर नाराज होकर अंदर गयी होगी । नई नई है न । इसलिए बेचारी कुछ नहीं बोली । अम्मा चार । ऐसी क्या आफत आ पड़ी था । दो दिन तो चैन की बंसी बजा लेने देते । मियां बीबी के बीच में दालात में मूसलचंद बनकर आ बैठै । । अच्छा बोलो राणा ने मुझे क्यों० याद किया है ? वह ठहाका मारकर हंस पड़ा । दोनों में गहरी दोस्ती थी । सामान्य दिन अगर होते तो वह भी हंसी में उत्तर दूता । शार्दूल स्वयं भी बड़ा हंसोड़ था । वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह सकता था किन्तु वह बड़ा गंभीर था । दोस्त हंसी छोड़ो । सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ पहुंची है मुझे भी तुंरंत इन्ही पैरों से वापिस लौटना है । यह कहकर सहसा वह चुप हो गया अपने इस मित्र के विवाह हम में बाराती बनकर गाया था । उसके चेहरे पर छायी गंभीरता की रेखाओं को देखकर हाड़ा सरदार का मन आंशकित हो उठा ।सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयी । दूत सकुचा रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं हाड़ा सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश वह लाया था । उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे । हाड़ा के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थो । नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी तो अभी सूखी नहोगी । पति पत्नी ने एक दूसरे कोठी से देखा पहचाना नही होगा । कितना दुखदायी होगा उनका बिछोह ? यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा । पता नहीं युद्ध में क्या हो ? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता है । अंत में जी कड़ा करके उसने हाड़ा सरदार कके हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया । राणा का उसके लिए संदेष था ।
वीरवर । अविलम्ब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब की सेना को रोको । मुसलमान सेना उसकी सहायता को आगे बढ़ रही है । इस समय बादशाह संकट में फंसा है ।मैं उसे घेरे हुए हूं । उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझाकर रखना है ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके तब तक मैं पूरा काम निपट लेता हूं । तुम इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर सकते हो । यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है ।प्राण की बाजी भी लगानी पड़ सकती है । मुझे तुम पर भरोसा है । हाड़ा सरदार के लिए यह परीक्षा की खड़ी थी । एक ओर मुगलों की विपुल सेना और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प । राणा राजसिंह ने मेवाड़ के छिने हुए क्षेत्रों को पुनः मुगलों के चंगुल से मुक्त करा लिया था । औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी ऐड़ी चोटी की ताकत लगा दी थी । वह चुप होकर बैठ गया था । अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी । राणा से चारूमति के विवाह ने उसकी द्वेषाग्नि को और भी भड़का दिया था । इसी बीच में एक बात और हो गयी थी जिसने राजसिंह और औरंगजेब को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया यह सम्पूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था । इस्लाम को कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दण्ड भगतो । इसी निमित्त हिन्दुओं पर यह कहकर उसने दण्डस्वरूप जजिया लगाया था ।
राणा राजसिंह ने इसका डटकर विरोध किया था । उनका हिन्दू मन इसे सहन नहीं कर सका । इसका परिणाम यह हुआ कइ अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपनेयहां लागू करने में आनाकानी की । उनका साहस बढ़ गया था । गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मुंद पड़ गयी थी पुनः प्रज्ज्वलित हो गयी थी । दक्षिण में शिवाजी बुंदेलखण्ड में छत्रसाल, पंजाब में गुरू गोविंदसिंह मरवाड़ में राठौर वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत के विरूद्ध उठ खड़े हुए था । यहां तक कि आमेर के मिर्जा राजा जयसिं और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगलसल्तनत के दो प्रमुख स्तम्भ थे । उनमें भी स्वतंत्रता प्रेमियों के प्रति सहानुभूमि उत्पन्न हो गयी थी ।
घर का भेदी लंका ढाए । औरंगजेब का सगा बेटा ही उसके लिए काल बन गया था ।मुगल सल्तनत का अस्तित्त्व ही दांव पर लग गया था ।अतः करो या मरोके अतिरिक्त उसके सामने कोई चारा न बचा । अतः एक बड़ी सेना लेकर उ सने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए थं । मुगल सेनाके अरावली में न घुसने देने का दायित्व अपने बेटे जयसिंह को सौपा था । अजमेर की ओर से बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का काम दूसरे बेटे भीमसिंह का था । वे स्वयं अकबर और दुर्गादास राठौर के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े थे । सभी मोर्चो पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी ।बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय काकेशियन बेगम बंदी बना ली गयी थी । बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण बचाकर निकल सका था ।मेवाड़ के महाराणा की यह जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी औरंगजेब उनके विरूद्ध सिंर न उठा सका था । यह बात अलग है कि औरंगजेब के जाली पत्र से भ्रमित होकर राजपूत अकबर का साथ छोड़ गए थे ।
किन्दु क्या इस विजय का श्रेय केवल राणा को था । या और को भी ? हाड़ा रानी और हाड़ा सरदार को किसी भी प्रकार से कम नहीं था । मुगल बादशाह जब चारों ओर राजपूतों से घिर गया था । उसकी जान के भी लाले पड़े थे । उसका बचकर निकलना दुष्कर हो गया था तब उसने दिल्ली से अपनी सहायताकों अतिरिक्त सेना बुलवाई थी । राणा को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था । उन्होंने मुगलो सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करनके लिए हाड़ा सरदार को पत्र लिखा थां ।वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र के पास पहुंचा था । एकक्षण का भी विलम्ब न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था । अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था ।
केसरिया बाना पहने युद्धवेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचम्भित थी । कहां चले स्वामी ? इतनी जल्दी । अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह महीनों के लिए युद्धसे फुरसत मिली हैआराम से कटेगी यह क्या ? आष्चर्य मिश्रित शब्दों में हाड़ी रानी पति से बोती । प्रिय । पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती हे। । वह शुभ घड़ी अभी ही आ गयी ।देष के शत्रुओं से दो दो हाथ होने का अवसर मिला है । मुझे यहां से अविलम्ब निकलना है। हंसते हंसते विदा दो । पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो हाड़ा सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा । हाड़ा सरदार का मन आंशकित था ।सचमुच ही यदि न लौटा तो । मेरी इस अर्द्धागिनी नवविवाहिता का क्या होगां ? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह । इसी अन्तर्द्वन्द्व में उसका मन फंसा था । उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी । विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी राजी की तेज आंखो से छिपा न रह सका । यद्यपि हाड़ा सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की । हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है । उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रण भूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर । इसका पति विजयश्री प्राप्त करे अतः उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी । वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए । मैं अभी आई । वह दौड़ी दौड़ी अंदर गयी । आरती थाल सजाया । पति के मस्तक पर टीका लगाया उसकी आरती उतारी । वह पति से बोली । मैं धन्य धन्य हो गयी ऐसा वीर पति पाकर । हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं अप जाएं । मै विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी ।उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था । पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी । चलते चलते पति उससे बोला प्रिय । मैं तुमको कोइ सुख न सका बस इसका ही दुख है मुझे भुला तो नही जाओगी ? यदि मैं न रहा तो ............ । उसके वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके मुख पर हथेली रख दी । नाना स्वामी । ऐसी अशुभ बातें न बोलो । मैं वीर राजपूतनी हूं , फिर वीर की पत्नि भी हूं । अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निष्चिंत होकर प्रयाण करें । देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें । यही मेरी प्रार्थना है ।
हाड़ा सरदार ने घोड़े को ऐड़ लगायी । रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया । उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखो से बह निकला । हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था । किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कही सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दे ? वह मन को समझाता पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता । अंत में उससे रहा न गया । उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिको के रानी के पास भेजा । उसको पुनः स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत । मैं अवष्य लौटूंगा । संदेषवाहक को आष्वस्त कर रानी न लौटाया । दूसर दिन एक और वाहक आया ।
फिर वही बात । तीसरे दिन फिर एक आया । इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र लाया था । प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं । अंगद के समना पैर जमारक उनको रोक दिया है ।मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं । यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है॥ पत्रवाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवष्य भेज देना । उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करूगा । हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयी । युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे । विजय श्री का वरण कैसे करेंगे ? उसके मन में एक विचार कौंधा । वह सैनिक से बोली वीर ? मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं । इसे ले जाकर उ न्हें दे देना । थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना । किन्तु इसे कोई और न देखे । वे ही खोल कर देखें । साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना । हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था प्रिय । मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं । तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं । अब बेफिक्र होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली ............ स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी ।
पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल , एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया । वह धरती पर लुढ़क पड़ा । सिपाही के नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली । कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्णथाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया । सुहाग के चूनर से उसको ढका । भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा । उसको देखकर हाड़ा सरदार स्तब्ध रह गया उसे समझ में न आया कि उसके नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है ? धीरे से वह बोला क्यों यदुसिंह । रानी की निषानी ले आए ? यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया । हाड़ा सरदार फटी आंखो से पत्नी का सिर देखता रह गया । उसके मुख से केवल इतना निकला उफ् हाय रानी । तुमने यह क्या कर डाला । संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर । मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं ।
हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे । वह शत्रु पर टूट पड़ा । इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है । जीवन की आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा । औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नही ही बढ़ने दिया , जब तक मुसगल बादषाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था ।इस विजय को श्रेय किसको ? राणा राजसिंहि को या हाड़ा सरदार को । या हाड़ी रानी को अथवा उसकी इस अनोखी निशानी को ?
बहुत बढ़िया लगा. प्रेरणा मिलेगी सबको. बन्दा बैरागी और हेमू कालानी के बारे में और लिखें...
ReplyDeletevery very very............................................................................ nice post
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