कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम को लेकर जो हो हल्ला मचाया जा रहा है,उसपर विरोध मुझे मजाक लग रहा है या इसके पीछे शायद कोई राजनीती है.मै फिल्म देखकर आ रहा हूँ,मुझे ऐसा कुछ भी नहीं लगा जिससे किसी की भावना आहत होती हो.अफगानिस्तान की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में इस्लामी आतंकवाद को दिखाया गया है जो आज पूरी दुनिया के लिए संकट का सबब बना हुआ है.अफगानिस्तान के बारे में ऐसा कौन है जो नहीं जनता?तालिबान से लेकर लादेन तक की वह कर्मभूमि है.शायद कोई ऐसा दिन बीतता हो जिस दिन वहां आतंकवादी हमले नहीं होते हों.फिर अगर ऐसे देश के हालत के ऊपर फिल्म बनेगी तो उसमे क्या दिखायेंगे?क्या आतंकवादियों के नाम मुसलमानी है,इससे कुछ लोगों की भावना को चोट लग रहा है?हमारे यहाँ फिल्मे वर्षों से बनती आ रही है.किसी फिल्म में ब्राह्मणों को ठग दिखाया जाता था तो क्षत्रियों को शोषक.कभी वैश्यों को पैसा ऐठने वाला.इन लोगों की भावना तो कभी आहत नहीं हुई,पर एक समुदाय विशेष की भावना क्या अलग से उत्त्पन्न होती है,जो दुनिया के हर घटना पर आहत होती है और फिर हिंसक रूप ले लेती है.
मै आपको यहाँ ये बता देना चाहता हूँ की जो विश्वरूपम भारत में बैन हुई है वही सबसे बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया में दिखने का आदेश हो चूका है और शायद जब तक मेरी यह पोस्ट पब्लिश हो,दिखना शुरू भी हो गया हो.
दुनिया में कोई भी घटना हो उसमे भारतीय मुसलमानों की भावना ही क्यों आहत होती है?ये मेरे समझ से परे है.कुछ साल पहले लेबनान में मुहम्मद साहब का कार्टून बनने का समाचार आया,सबसे पहले भारत में इसकी प्रतिक्रिया देखने को मिली.कश्मीर जला और पुरे देश में हिंसक प्रदर्शन हुए. इसके बाद अभी कुछ महीने पहले ही बर्मा में मुस्लिम-बौद्ध दंगे की आग भारत के कई शहरों में जली.मुंबई से लेकर लखनउ तक हिंसा का नंगा नाच देखने को मिला.
इनकी जितनी भावना फालतू चीज़ों में आहत होती है,उतनी मुस्लिम आतंकवाद की सच्चाई को मानकर आहत होती तो पूरी दुनिया शांति से जीती.न कही ९/११ होता और न ही अफगानिस्तान बर्बाद होता.न गोधरा होता न गुजरात.पर इन्हें समझाए कौन?इनकी भावना न हुई छुई मुई का पौधा,स्पर्श करते ही आहत और तड़प...तड़प.....
(मेरे इस लेख का लक्ष्य किसी की भावना को कुरेदना नहीं,सच्चाई से वाकिफ कराना है.आज बैंगलोर में मै यह फिल्म मै अपने एक मुस्लिम मित्र के साथ देख कर आ रहा हूँ.मुझे नहीं लगा की उनकी भावना फिल्म के बीच में या बाद में कही भड़की है.उन्होंने आखिरी में कहा था-पैसा वसूल.)
इसकी बाद भी किसी की भावना भड़कती है तो भाई अपने मस्तिष्क में कोई यन्त्र लग्वावो जो भावनाओं पर नियंत्रण रख सके)
(मेरे इस लेख का लक्ष्य किसी की भावना को कुरेदना नहीं,सच्चाई से वाकिफ कराना है.आज बैंगलोर में मै यह फिल्म मै अपने एक मुस्लिम मित्र के साथ देख कर आ रहा हूँ.मुझे नहीं लगा की उनकी भावना फिल्म के बीच में या बाद में कही भड़की है.उन्होंने आखिरी में कहा था-पैसा वसूल.)
इसकी बाद भी किसी की भावना भड़कती है तो भाई अपने मस्तिष्क में कोई यन्त्र लग्वावो जो भावनाओं पर नियंत्रण रख सके)
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