Saturday, November 6, 2010
इस्लाम की तालीम सोच बदल देती है
सारे जहाँ से अच्छा,हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसके,ये गुलसितां हमारा
महज़ब नहीं सिखाता,आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन हैं,हिन्दोस्तां हमारा...
एक ऐसी कविता...जो शायद हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा जनता है.हमारे तथाकथित सेकुलर लोग इस कविता को हमारे सामने एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं.इसका एक वज़ह भी है.यह कविता एक हमारे मुसलमान बंधू मोहम्मद इकबाल ने लिखी थी १९०७ में.और आज भी यह कविता पढने के बाद हमारे अन्दर राष्ट्र प्रेम की भावना उमड़ने लगती है.वास्तव में इसकी बोल ही ऐसी है.
महज़ब नहीं सिखाता,आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन हैं,हिन्दोस्तां हमारा..
कहने वाले मोहम्मद इकबाल ने जब यह कविता लिखी थी तब तक उन्हें इस्लाम की पूरी तालीम नहीं मिली थी.जब उन्हें इस्लाम की की पूरी तालीम मिली तो १९०८ में उन्होंने इस कविता के आगे कुछ और लाइने जोड़ी जो की उन्होंने लेबनान इस्लामिक सोसाइटी के अपने वक्तव्य में सुनाया-
चीन औ अरब है हमारा,हिंदुस्तान है हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन हैं,ये सारा जहाँ हमारा
तौहीन की ईमारत है सीनों में हमारे
आसां नहीं मिटाना,नामो निसा हमारा..
आज जो कविता हमें पढाई जाती है...वो आधी अधूरी है...पूरी कविता तो तथाकथित सेकुलर गिरोह के मुह के ऊपर तमाचा है.इसमें हम इकबाल साहब का दोष क्यूँ दें...उनका दीन उन्हें यही सिखाता है- "दुनिया के तमाम मुसलमान भाई हैं. " जब दुनिया के तमाम मुसलमान ही भाई हैं तो हम और कौम के तरफ से क्या लिखें?शायद उन्हें हमारी तरह "वसुधैव कुटुम्बकम" की शिक्षा मिलती तो एक साल के अन्दर उनके अन्दर इतना बदलाव नहीं आता.
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ये ऐसा काम था जिसपर अल्लामा इकबाल साहब को तौहीन महसूस होना चाहिये था..
ReplyDeleteइसलाम नमकहरामी और गद्दारी का दूसरा नाम है।
ReplyDeleteराहुल जी... कुछ हद तक तो सही है.
ReplyDeleteकुछ पढ़े -लिखे मुस्लिम बड़ी अच्छी बातें करते हैं.